इंसान जब प्रसिद्धि की बुलंदियों पर पहुंच जाता है तो उसके प्रशंसकों की संख्या भी बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में इंसान इतना व्यस्त हो जाता है कि उसके पास अपनों से भी मिलने का वक्त नहीं होता। मगर नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित जाने-माने बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी जी इसके अपवाद हैं।
इसका साक्षात्कार तब हुआ जब मैंने देखा कि प्रशंसकों की भारी भीड़ से निकलकर वे एक ऐसे बूढ़े और दुबले-पतले व्यक्ति से मिल रहे हैं जो स्कूली दिनों में उनके गणित के शिक्षक हुआ करते थे।
नोबेल पुरस्कार जीतने के बाद जब पहली बार विदिशा आए
दुनियाभर में बच्चों के हक के लिए लड़ाई लड़ने वाले श्री सत्यार्थी का संगठन तकरीबन 150 देशों में काम करता है।
श्री सत्यार्थी को 2014 में जब नोबेल शांति पुरस्कार मिला तो उन्होंने सबसे पहले इस मेडल को अपनी जन्मभूमि विदिशा की पावन धरती पर रखा। बाद में उन्होंने मेडल को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के माध्यम से राष्ट्र को समर्पित कर दिया। आज यह मेडल आम लोगों के दर्शन के लिए राष्ट्रपति भवन के म्यूज़ियम में सुरक्षित रखा है।
श्री सत्यार्थी नार्वे की राजधानी ओस्लो से नोबेल पुरस्कार लेकर सीधे दिल्ली स्थित महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पहुंचे। जहां उन्होंने नोबेल मेडल को गांधी जी की समाधि पर रखकर प्रार्थना की। दिल्ली से नोबल पुरस्कार लेकर वे ट्रेन से विदिशा पहुंचे। दिल्ली से विदिशा तक श्री सत्यार्थी का रेलवे स्टेशनों पर भव्य स्वागत होता रहा। श्री सत्यार्थी जिस ट्रेन में यात्रा कर रहे थे, वह तकरीबन सुबह 10 बजे विदिशा रेलवे स्टेशन पहुंची।
स्टेशन पर मैंने देखा कि चारों प्लेटफॉर्म भीड़ से खचाखच भरे पड़े हैं। वहां तिल रखने की भी जगह नहीं है। जैसे ही श्री सत्यार्थी प्लेटफॉर्म पर उतरे, तुरंत ही उनको मध्य प्रदेश पुलिस ने अपने सुरक्षा घेरे में ले लिया। श्री सत्यार्थी का स्वागत करने को मध्य प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री, ज़िला कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक समेत जिले के सभी आला अधिकारी मौजूद थे।
सत्यार्थी जब नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने के उपरांत पहली बार विदिशा पहुंचे
श्री सत्यार्थी और उनकी पत्नी सुमेधा कैलाश जी ने पहले नोबेल मेडल विदिशा की धरती पर रखकर साष्टांग अभिवादन किया। उस समय तक भीड़ बेकाबू होने लगी थी। हर कोई सत्यार्थी जी के करीब आकर उनका अभिवादन करना चाहता था। भीड़ की धक्का-मुक्की में पुलिस का सुरक्षा घेरा भी टूट गया।
सत्यार्थी जी के स्वागत के लिए आए मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री भीड़ के धक्के से छिटककर दूर जा पड़े। आलम यह था कि उस समय ना तो कलेक्टर साहब का पता था और ना ही एसपी साहब का। लोगों के हुज़ूम ने अधिकारियों को तितर-बितर कर दिया था। भीड़ के सामने सभी वरिष्ठ अधिकारी असहाय नज़र आ रहे थे।
सत्यार्थी जी को बधाई देने के लिए लोगों का हुज़ूम उमड़ पड़ा
अब सत्यार्थी जी को प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों से चढ़ाकर फुटओवर ब्रिज के माध्यम से स्टेशन के बाहर लाना जिला प्रशासन के लिए एक चुनौती बन गई थी। खैर जैसे-तैसे सत्यार्थी जी के ऑफिस के लोगों ने और पुलिस ने प्रयास करके उनके आसपास पुनः सुरक्षा घेरा बना लिया और उन्हें स्टेशन से बाहर ले आए। स्टेशन के बाहर सत्यार्थी जी के लिए एक खुली जीप खड़ी थी।
इस जीप पर सवार होकर सत्यार्थी जी को पूरे शहर में जाना था। विदिशा की महिलाएं, बच्चे और बूढ़े अपनी छतों, दरवाज़ों और सड़क पर उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। सत्यार्थी जी का जुलूस स्टेशन से आरंभ होकर शहर के व्यस्त मार्गों से होकर चला जा रहा था। इस जुलूस में लगभग 14-15 हज़ार लोग शामिल थे। ज़्यादातर लोग उनकी जीप के पीछे-पीछे पैदल चल रहे थे। लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा था।
जुलूस की चाल बहुत धीमी थी क्योंकि हर कोई श्री सत्यार्थी को रोककर माला, श्रीफल और अंगवस्त्र देकर स्वागत कर रहा था। जुलूस जैसे ही विदिशा शहर के झूलन पीर नामक स्थान पर पहुंचा, तो सत्यार्थी जी ने अचानक जीप रुकवा दी। वे जीप से नीचे उतरने लगे। भारी भीड़ को देखते हुए सुरक्षा के लिहाज से सुरक्षाकर्मी रोकने लगे। मगर सत्यार्थी जी नहीं माने और भीड़ में कूद गए।
इनके नीचे उतरते ही जुलूस रुक गया। हर कोई ये जानने को उत्सुक था कि आखिरकार जुलूस ठहर क्यों गया? सत्यार्थी भीड़ में एक कमजोर से दिखने वाले बुजुर्ग दाढ़ी वाले व्यक्ति की ओर लपके और उसका पैर छूने लगे। लोगों के लिए भी यह नजारा अप्रत्याशित था। लोग कुछ समझ पाते इससे पहले दाढ़ी वाले बुजुर्ग सत्यार्थी जी को आशीर्वाद देने लगे।
कौन थे दाढ़ी वाले बुजुर्ग?
लोगों की उत्सुकता दाढ़ी वाले शख्स में बढ़ गई। बाद में पता चला कि दाढ़ी वाले बुजुर्ग स्कूली दिनों में सत्यार्थी जी के शिक्षक थे। जिनका नाम मोहम्मद गोरी था। गोरी जी इन्हें छ्ठी-सातवीं में गणित पढ़ाया करते थे। इसके साथ ही वे पीटी व स्काउट के भी शिक्षक थे। पीटी व स्काउट कराते समय वे बहुत सख्त होते थे। वे चाहते थे कि उनके छात्र मेधावी और होशियार बनें।
सत्यार्थी जी अपने एक अन्य अध्यापक श्री शहाबुद्दीन जिलानी जी से उनकी कुशलक्षेम पूछते हुए
सत्यार्थी जी जब मोहम्मद गोरी के पैर छू रहे थे, तो वे भावुक हो गए और पुरानी स्मृतियों में खो गए। अपने गुरु के प्रति इस तरह का आदर-भाव देखकर वहां उपस्थित लोग भाव-विभोर हो गए। यह एक अदभुत दृश्य था। सत्यार्थी जी की आंखों में गुरु के प्रति इस तरह का सम्मान और समर्पण देखकर लोगों के मन में उनके लिए और सम्मान बढ़ गया।
ऐसा ही एक और प्रसंग मुझे याद आ रहा है। सत्यार्थी जी के एक बचपन के दोस्त थे मजिद जीलानी उर्फ नन्हें। इनके पिता बचपन में ही गुजर गए थे। नन्हें मियां फोटोग्राफी का व्यवसाय करते थे तथा विद्यार्थियों को शॉर्ट-हैंड और टाइपिंग भी सिखाते थे। नन्हें मियां की माँ उर्दू भाषा की ज्ञाता थीं। मोहल्ले के बच्चे उनको अम्मी कहकर बुलाते थे।
जब सत्यार्थी जी के बाल मन में उर्दू सीखने की लालसा पैदा हुई तो उन्होंने पास में रहने वाले एक मौलवी साहब से उर्दू का थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त किया। लेकिन बाद में अम्मी से ही वे उर्दू सीखने लगे और एक तरह से वे सत्यार्थी जी की गुरु माता थीं। जीलानी परिवार के साथ सत्यार्थी जी के बहुत ही मधुर संबंध थे।