एक सिलसिला था
जिस की चंद मिनटों की कहानी है
शायद अब नहीं रहा
रोज़ रात गहरी हो कर रह जाती थी।
दिल अपना सुकून तोड़ चुका था
वहां हर तरफ मोहब्बत की बात होती थी
रात के सन्नाटे में ये आवाज़ बड़ी
मुश्किल से सुनाई देती थी।
दिल को सुकून देने की एक कोशिश थी
पर उस से ज़्यादा कलेजा निकालने की
मुस्कुराना वहां किसी किराये के
मकान में रहने जैसा था और हंसने
की तो पूछिये ही मत जब हंसने की
सोचते थे तब ऐसा लगता था कि
जैसे किसी बैंक से कर्ज लिया हो
जिस को ब्याज समेट लौटना भी है।
सफर अभी खत्म नहीं हुआ था
मंजिल करीब आने लगी थी
मुझे डर लगने लगा कि मैं
कुछ ऐसा तो नही कर रहा हूं
जिस को लोग प्यार कहते हैं।