यूरोप और एशिया में सामान्य रूप से हर जगह पाई जाने वाली गौरेया, एकमात्र ऐसा पक्षी है। जो इंसानों के साथ उनके घरों में रहना पसंद करती है, इसलिए इसे घरेलू चिड़िया (हाउस स्पैरो) के तौर पर जाना जाता है। लोग जहां भी घर बनाते हैं, देर सवेर गौरेया के जोड़े वहां पहुंचकर उस घर के सदस्य बन जाते हैं।
25 से 35 ग्राम वजन वाली मादा गौरेया हल्की भूरे, ग्रे और सफेद रंग में होती है। इसके शरीर पर छोटे-छोटे पंख होते हैं तथा चोंच व पैरों का रंग पीला होता है। 14 से 16 से.मी. लंबी नर गौरेया के गले के पास काले धब्बे से होते हैं। ज़्यादातर यह चिड़िया पहाड़ी इलाकों में कम तथा शहरी, कस्बों, गांवों और खेतों के आसपास बहुतायत में पाई जाती है। इसके सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों का रंग भूरा रहता है। गला, चोंच और आंखों का रंग काला और पैर भूरे रंग के होते हैं।
मादा के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होता है। नर गौरेया को चिड़ा और मादा को चिड़ी या चिड़िया भी कहते हैं। गौरेया की 26 प्रजातियों में से हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो, और ट्री स्पैरो कुल छह तरह की प्रजातियां भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाती हैं। इंसानों की अनदेखी और संवेदनहीनता और तेजी से हो रहे आधुनिकीकरण के चलते गोरैया का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है।
यूरोप, इटली, फ्रांस जर्मनी, ब्रिटेन, भारत व अन्य कई देशों में भी इनकी संख्या तेजी से घटी है। विश्व में इनकी कुल आबादी का 90% से ज्यादा हिस्सा समाप्त हो चुका है। गौरैया की तेजी से घटती हुई संख्या को देखते हुए शहरी वातावरण में रहने वाले गोरैया व अन्य पक्षियों के संरक्षण हेतु जागरुकता लाने के उद्देश्य से वर्ष 2010 से प्रतिवर्ष 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया जाता है।
बिहार का यह राजकीय पक्षी है और दिल्ली सरकार ने भी इसे वर्ष 2012 में राज्य-पक्षी घोषित किया है।
गौरेया का पसंदीदा आहार
घर आंगन या खिड़की दरवाजे पर फुदकने वाली, गोरैया पूर्णतः इंसानों पर आश्रित है और लोगों के साथ उनके परिवार के सदस्य की तरह रहना और उबला चावल, खील, काकुन, लईया, बाजरा, धान, रोटी – परांठा व पूड़ी के टुकड़े इत्यादि खाना बेहद पसंद करती है। इसके साथ ही पार्क या ग्रामीण क्षेत्रों व अन्य स्थानों पर उगने वाली हरी घास के बीज गोरैया को बहुत पसंद हैं और हमारे इर्द गिर्द घूमने वाले कीट पतंगे इनका रुचिकर भोजन है।
फरवरी से जून के मध्य में गौरेया के बच्चों का जन्म होता है और उस समय पैदा होने वाले गौरेया के नन्हे-मुन्ने बच्चे भारी दाना पचाने में सक्षम नहीं होते हैं, इसलिए इनके संरक्षण के लिए जरूरी है कि बच्चों के बेहतर पोषण के लिये हम सभी नियमित तौर से थोड़ा सा उबला चावल, दाना और मिट्टी के बर्तन में स्वच्छ पानी भरकर अपने घर की मुंडेर के ऊपर या छत के सुरक्षित स्थान पर रख दें। जिससे बंदर या बिल्लियां घात लगाकर नन्हीं चिड़िया पर हमला ना कर सकें।
कृत्रिम घोसलों का महत्व
हिंसक जानवरों से नन्हीं गोरैया को सुरक्षित रखने एवं उनके संरक्षण के लिए कृत्रिम बनाए गए घोंसलों को हम अपने घर की बाहरी दीवारों पर या छज्जे के नीचे टांग सकते हैं, जिसमें, गोरैया तिनका-तिनका जोड़कर अपना घर सजा सके और उसके नजदीक ही नियमित भोजन, दाना-पानी की भी पर्याप्त व्यवस्था किया जाना भी सम्भव हो। गोरैया के कृत्रिम घोंसले को जमीन से लगभग नौ से 10 फीट की ऊंचाई पर सावधानी पूर्वक लगाना चाहिए और दो घोसलों के मध्य कम से कम 8 फीट की दूरी हो तो बेहतर रहेगा।
गोरैया के एक बार में दो से तीन अंडे होते हैं, जो आमतौर पर असुरक्षित स्थान पर घोंसला बनाने की वजह से गिरकर खत्म हो जाते हैं। गोरैया की संख्या में कमी आने का एक बहुत बड़ा कारण उसको सुरक्षित स्थानों का ना मिल पाना भी है। यदि हम गोरैया को यह कृत्रिम घोंसले उपलब्ध कराते हैं तो गोरैया के सभी अंडे और बच्चे सदैव के लिए सुरक्षित हो जाएंगे जिससे उनकी आबादी भी बढ़ने लगेगी।
यदि प्रत्येक व्यक्ति इन बेजुबान अजनबी मित्रों के लिए अपने घरों में छत या छज्जों पर कृत्रिम घोंसले लगाता है तो गोरैया के अलावा रोबिन, पाई, ब्राहमणी मैना, तोते, गिलहरियां भी इसमें अपने परिवार के साथ रहते हुए आपके लिए दुआएं कर सकते हैं।
गोरैया और अन्य बेजुबान पक्षियों का दर्द
वक्त के साथ सब कुछ बदलता जा रहा है, अगर नहीं बदला है तो वह है बेजुबानों का दर्द जो आधुनिक युग में पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गया है। विगत 40 वर्षों में अब तक कई पशु-पक्षियों की बेशकीमती प्रजातियां डायनोसोर की तरह विलुप्त हो चुकी हैं और जो बची भी हैं। वह संरक्षण एवं परवरिश के अभाव में विलुप्त होने की कगार पर हैं।
मनुष्यों की बढ़ती हुई जरूरतों, सौंदर्यीकरण और आधुनिकीकरण ने पशु-पक्षियों से उनका घर-परिवार, सुख-चैन सब कुछ छीनकर उन्हें बेसहारा छोड़ दिया है। सौंदर्यीकरण के लिए घर आंगन में लगाए जाने वाले ज़्यादातर पेड़- पौधे विदेशी होते हैं, जिन पर गोरैया अपना घोंसला नहीं बना पाती है। जो देशी पेड़ पौधे होते हैं, उनकी समय-समय पर होने वाली छटाई की वजह से पेड़ के ऊपर होने वाला हरा घेरा जिसे कैनोपी कहते हैं, वह बहुत छोटी हो जाती है। जिसके कारण गोरैया, चिड़िया, मैना, गिलहरियां व अन्य जीव-जंतुओं को छिपने का स्थान नहीं मिलता और हर समय उनकी सुरक्षा पर खतरा मंडराता रहता है।
क्योंकि, कैनोपी उन्हें हिंसक पश -पक्षियों से बचाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। कहना गलत ना होगा कि घनी हरियाली ही उनकी सबसे बड़ी सुरक्षा होती है। यदि हम बात करें सिर्फ गोरैया की तो, छतों, रोशनदानों, आंगन, खेत-खलिहानों के खत्म होने, प्राचीन पद्धति के मोटे व कच्चे आसारों में मुकवों या छेदों के स्थान पर पाश्चात्य शैली में बनाये जा रहे 4 इंच की दीवालों वाले आधुनिक मकानों, घरों में तेज गति से चलने वाले पंखों इत्यादि की वजह से गोरैया की लगभग आधी से अधिक आबादी को ही खत्म कर डाला।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
पर्यावरण विद प्रभात मिश्र बताते हैं कि वर्तमान समय में इंसान बढ़ती हुई महंगाई और व्यस्तता के कारण बेजुबान पशु-पक्षियों के संरक्षण व परवरिश की तरफ से पूरी तरह लापरवाह हो चुका है। जब से पर्यावरण विशेषज्ञों ने गोरैया की तरफ ध्यान देना शुरू किया है, तब से इनकी संख्या में लगातार गिरावट दर्ज होना शुरू हो गई और साथ ही इन्हें बचाने के प्रयास भी तेज हो गए।
गोरैया के तेजी से विलुप्त होने के कई कारणों में आधुनिकीकरण व इंसानी गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषण और बढ़ते तापमान के साथ-साथ साइलेंट किलर कहे जाने वाले मोबाइल टावरों एवं 25 हजार, 11 हजार और 440 वोल्टेज वाली विद्युत लाइनों से निकलने वाली मैग्नेटिक तरंगों की अहम भूमिका है, जिन्हें हम रेडिएशन कहते हैं।
रेडिएशन सिर्फ इंसानों के लिए खतरनाक नहीं है, वरन पक्षियों के लिए भी बहुत खतरनाक है
रेडिएशन से सिर्फ इंसानों के स्वास्थ्य को ही नहीं, बल्कि पक्षियों की प्रजनन क्षमता को भी प्रभावित करता है जिसके परिणाम स्वरूप गोरैया तेजी से विलुप्त होती जा रही है, जो चिंता का विषय है। उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत करते हुए बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व संयुक्त विकास आयुक्त नरेंद्र सिंह यादव अपनी पत्नी और 2 बेटियों के साथ विगत 13 वर्षों से गोरैया संरक्षण के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं।
कानपुर के इंदिरा नगर स्थित एसबीआई पार्क के निकट रहने वाले नरेन्द्र सिंह यादव ने बेजुबान पशु पक्षियों के संरक्षण के लिए बोन मैरो कैंसर की बीमारी से जूझने के बावजूद गोरैया के घोंसले का निःशुल्क वितरण एवं प्रतिवर्ष अपनी आय का 10 प्रतिशत हिस्सा मय ब्याज के गोरैया संरक्षण के लिए खर्च करते हैं।
उत्तर भारत स्थित जनपद उन्नाव के अपने पैतृक गांव बांगरमऊ में 30 एकड़ भूमि पर तीन बगीचे बनाए जो कि आज फल-फूलों से भरपूर हैं। यदि समय रहते हुए इंसान गोरैया के संरक्षण व उसकी आवश्यकताओं और सुरक्षा का ध्यान रखने लगेगा तो वह दिन दूर नहीं है, जब फिर से एक बार हमारी छतों, मुंडेर व घरों में गोरैया की कर्णप्रिय आवाज़ हमारे सरदर्द ओर तनाव को दूर कर सुखद वातावरण बनाने में सहायक सिद्ध होगी।
जन आधार कल्याण समिति के सचिव प्रवीन कुमार शर्मा के अनुसार
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयासरत सामाजिक संस्था जन आधार कल्याण समिति के सचिव प्रवीन कुमार शर्मा ने बताया कि “स्वयं को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली घर-आंगन, खिड़की-दरवाजे पर बेधड़क फुदकने और चहकने वाली नन्हीं प्यारी सी गौरैया आजकल हमें अपने आसपास नजर नहीं आती। कभी इस खूबसूरत से पक्षी का बसेरा हमारे घरों के आसपास ही पेड़-पौधों पर हुआ करता था, लेकिन अब यह पक्षी विलुप्ति के कगार पर है।
दो दशक पूर्व तक हमने भी इन्हें नीले गगन में उड़ते हुए और अपने घर के आंगन व छत पर अठखेलियां करते हुए देखा है, लेकिन वर्तमान में गोरैया संकटग्रस्त और दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में पहुंच चुकी है, जो कभी हमारे घरों में सदस्य की तरह रहती थी। जन्म के बाद शुरूआती कुछ दिनों में गोरैया के बच्चों का भोजन सिर्फ कीड़े-मकोड़े ही होते हैं। खेतों में कीटनाशकों व खतरनाक केमिकलों के बढ़ते प्रयोग से खेतों में कीड़े-मकौड़े नष्ट हो जाते हैं।
ऐसे में गौरैया सहित अनेक पक्षियों को भी उनका यह आहार नहीं मिल पाता है। पर्याप्त भोजन के अभाव में भी दुनिया भर में पक्षियों की अनेक प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।
बहरहाल, प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में हमारी सहभागी रही गौरेया के संरक्षण के लिए विशेष योजनाओं एवं बड़े स्तर पर लोगों में जागरुकता पैदा किए जाने की सख्त ज़रूरत है।