सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से 12वीं तक बच्चा जो कुछ भी पढ़ता है, वह आगे सेंट्रल यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ सकता क्योंकि सरकार भाषा का अवरोध पैदा कर देती है। आप देखेंगे की बड़ी-बड़ी सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ जिनकी प्रवेश परीक्षाएं इंग्लिश में ही होती हैं। ऐसे में वह विद्यार्थी जो ग्रामीण परिवेश से आते हैं, वे बहुत कम संख्या में इन बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में पहुंच पाते हैं।
इसके दो कारण हैं,
- पहला यह कि भारत में वर्ल्ड लेवल यूनिवर्सिटी नहीं है।
- दूसरा, जैसी भी है उनमें भी ग्रामीण परिवेश का बच्चा नहीं पहुंचने दिया जाता
इस दूसरे कारण के पीछे एक अहम तर्क है। दरअसल, सरकार को पता है यदि ग्रामीण परिवेश के बच्चे अच्छी-अच्छी यूनिवर्सिटी में पढ़गे तो, वे अंध भक्त नहीं बनेंगे और किसी पार्टी के नारे नहीं लगाएंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनकी राजनीतिक रोटियां सिकना बंद हो जाएगी।
कब तक चलेंगे अंग्रेज़ों की बनाई पद्धति पर
आप एक बात पर गौर करें कि जो ऊंचे दर्जे़ के राजनेता हैं, उनके बेटा या बेटी क्या भारत में पढ़ रहे हैं? इसका जवाब है नहीं क्योंकि उन्हें खुद विश्वास है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था उनके बच्चों को सिर्फ डिग्री हासिल करवा सकती है, काबिल नहीं बना सकती। हम लोगों ने उन्हीं लोगों को सत्ता में लाकर बिठाया है और यह कहा है कि आप हमारे लिए कुछ करिए जो सिर्फ हमारा भ्रम है।
यदि एक अच्छा शिक्षक शिक्षा मंत्री हो तो वाकई स्कूलों की हालत बदली जा सकती है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के स्कूलों की हालत पिछले कुछ सालों से बहुत बेहतर है।
आप यह तय कीजिए कि हमें क्या सिखाया जा रहा है? क्या वाकई हमें यह सिखाया जा रहा है कि काबिल बनें या सिर्फ डिग्री धारी? दूसरा पहलू इसमें यह भी है कि जितनी दोषी सरकार है,उतना ही दोषी हमारा समाज है क्योंकि हमारे समाज में सिर्फ उन्हीं लोगों को तवज्जो दी जाती है जो सरकारी नौकरी करते हैं। इसका भी सीधा तर्क यह है कि उन्हें काबिलियत पर नहीं सरकारी नौकरी पर ज़्यादा भरोसा है।
आज भी भारत में काफी हद तक अंग्रेज़ों द्वारा लाई गई शिक्षा पद्धति अपनाई जाती है और अंग्रेज़ सिर्फ क्लर्क बनाने के लिए यह पद्धति लाए थे।