हमारा घर बिहार के चंपारण जिले के भारत-नेपाल सीमा से सटे हुए क्षेत्र में स्थित है। हमारे यहां पिछले पच्चीस बरस से एक बूढ़ा आदमी नवरात्र के हवन के लिए गड्ढे खोदने का काम करता है, मंदिर की सीढ़ियां धोता है, छठ के दौरान घाट की सफाई करता है और मंदिर के मरम्मत के दौरान मजदूरी का काम भी करता है।
जब वो नवमी के हवन के लिए जमीन से मिट्टी निकालकर वहां लकड़ियां डालता है तब कोई उसके जाति-धर्म पर सवाल नहीं उठाता, सवाल उठना भी नहीं चाहिए। मगर देश की हालिया परिस्थिति ऐसी है कि हो सकता है कल ही कोई आकर उसे इस काम के लिए प्रताड़ित करने लगे, मारने-पीटने लगे! इसलिए बिना पूछे सवाल का जवाब दे रहा हूं!
मुसलमान होकर भी इद्रीस मियां ने सारा जीवन मंदिर के कामों में ही बिताया
उनका नाम इद्रीस मियां है। नाम से मुसलमान। उम्र लगभग सत्तर साल। जब मैं घर पर रहूं तो शायद ही कोई दिन ऐसा होगा जिस दिन उन्हें नमाज़ पढ़ता हुआ ना देख पाऊं। लंबे समय से हमारी पुस्तैनी जमीनों पर धान और गेहूं वही उगाते आ रहे हैं। उनकी अपनी कुछ धुर घड़ारी की जमीन थी जहां अब मस्ज़िद बन रहा है। जब मस्जिद निर्माण के लिए उन्होंने अपनी ज़मीन दान में दी तो लोगों ने पूछा था; “जमीन तो दान दे दी मियां, अब इस बुढ़ापे में कहां रहोगे?”
मुझे पूरा-पूरा याद है उन्होंने यही जवाब दिया था, “मालिक सब पर नज़र रखता है। पूरा जीवन माता के दरबार में सेवा की है और पांच वक्त का नमाजी हूं। अगर बुढ़ापे में सहारा नहीं मिला तो माता के दरबार में रहकर ही गुजारा कर लूंगा।”
क्या हमारे पूर्वजों ने इसी नए भारत का सपना देखा था?
मैं आपको बता दूं मेरा गांव नेपाल की सीमा पर ज़रूर है लेकिन हिन्दुस्तान में है। उसी हिंदुस्तान में जहां मन्दिर में पानी पीने जाने वाले बच्चे को बेरहमी से मारा-पीटा जाता है। इद्रीस मियां की तस्वीर फोन में नहीं है लेकिन उस आसिफ की ज़रूर है, जिसका ज़ुल्म बस इतना था कि वो दूसरे धर्म से ताल्लुक रखता था, मुसलमान था।
आसिफ वाली घटना आम नहीं है, हालांकि इस देश में रोज ही ऐसी घटनाएं होती होंगी जिसका वीडियो वायरल नहीं किया जाता है। आपने यदि वीडियो देखा है तो ये सवाल आपसे भी है। क्या इंसानों की बस्ती इतनी गन्दी हो गई है कि किसी के प्यास को बुझाने से पहले जात पूछा जाए और फिर पीटा जाए? क्यों यहां के कण-कण में नफरत का ज़हर घोल दिया गया है? क्या हमारे पूर्वजों ने इसी नए भारत का सपना देखा था?