समाज, जिसमें हम रहते हैं। यह समाज क्या महिलाओं का भी उतना ही है, जितना पुरुषों का? क्योंकि आजकल के हालात भले ही महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दे रहे है पर सच्चाई क्या है? कितनी है? यह आप और हम अच्छी तरह से जानते हैं।
ऐसे कहने के लिए यह समाज सिर्फ महिलाओं का है पर जब परिवार से जुड़े फैसले लेने की बारी आती है तो उन्हें यह कहकर पीछे कर दिया जाता है कि तुम में इतना दम नहीं, तुमने जिंदगी भर घर ही संभाला है या फिर उसके फैसले को तब सही माना जा सकता है जब वह किसी बड़े पद पर हो, वरना औरतें ही औरतों के अधिकारों का हनन कर देती हैं।
आप किस समाज की बात कर रहे हैं ! जिसमें महिलाएं खुद ही महिलाओं को आगे नहीं आने देती या फिर उनकी सफलताओं से खिन्न रहती हैं।
एक माँ को अपने मातृत्व से इतर एक दोस्त की भूमिका निभानी चाहिए
आपने कभी यह सोचा है कि इसकी शुरुआत कहां से हुई फिर आप सब कहेंगे कि इसकी शुरुआत समाज में सर्वप्रथम पुरुषों ने ही की थी। मैं कहूंगी यह शुरुआत स्त्री ने खुद की, जिसकी पहल उसने स्वयं के बेटी और माँ के रुप में की। जिस समय बेटी को अपनी ज़िन्दगी में माँ के रूप में एक दोस्त और मार्गदर्शक की जरूरत होती है, उस समय वह एक दोस्त और मार्गदर्शक के इतर मां के रूप में उपस्थित रहती है। वह माँ के रूप में उसे सिखाती और बताती रहती है कि क्या गलत है? क्या सही?
इस सीख को देते हुए वह माँ यह क्यों भूल जाती है कि उसने भी अपने बचपन में यही सहा होगा फिर भी वो उसे यह क्यों नहीं समझा पाती कि वह उसकी माँ होने के साथ-साथ उसकी दोस्त भी है। एक माँ अपनी बेटी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के इतर सिर्फ बेटी को यही शिक्षा देती है कि ऊंची आवाज़ में मत बोलो, किसी से ज़्यादा बात मत करो, ठीक से कपड़े पहनो।