भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इसकी रचना करते समय एक ऐसे समाज की परिकल्पना की थी कि भारत में एक ऐसे समाज की संरचना हो, जहां जाति, धर्म, रंग, लिंग, क्षेत्र इत्यादि के आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं हो। अर्थात उन्होंने भविष्य के भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखा था, जहां पर जातिगत, धर्मगत, लिंगगत , क्षेत्रगत आदि विषमताएं ना हो और समतामूलक समाज की स्थापना हो।
वैसे, कहने के लिए भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को समान अवसर और अधिकार प्रदान करने का दावा करता है परंतु, ट्रांसजेंडरों के परिप्रेक्ष्य में ये बात उतनी तर्कसंगत और प्रासंगिक नहीं जान पड़ती है।
ट्रांसजेंडर समुदाय का हमारे प्राचीन इतिहास से सम्बन्ध है
ट्रांसजेंडर भारतीय इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। भारतीय पौराणिक कथाओं, मिथक , रामायण, महाभारत आदि में ट्रांसजेंडरों का जिक्र आता रहा है। महाभारत में शकुनि की कथा को कौन नहीं जानता? यहां तक की अर्जुन के बारे में भी ये सर्वविदित है कि वह एक अप्सरा के श्राप के कारण उन्हें कुछ समय के अपना पौरुषत्व खोना पड़ा था।
मध्यकालीन इतिहास में भी ट्रांसजेंडरों का जिक्र बार-बार आता है। खासकर मुगलकालीन इतिहास में इस बात का जिक्र आता है कि ट्रांसजेंडरों का इस्तेमाल उस समय मुगल बादशाहों के बेगमों की सेवा में किया जाता था।
परंतु, जहां तक ट्रांसजेंडरों के बराबर के अधिकार की बात है, इतिहास में ऐसा कोई जिक्र नहीं आता है। स्वतंत्रता हासिल करने के बाद भी ट्रांसजेंडरों की दशा और दिशा में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। अभी हाल ही के कुछ पिछले दशकों की बात है कि यदि कोई ट्रांसजेंडर शिशु किसी परिवार में पैदा होता था तो उसके परिवार वाले चाहकर भी उसे अपने घर में नहीं रख पाते थे।
ट्रांसजेंडरों को समाज में एक सामाजिक नागरिक की भांति स्वीकार नहीं किया जाता
आखिर, ट्रांसजेंडर के रूप में पैदा होने में उस शिशु का क्या दोष? परंतु, सामाजिक अस्वीकार्यता के कारण ट्रांसजेंडर शिशु को अपने माता-पिता का घर त्यागना ही पड़ता था। चूंकि, इनको शिक्षा और रोज़गार के साधन उपलब्ध नहीं होते थे तो मजबूरन उन्हें सेक्स वर्कर , भिक्षाटन, नाच-गाना आदि करके अपना जीवनयापन करना पड़ता था।
सिनेमा का हमारे समाज पर प्रभाव
यह सर्वविदित तथ्य है कि सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है। सिनेमा दर्शाता है कि समाज में क्या हो रहा है? भारतीय संदर्भ में भी यही सच है। यदि कोई भारतीय सिनेमा में ट्रांसजेंडरों की भूमिका का अवलोकन करता है तो उनकी भूमिका प्रमुख रूप से नर्तक, भिखारी और सेक्स वर्कर के रूप में कार्य करने तक सीमित होती है।
हमारी भारतीय फिल्मों जैसे- “सड़क”, “अमर, अकबर एंथनी” आदि में ट्रांसजेंडरों के चित्रण को कौन भूल सकता है। भारतीय सिनेमा में भी ट्रांसजेंडरों की भूमिका नकारात्मक चरित्रों के चित्रण की सीमा तक सीमित है, जो कि भारतीय समाज में उनकी बिगड़ती हुई स्थिति पर प्रकाश डालती है।
भारतीय न्यायालयों के द्वारा उनके हितों के लिए ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं
हालांकि, पिछले कुछ सालों में माननीय भारतीय न्यायालयों द्वारा कुछ ऐसे फैसले आएं हैं जिनसे समाज में ट्रांसजेंडरों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है। परंतु, इसका श्रेय कुछ समाज सेवी संस्थाओं को जाता है जिन्होंने ट्रांसजेंडरों के हित मे लड़ाई की। पहले यदि कोई नौकरी के लिए आवेदन करता था तो आवेदक के लिंग के स्थान पे केवल महिला या पुरुष ही आता था।
वर्ष 2014 में, माननीय सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक फैसला दिया है जिसका शीर्षक है राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ। इसमें माननीय सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि एक ट्रांसजेंडर, किसी पुरुष या महिला से अलग और अलग होता है और उन्हें ‘थर्ड जेंडर’ के रूप में संदर्भित किया जाता है।
इससे पहले, अगर कोई नौकरी के लिए आवेदन करता है, तो आवेदक के लिंग के स्थान पर केवल महिला या पुरुष ही आता था। अब तीसरे विकल्प में आवेदक के लिंग के स्थान पर “अन्य” लिखा जाता है। यह ट्रांसजेंडरों के हितों को ध्यान में रखते हुए डाला गया है। इसके परिणामस्वरूप कार्यस्थलों पर ट्रांसजेंडरों को उचित सम्मान मिलने लगा है।
केरल हाई कोर्ट ट्रांसजेंडर समुदाय N. C.C में शामिल होने की अनुमति दी गई है
इस वर्ष, एक और निर्णय माननीय केरल उच्च न्यायालय से आया, जिसके माध्यम से एक महिला ट्रांसजेंडर को N. C.C में शामिल होने की अनुमति दी गई। यह मामला था, जहां एक महिला ट्रांसजेंडर ने एन.सी.सी. ज्वाइन करने के लिए आवेदन दिया था, लेकिन एन.सी.सी. अपने स्वयं के नियमों और विनियमों का हवाला देते हुए उस आवेदन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
N. C.C ने यह तर्क दिया कि केवल पुरुष और महिला एन.सी.सी. में शामिल होने के लिए आवेदन करने के लिए पात्र हैं, ट्रांसजेंडर नहीं। इस स्थिति में, महिला ट्रांसजेंडर के पास माननीय केरल उच्च न्यायालय के दरवाजे को खटखटाने के सिवा कोई विकल्प नहीं रह गया था, जहां उसे एन. सी.सी. जॉइन करने का अधिकार मिल गया। यह निर्णय भी ट्रांसजेंडरों की सामाजिक स्वीकृति के पक्ष में दिया गया एक महत्वपूर्ण निर्णय है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ट्रांसजेंडरों के हितों के लिए किए गए प्रयास
वर्ष 2015 में, WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) ने एक दिशानिर्देश जारी किया है, जो कि पूरे विश्व में ट्रांसजेंडरों के बेहतरी के उद्देश्य से जारी किया गया है। WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) द्वारा जारी किये गए इस दिशानिर्देश अनुसार कहीं भी ट्रांसजेंडरों को मेडिकल आधार पर या किसी अन्य आधार पर उनसे कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। हालांकि, यह दिशानिर्देश वर्ष 2015 में आए हैं, लेकिन अभी तक भारत में पूरी ताकत से ये लागू नहीं हो पाए हैं।
हालांकि, IPC(आई.पी.सी. अर्थात भारतीय दंड संहिता) की धारा 377 सीधे तौर पर ट्रांसजेंडरों से संबंधित नहीं है, फिर भी काफी समय से इसका इस्तेमाल कानून के नाम पर एक ट्रांसजेंडर को परेशान करने के उपकरण के रूप में किया जाता रहा है। इस दशक दिल्ली के माननीय उच्च न्यायालय से जो निर्णय आया, उसने आई.पी.सी. की धारा 377 की उदार व्याख्या की और इसने ट्रांसजेंडरों के जीवन को और अधिक आरामदायक बना दिया।
ट्रांसजेंडरों के अधिकारों एवं हितों में भारतीय न्यायालयों की भूमिका
हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय में एक और याचिका दायर की गई है, जिसमें ट्रांसजेंडरों को रक्तदान करने के अधिकार देने की मांग की गई है। भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस वर्ष हाल ही में इस याचिका पर नोटिस जारी किया है। यह उम्मीद की जाती है कि इसी तरह के और महत्वपूर्ण निर्णय माननीय न्यायालयों द्वारा आएंगे जो ट्रांसजेंडरों को भारतीय समाज में और अधिक सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान करवा पाएंगे।
वर्ष 2019 में, द ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स) बिल, 2019 लोकसभा में पेश किया गया, जो ट्रांसजेंडरों को किसी भी तरह के भेदभाव से बचाता है। इस बिल के अनुसार, ट्रांसजेंडर तभी लाभ उठा सकता है, जब किसी ट्रांसजेंडर को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट द्वारा जारी सर्टिफिकेट के आधार पर किन्नर के रूप में मान्यता दी जाए। यह बिल भीख मांगने का अपराधीकरण भी करता है।
वास्तव में, कोई भी अपनी पसंद से भीख मांगने का विकल्प नहीं चुनता। ऐसे अव्यावहारिक कानून पारित करने के बजाय, सरकार को उनकी स्थिति में सुधार के लिए और अधिक व्यावहारिक उपाय के साथ आगे आना चाहिए।
नाम के लिए ही सही पर भारत सरकार उनकी हालत में सुधार के लिए कदम उठा तो रही है, परंतु उनका कोई वास्तविक कल्याण होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। वास्तविक कल्याण तो भारतीय न्यायपालिका द्वारा विभिन्न उपयोगी निर्णयों का प्रतिपादन करके ही किया गया है।
समाज में ट्रांसजेंडरों की वास्तविक स्थिति दयनीय एवं अमानवीय है
हालांकि, माननीय हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ फैसले ऐसे आए हैं, जिनसे ये कहा जा सकता है कि येट्रांसजेंडरों के हक में हैं, लेकिन क्या समाज में इनको वैसे ही स्वीकार किया जा रहा है जैसे कि अन्य नागरिकों समान? वास्तविकता तो ये है कि अभी भी ट्रैफिक रेड लाइट पर ट्रांसजेंडर भीख मांगते मिलते हैं।
अभी भी इनकी शिक्षा में कोई सुधार नहीं हुआ है। अभी भी रोज़गार के साधन इनके लिए उपलब्ध नहीं हैं। अभी भी शादी-ब्याह आदि के अवसर पर ट्रांसजेंडरों को नाच-गाना करके अपनी आजीविका चलानी पड़ती है। अभी भी स्वयं के सम्मान और अवसर की लड़ाई के लिए ट्रांसजेंडरों को बार-बार माननीय न्यायालयों के पास ही जाना पड़ता है।
राजनैतिक पार्टिया अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु औरअपने वोट बैंक की रक्षा हेतु आरक्षण का प्रावधान करती आई हैं। फिर, इन ट्रांसजेंडरों के लिए किसी तरह के आरक्षण का प्रावधान क्यों नहीं है? क्या कल्याणकारी योजनाएं और आरक्षण केवल उन लोगों के लिए हैं, जो राजनीतिक हित के लिए फायदेमंद हैं?क्या राजनीतिक हित कल्याणकारी योजनाओं के लिए एकमात्र मार्गदर्शक कारक है या भारतीय संविधान की इसमें कुछ भूमिका है?
क्या ट्रांसजेंडर भारत के नागरिक नहीं हैं? क्या भारतीय सरकार की इनके प्रति कोई कोई जवाबदेही नहीं बनती? क्या ट्रांसजेंडरों को शिक्षा और रोज़गार के समान अवसर प्रदान करना भारतीय तंत्र का काम नहीं है? या ट्रांसजेंडरों को सामाजिक स्वीकार्यता की लड़ाई के लिए माननीय न्यायालयों के जाने के अलावा कोई और रास्ता है ही नहीं? फिर भारतीय संविधान में प्रदान की गई समानता के अधिकार के प्रावधान का औचित्य ही क्या रह जाता है?