अक्सर मशहूर शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखित देशभक्ति पूर्ण गज़ल ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है व बाद में रामप्रसाद बिस्मिल एवं भगत सिंह, जो एक भारतीय महान क्रान्तिकारी नेता थे और यह उन का लोकप्रिय गीत था। बहुत याद आता है।
23 मार्च, 1931 यानी 23 मार्च का दिन जिसको हम सभी भारतीय शहीद दिवस या बलिदान दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन भारत से अंग्रेज़ी हुकूमत की जड़ों को उखाड़ फेंकने में अपनी अहम भूमिका निभाने वाले भारत माता के वीर सपूतों, महान क्रांतिकारियों एवं शहीद-ए-आज़म कहे जाने वाले सरदार भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव सिंह को फांसी की सज़ा दी गई थी।
असल कहानी क्या है?
यह कहानी शुरू होती है, साल 1928 में जब भारत में अंग्रेज़ों की हुकूमत थी। 30 अक्टूबर को साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा और लाला लाजपत राय की अगुवाई में भारतीयों ने उसका विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया, क्रूर सुप्रीटेंडेंट जेम्स ए स्कॉट ने विरोध-प्रदर्शन को बंद कराने के लिए उन पर लाठीचार्ज का आदेश दे दिया।
अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों एवं लोगों पर खूब लाठियां चलाईं, इसके फलस्वरूप लाला लाजपत राय बुरी तरह से घायल हो गए और 18 दिन बाद लाल लाजपत राय ने इस दुनिया में आखिरी सांस ली। उनकी मौत को लेकर क्रांतिकारियों में काफी गुस्सा था।
बदला लेने की रणनीति क्या थी?
फिर तय हुआ कि अब बदला लिया जाएगा,उसकी अगुवाई सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आदि कई क्रांतिकारी कर रहे थे। उन्होंने मिलकर जेम्स ए स्कॉट को मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने की रणनीति बनाई। इस को मूर्त रूप देने के लिए, 17 दिसंबर 1928 का दिन जेम्स ए स्कॉट की हत्या के लिए तय हो गया और लेकिन गलती से स्कॉट के बजाय जूनियर पुलिस जॉन सांडर्स गोली का निशाना बन गया। इसके चलते सांडर्स की हत्या हो गई, जिसके कारण अंग्रेजी़ हुकूमत सांडर्स की हत्या से बौखला गई थी।
भारतीयों के लिए काले बिल
उस समय पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट्स इन दोनों बिलों के लिए कहा जाता था कि ये दो कानून भारतीयों के लिए बेहद खतरनाक थे। सरकार इन दोनों बिलों को पास करने का फैसला ले चुकी थी। इस बिल के आने से क्रांतिकारियों के दमन की तैयारी थी। अप्रैल, 1929 का वक्त था, तय हुआ कि जहां पर यह बिल पास कराया जा रहा है। उस असेंबली में बम फेंका जाएगा। लेकिन, यह भी तय हुआ कि इसके दौरान किसी की जान नहीं लेनी है, बस धमाका करना है। ताकि धमाके की आवाज़ दूर तक पहुंचे और हर कोई उसे सुने तो बटुकेश्वर और भगत सिंह इस काम के लिए चुने गए।
असेंबली में किए गए बम धमाके
जब 8 अप्रैल, 1929 को सेंट्रल असेंबली में एक बिल पर बहस चल रही थी। तभी असेंबली के उस हिस्से में जहां कोई भी बैठा हुआ नहीं था। एक जोरदार बम का धमाका होता है और पूरी असेंबली में धुआं भर जाता है। जब इसके बाद धुआं छटा तो असेंबली में ऊपर दो शख्स नज़र आए, जिनमें से एक सरदार भगत सिंह और दूसरे बटुकेश्वर दत्त थे। उन्होंने वहीं असेंबली में खड़े होकर वंदे मातरम् के नारे लगाए और भगतसिंह द्वारा कुछ पर्चे फेंके गए, जिन पर लिखा था-
‘आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचार को नहीं। बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं और बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊंची आवाज़ जरूरी है।’
बम फेंकने के बाद वे भागे नहीं थे इसके बाद उन्होंने स्वयं गिरफ्तारी देकर अपना संदेश दुनिया के सामने रखा। उनकी गिरफ्तारी के बाद उन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जे.पी.साण्डर्स की हत्या में भी शामिल होने के कारण देशद्रोह और हत्या का मुकदमा चला।
यह मुकदमा भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में ‘लाहौर षड्यंत्र’ के नाम से जाना जाता है। करीब 2 साल जेल प्रवास के दौरान भी भगत सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों से भी जुड़े रहे और नियमित रूप से अपना लेखन व अध्ययन भी जारी रखा। फांसी पर जाने से पहले तक भी वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
भगतसिंह एवं उनके साथियों को फांसी की सज़ा सुनाई गई
7 अक्टूबर, 1930 को फैसला सुनाया गया कि तीनों ( सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव) को फांसी पर लटकाया जाएगा। 24 मार्च, 1931 को उन सब को फांसी की सज़ा तय की गई। उस समय भगत सिंह महज़ 23 साल के थे, लेकिन अंग्रेज़ों द्वारा उन तीनों को एक दिन पहले ही 23 मार्च को फांसी दे दी गई थी। अंग्रेज़ों के मन में एक डर था, जिसके चलते उन्होंने 23 मार्च को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और उनके दोनों साथी सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई।
फांसी पर जाते समय वे तीनों महान क्रांतिकारी एक गीत गा रहे थे, उसके शब्द यह हैं-
‘दिल से निकलेगी ना मरकर भी वतन की उल्फत मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी’
पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। इन शहीदों के बलिदान दिवस को हम 23 मार्च को शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। ऐसे तीनों क्रांतिकारियों व माँ भारती के वीर सपूतों को हाथ जोड़ कर उनके चरणों में नमन है।
भगतसिंह का अपने देश के नाम आखिरी खत
भगत सिंह ने एक दिन पहले यानी 22 मार्च 1931 को देश के नाम एक खत लिखा था-
“साथियों
स्वाभाविक है जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए और मैं इसे छिपाना नहीं चाहता हूं, लेकिन एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूं। मैं कैद होकर या पाबंद होकर ना रहूं, मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांतिकारी का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है, इतना ऊंचा की जीवित रहने की स्थिति में मैं इस से ऊंचा नहीं हो सकता था।
आज मेरी कमजोरियां जनता के सामने नहीं हैं, अगर मैं फांसी से बच गया तो जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिन्ह धीमे पड़ जाएगा या यह संभवत: मिट जाए। लेकिन, दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते फांसी चढ़ने की सूरत में देश की माताएं अपने बच्चों की भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी। इससे देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी की क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, मैं उनका हजारवां भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतंत्र ज़िंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता था। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा। आज कल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है, मेरी कामना है कि यह और नजदीक हो जाए। ”
आपका साथी
भगत सिंह
फांसी के पहले भगत सिंह ने बुलंद आवाज़ में देश के नाम एक और संदेश दिया, उन्होंने इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगाते हुए कहा –
“मैं यह मान कर चल रहा हूं कि आप वास्तव में ऐसा ही चाहते हैं। अब आप सिर्फ अपने बारे में सोचना बंद करें व्यक्तिगत आराम से अपने को छोड़ दें। हमें इंच-इंच आगे बढ़ना होगा, इसके लिए साहस, दृढ़ता और मजबूत संकल्प चाहिए। कोई भी मुश्किल आपको रास्ते से डिगा नहीं पाएगी। किसी विश्वासघात से आपका दिल ना टूटे, प्रेरणा और बलिदान से गुज़र कर आपको विजय प्राप्त होगी, यह व्यक्तिगत जीत क्रांति की बहुमूल्य संपदा बनेगी। “
फांसी दिए जाने से पहले उनसे जब उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो तीनों ने एक स्वर में कहा कि हम आपस में एक बार गले में मिलना चाहते हैं, मिलते ही तीनों ऐसे लिपट गए जैसे कल उन्हें एक सवेरे का इंतजार है। बताया जाता है उस दिन लाहौर जेल में बंद सभी कैदियों की आंख़े नम हो गईं थीं। यहां तक की फांसी के बाद जेल वार्डन चरत सिंह, जो भगत सिंह के खैरख्वाह थे। वो अपनी बैरक की तरफ भागकर फूट-फूट कर रोने लगा। वो ही उनके लिए जेल में किताबों का बंदोबस्त किया करता था।
वह कह रहा था 30 वर्ष के सफर में उसने कई फांसिया देखीं, लेकिन फांसी के फंदे को इतनी बहादुरी और ऐसी मुस्कुराहट के साथ कुबूल करते हुए किसी को पहली बार देखा था।