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“जो घर की सीमाएं तक नहीं लांघती थीं, वो आज मंच पर चढ़कर भाषण दे रही हैं”

76 साल की सुरजीत कौर से जब कोई कहता है कि अम्मा घर क्यों नहीं चली जाती, दिल्ली आए 100 दिन से भी ज़्यादा हो गए हैं? तो वो कहती हैं कि घर जाकर करेंगे भी क्या? जब इस काले कानून के चलते सबकुछ खत्म ही हो जाएगा। जबतक सरकार तीनों कानूनों को वापस नहीं ले लेती तब तक मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी।

तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन करते हुए किसानों को 100 दिन से भी ज़्यादा हो चुके हैं। इतनी बड़ी संख्या में जनता की भागीदारी के साथ यह भारतीय इतिहास का अबतक का सबसे बड़ा आंदोलन है। यह संयोग ही है कि महिला दिवस और इस आंदोलन के 100 दिन एक साथ ही पड़ रहे थे।

किसान आंदोलन को मजबूती देतीं महिला किसान

किसान आंदोलन में महिलाओं ने जिस तरह से भूमिका निभाई है, ये भारत के इतिहास में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का एक नया अध्याय है। इस आंदोलन में महिलाएं केवल घर-बार तक ही खुद को सिमित नहीं रख रही है, बल्कि वो आंदोलनों के जरिये विरोध प्रदर्शन में भी भाग ले रही हैं।

महिलाओं के इन्हीं हौसलों के चलते, हाल ही में दुनिया की प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन ने अपने कवर पेज पर किसान आंदोलन में शामिल महिलाओं को जगह दी है, मैगजीन ने अपने आर्टिकल के शीर्षक पर लिखा है –

“I Cannot Be Intimidated. I Cannot Be Bought.
                      यानि
हमें धमकाया नहीं जा सकता, हमें         खरीदा नहीं जा सकता।”

 

तपती दोपहरी में अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर आंदोलन में बैठी महिलाओं का हौसला कम नहीं है। वो मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हुए भी आंदोलन में डटी हुई हैं। बात अगर आंदोलन भर की करें तो किसी भी आंदोलन के चलने में बहुत सी समस्याएं आती हैं। मगर महिलाओं के लिए इन समस्याओं से इतर भी कुछ समस्याएं होती हैं, जिनका सामना करना आसान नहीं होता।

महिलाओं के लिए कितना सहज है आंदोलन स्थल?

महिला अंदोलन में शामिल जगरूप कौर बताती हैं कि “आज से कुछ दिनों पहले जब सरकार ने पानी की सप्लाई बंद करवा दी थी, बिजली के कनेक्शंस काट दिए गए थे, तब महिलाएं दो हफ्तों तक बिना नहाये इस आंदोलन में डटी हुई थीं। जगरूप बताती हैं कि आंदोलन में शौच की समस्या महिलाओं की मुख्य समस्या है। मोबाईल टॉयलेट की व्यवस्था भी पर्याप्त संख्या में नहीं है। कई बार खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।”

महिलाएं शौचालय की समस्या के चलते पानी तक कम पीती हैं, जिससे डि-हाइड्रेशन का खतरा भी बना रहता है। मेंस्ट्रुएट करने वाली महिलाओं को सबसे ज़्यादा समस्या होती है। कई तरह के इन्फेक्शंस की वजह से वो लगातार बीमार पड़ रही हैं।

इतनी दिक्कतों के बीच हम यहां बैठे हैं लेकिन स्टेट को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। महिला दिवस पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बस एक पाखंड है। सर्दी से लेकर गर्मी तक न जाने कितने लोग इस आंदोलन में अपनी जान गंवा बैठे लेकिन सरकार का रवैया ऐसा है जैसे हम इस देश के नागरिक ही न हों।

टाइम मैगजीन की कवरेज देश की मेनस्ट्रीम मीडिया के मुंह पर एक थप्पड़ है

टाइम मैगज़ीन में इंटरव्यू देने वाली सुदेश गोयत कहती हैं कि “किसान आंदोलन के चलते आज देश की महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति काफी जागरूक हुई हैं। इस किसान आंदोलन में मजदूरों, किसानों, सैनिकों के परिवार की महिलाएं आज एक साथ-एक मंच पर अपने अधिकारों को लेकर खड़ी हैं। इनकी भूमिका किसी भी पुरुष से कम नहीं है। जो महिलाएं कभी घरों से बाहर नहीं निकलती थीं, आज वो अपने पतियों से कह रही हैं कि आप आंदोलन में जाइए, खेती का हम देख लेंगे। यही सब चीजें हमारे आंदोलन को और मजबूत करती हैं।”

मैगजीन के कवर पेज पर महिलाओं को स्थान देने पर सुदेश कहती हैं कि

“महिला किसानों का मैगजीन में जगह पाना देश की मेनस्ट्रीम मीडिया को आइना दिखाने जैसा है। जो लोग आंदोलन में शामिल महिलाओं के संघर्ष को ये कहते हुए खारिज करते थे कि ये 100-100 रूपये लेकर आंदोलन में शामिल होने वाली महिलाएं हैं, यह कवरेज उनके मुंह पर थप्पड़ की तरह है।”

सरकार आंदोलन का समर्थन करने वाली महिलाओं की आवाज़ को दबाना चाहती है पर इन्हें ये नहीं मालूम ये जितना औरतों की आवाज़ को दबाने की कोशिश करेंगे, औरतें उतनी ही सशक्त होकर निकलेंगी।”

जो कभी घर से बाहर तक नहीं निकली थीं, आज आंदोलन में मोर्चा संभाल रही हैं

दिल्ली बॉर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन का अपना अखबार है “ट्राली टाइम्स”, जिसे नवकिरण चलाती हैं। यह एक साप्ताहिक अखबार है। इस अखबार में आंदोलन की खबर, किसानों की समस्याओं से जुड़ी खबर, साथ ही आंदोलनों के बीच से निकली हुई कहानियां शामिल होती हैं। आंदोलन में सूचनाओं के लिए यह एक सुलभ माध्यम है। लोग अखबार को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं।

खुद के अखबार निकालने के सवाल पर नवकिरण कहती हैं कि “जब देश का मेनस्ट्रीम मीडिया किसान आंदोलन की बात को सरकार तक पहुंचाने की बजाय, आंदोलन कर रहे लोगों को ही गलत साबित करने लग जाए तो इस मीडिया पर क्या ही भरोसा करना? जिस कारण हमने अपना खुद का अखबार निकालना शुरू किया।”

नवकिरण बताती हैं कि “जो लोग इसमें लिखते हैं वो इस आंदोलन का हिस्सा भी हैं। वो आंदोलन में भाग लेने के साथ-साथ किसानों को जागरूक करने के लिए भी लेख लिखते हैं।” आंदोलन में महिलाओं की भूमिका के बारे में नवकिरण कहती हैं कि “आजादी बाद के इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो जब इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं किसी आंदोलन में भाग ले रही हैं।”

“यह आंदोलन इस मामले में खास है कि आंदोलन में कोई महिला किसी की मां या किसी की बेटी की हैसियत से शामिल नहीं हुई हैं, बल्कि वो यहां पर एक किसान की हैसियत से इसमें शामिल हुई हैं। यही इस आंदोलन की खूबसूरती है और यही इस आंदोलन को मजबूती देता है।”

किसान आंदोलन के 100 दिन में महिलाओं की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया सकता है। जो महिलाएं कभी अपना घर नहीं लांघती थीं, आज वो आंदोलन में मोर्चा संभाले हुए हैं मंच से भाषण दे रही हैं। पत्रकारों को इंटरव्यू दे रही हैं। लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक कर रही हैं। महिलाएं आज किसान आंदोलन में एक शक्ति के रूप में स्थापित हुई हैं। इन तीन कानूनों के खिलाफ संघर्ष का परिणाम जो भी हो परंतु महिलाओं के इस संघर्ष को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा।

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