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“पितृसत्तात्मक समाज से लड़ना, हम लड़कियों की ज़ुर्रत नहीं ज़रूरत है”

un women rally on gender equality

मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। महिलाओं की तस्वीर जस की तस भले ही हो लेकिन महिला दिवस की तस्वीरें आपको हर तरफ दिखाई पड़ जाएगी। अब इसे जागरूकता मानी जाए या डिजिटल युग और हैशटैग की धूम पता नहीं। मगर महिला दिवस से पहले महिलाओं पर किए गए एक सर्वे के आंकड़े सामने आए हैं, जिसे लिंक्डइन के द्वारा करवाया गया था।

सर्वे के नतीजे काफी निराशाजनक

इस सर्वे अनुसार 85 प्रतिशत महिलाओं को लिंग भेद की वजह से वेतन वृद्धि, पदोन्नति सहित अन्य लाभ के मौके गंवाना पड़े। भारत की 89 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं यानि 10 में 9 महिलाओं को यह मौका गंवाना पड़ता है। बाजार अनुसंधान फर्म GKF ने लिंक्डइन ऑपर्चुनिटी इंडेक्स रिसर्च किया जिसमें 18 से 65 साल के महिला और पुरुषों को शामिल किया गया था।

ऑनलाइन आधार पर किए गए सर्वे में ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, मलेशिया, फिलीपींस और सिंगापुर से एशिया प्रशांत क्षेत्र में 10,000 से अधिक महिला-पुरुषों ने हिस्सा लिया था। सर्वे के अनुसार दो में से एक यानि 50 प्रतिशत भारतीय महिलाओं का मानना है कि लिंग भेद की वजह से उन्हें वो अवसर नहीं मिल पाते जिसकी वो हकदार होती हैं।

71 प्रतिशत ने पारिवारिक ज़िम्मेदारी को करियर में बाधा माना। वहीं 37 प्रतिशत ने माना कि उन्हें पुरुषों की अपेक्षा कम वेतन और अवसर दिए जाते हैं।

हमारी जड़ों में यह सींच दिया जाता है कि लड़कियां, लड़कों से कमतर होती हैं

यह तो हुई सर्वे की बात जो और भी बहुत कुछ कहता है लेकिन यदि आप खुद से प्रश्न करें, कि क्या आपने कभी अपने आसपास मतलब अपने कार्यस्थल (work place) पर यह भेदभाव होते देखा, सुना या अनुभव किया है? तब खुद-ब-खुद आपको कोई तस्वीर याद आ जाएगी। हम एक ऐसे पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं, जहां हमारी जड़ों में ही यह सोच सींच दी जाती है कि लड़कियां, लड़कों से कमतर होती हैं।

या हम कहें एक लड़के या लड़की के तौर पर हमने शुरुआत से इस सोच को घरों में पनपते देखा कि कौन सा काम किसके ज़िम्मे है? जिसमें एक सबसे साफ तस्वीर जो हर किसी के ज़हन में उभरती है, वो है एक लड़की ही चूल्हा-चौका यानि घर के काम करती है और लड़का बाहरी।जिसका नतीजा यह है कि लड़का-लड़की रोज़गार के चलते घर से तो निकल जाते हैं लेकिन इस सोच से बाहर नहीं निकल पाते।

इंटरव्यू में मुझसे पूछा गया, “तुम एक लड़की होकर यह सब कैसे कर पाओगी”?

यह मेरा अपना अनुभव भी रहा है कि एक लड़की ने घर में लिंग भेद ना भी झेला हो लेकिन घर के बाहर उस लड़की को यह सब कहीं ज़्यादा झेलना पड़ता है। मैं अपने अनुभव से बात करूं तो मुझे याद आता है कि लगभग 1 वर्ष पहले एक इंटरव्यू के सिलसिले में मैं NCRT सम्बद्ध एक शैक्षिक संस्थान पहुंची और जॉब फील्ड वर्क से जुड़ा था।

मुझे अब भी याद है, मैं पैनल के सामने जाकर बैठी जिसमें तीन मेल और दो फीमेल मेम्बर शामिल थीं। उनमें से एक ने भी मेरी फाइल को उलट कर नहीं देखा बल्कि सभी बारी-बारी से मुझसे एक ही सवाल कर रहे थे।

“तुम एक लड़की हो ये सब कैसे कर पाओगी? क्या तुम्हारी फैमली तुम्हें बाहर जाने देगी? हमें कोई     ऐसा चाहिए जो इस काम को बेहतर संभाल पाए?”

ये वो सवाल थे, जो घूम-फिरकर मुझसे किए जा रहे थे। वहां यह देखने की कोशिश किसी की नहीं थी कि मैं पैनल तक किस आधार पर पहुंची हूं? अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कितने पूर्वाग्रह से ग्रसित होंगे वहां बैठे लोग!

प्रतिभावान लड़कियां भी समाज के खांचों में फिट होने के फेर में चटक जाती हैं

यूं भी तुम लड़की हो। तुम कैसे? ये वो सवाल है जिससे लड़कियों को हर कदम पर जूझना पड़ता है फिर चाहे चुनाव कपड़ों का ही क्यों ना हो?जब एक समाज ऐसी सोच लेकर ही बैठा हो कि एक लड़की यह सब कैसे कर पाएगी, तब यकीन मानिए कितनी ही प्रतिभाएं (लड़कियां) समाज के खांचों में फिट होने के फेर में टूट जाती हैं, चटक जाती हैं।

इस ‘कैसे’ से लड़ पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता है और यही हाल घर से लेकर दफ्तर तक हर जगह है। यह बात महज़ आम लड़कियों तक सीमित नहीं है। बड़ी-बड़ी प्रतिभाशाली स्पोर्ट्स वीमेन और फिल्म स्टार्स इस बात को खुद स्वीकार चुकी हैं कि एक ही फील्ड में होने के बावजूद भी उन्हें पैसों से लेकर अन्य सुविधाओं तक कितना भेदभाव झेलना पड़ता है।

हालांकि, अब तस्वीर बदलने लगी है लेकिन राह इतनी आसान भी नहीं। सोचिए जहां जेंडर बेस्ड डिस्क्रिमिनेशन इतना पसरा हो, वहां आप कैसे सोच सकते हैं कि आपका वेतन, आपकी पदोन्नति का ग्राफ बराबर होगा? ये पितृसत्तात्मक समाज की वो सत्ता है जहां हर कदम खुद के लिए लड़ना महज़ ज़ुर्रत नहीं ज़रूरत है।

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