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कोरोना काल के लॉकडाउन में आम आदमी का सफरनामा

कोरोना काल के लॉकडाउन की जीवन डायरी

लॉकडाउन का चौथा चरण शुरू हो गया और अब ज़िन्दगी में थोड़ी बहुत चीज़ें बदली भी गईं हैं, क्योंकि अब सभी को लगभग ऐसा लगने लगा है कि सिर्फ घरों में बैठकर सामान्य रहने का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। आदमी ज़्यादा दिन बिना काम किए बैठा नहीं रह सकता है। खैर! लेकिन एक चीज़ कमोबेश वैसी ही है और वो है लोगों का दूसरे शहरों से अपने शहरों की ओर लौटना।

चरणीय लॉकडाउन से सबसे अधिक प्रभाव अप्रवासी श्रमिकों पर पड़ा है 

लोगों के दूसरे शहरों से अपने शहरों की ओर लौटने की वजहें तो साफ हैं कि जब काम ही नहीं है तो वे क्या खाएंगे? सरकार द्वारा अप्रवासी श्रमिकों के लिए कुछ वादे तो हुए लेकिन वे पूरी तरह से प्रभावी नहीं हैं, जो उन शहरों में रह रहे लोगों को इस बात का आश्वासन दे सकें कि उन्हें कम-से-कम पेटभर खाना तो मिलेगा।
इस वक्त संसार तीन भागों में बंटा हुआ दिख रहा है। एक सबसे बड़े संसार और किसी देश के आधार हैं उसके निर्माणकर्ता लोग जो अपने गाँव-घरों को छोड़कर किसी और शहर में रहकर उसे बनाने-संवारने का काम करते हैं। ऐसे लाखों अप्रवासी श्रमिक जो आज रास्ते में हैं, कोई घर पहुंचा, कोई नहीं पहुंचा, किसी ने घर पहुंचने से पहले ही अपना दम तोड़ दिया और कोई अब भी लगातार चले जा रहा है।

सरकार द्वारा अप्रवासी श्रमिकों के लिए घोषित किया गया राहत पैकेज महज़ कागज़ों में हैं 

अप्रवासी श्रमिकों को कहीं सुविधाएं मिल रही हैं, कहीं नहीं मिल रहीं लेकिन, सरकार ने उनके लिए एक बहुत बड़ा राहत पैकेज भी घोषित किया था। जिसमें प्रवासियों का भी एक बड़ा हिस्सा बताया गया था। वो सब ठीक है लेकिन एक सबसे बुनियादी बात है, जिसे हमें सबसे पहले समझना और हल करना चाहिए। वो यह है कि पैकेज का पैसा जब पहुंचेगा तब पहुंचेगा और वैसे ही योजनाओं को लागू होने में वक्त तो लगता ही है।
उससे पहले सबसे ज़रूरी है कि फिलहाल जो लोग एक जगह से दूसरी जगह जा रहे हैं उनके खाने और सुरक्षित घर पहुंचने की उचित व्यवस्था की जाए। सरकार के राहत पैकेज का पैसा यहां खर्च हो जाए तो ज़्यादा सही होगा, क्योंकि इस समय सबसे ज़रूरी चीज़ है उनका सुरक्षित होना। उन्हें पैसे तो तब मिलेंगे, जब वो ज़िंदा बचेंगे।

अप्रवासी श्रमिक अपनी आजीविका को लेकर अनिश्चितता में हैं 

सरकार द्वारा व्यवस्था की भी जा रही है, बहुत सारे अप्रवासी श्रमिक घर पहुंचे भी हैं ट्रेनों से, बसों से। वैसे, अप्रवासी श्रमिकों की संख्या भी बड़ी है, लेकिन अगर सरकार द्वारा पूरा ध्यान इधर दिया जाता या अब भी दिया जाए तो कम-से-कम इस तरह से तो लोग नहीं मरेंगे। कुछ दुर्घटनाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है।
देश के लोगों को इस तरह से तो नहीं मरना था कि कोई अपने घर जाते हुए अपनी दम तोड़ दे, कोई साइकिल से जा रहा है, कोई पैदल, कोई कैसे जिसको जैसी व्यवस्था मिल जा रही है, वो वैसे ही अपने घरों की ओर लौट रहा है। 

अप्रवासी श्रमिकों से इतर आम जनमानस की समस्याएं 

ये थी पहली दुनिया, जिसे सबसे ज़्यादा कष्ट झेलना पड़ रहा है। मगर दूसरी दुनिया के कष्ट अलग हैं। सबके अपने-अपने दुःख हैं। दूसरी दुनिया घर में बंद लोगों की है, हमारे जैसे लोगों की, जिन्हें ये नहीं सोचना है कि घर कैसे पहुंचना है? या खाना कहां मिलेगा? या कैसे घर पहुंचेंगे?
हमें केवल इतना सोचना है कि हमारा ऑफिस कब खुलेगा, घर से बाहर जाने को कब मिलेगा, चीज़ें पहले की तरह सामान्य कब होंगी। हम कब बाहर खाने जा सकेंगे, कब ऑफिस जा सकेंगे आदि आदि। हमारा अपना रोना है, ये महामारी भी सबके लिए बराबर की चुनौती नहीं लाई है।

कोरोना को लेकर अभी आम जनमानस संशय में है 

 जो तीसरी दुनिया है, वो है हमारे मन की दुनिया, इस समय बहुत से लोगों को खाली वक्त मिला है तो लोग अकेले में भी बहुत सारा वक्त बिता रहे हैं। हमारे मन में बहुत सी चीज़ें चल रही हैं, आगे क्या होगा? कोरोना खत्म होगा या नहीं ? आदमी अब भविष्य के बारे में ज़्यादा कुछ प्लान नहीं कर पा रहा है। एक अदृश्य चीज़ ने पूरी दुनिया को रोक रखा है, कुछ करने से।
देश में चीज़ें जब भी सामान्य हों, लेकिन ये हमारे सीखने-समझने के लिए एक अवसर है कि हमें शायद अपनी जीवनशैली को बदलने की ज़रूरत है, क्योंकि जितने भी सुविधा के साधन हमने ईजाद किए हैं। इस दौरान वे सभी फेल हो गए हैं। पैसे से लेकर मशीनरी तक तो ज़ाहिर है कि ये सुविधाएं हमें ज़्यादा दिनों तक नहीं बचा सकती हैं। हमें केवल हमारी संतुलित जीवनशैली और रहने का तरीका ही बचा सकता है।
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