ऐतिहासिक तथ्यों का सुविधानुसार उपयोग इस लड़ाई को और भी हवा देता है। ऐसे में सावरकर और भगत सिंह की तुलना करने से भी लोग बाज़ नहीं आते। इस क्रम में सावरकर द्वारा उनके माफीनामे को घिनौना माना जाता है। एक आम नागरिक के रूप में राष्ट्रीय महापुरुषों के ऊपर ऐसी टिप्पणी कभी-कभी असहनीय हो जाती है।
लंदन से की क्रांति की शुरुआत
सावरकर से जुड़ी घटनाओं पर नज़र डालें तो सर्वप्रथम जो पांच वर्ष उन्होंने कानून के छात्र के रूप में लंदन में बिताए उसी बीच उन्होंने क्रांतिकारी आन्दोलन कर ब्रिटिश सरकार से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की। उन्होंने भारत से यूरोप, यहां तक कि अमेरिका में भी समान सोच के लोगों का एक नेटवर्क तैयार किया। इसके साथ ही उन्होंने आयरलैंड, फ्रांस, इटली, रूस और अमेरिकन नेताओं, क्रांतिकारियों और पत्रकारों के साथ वैचारिक संबंध कायम किए।
इसमें कोई शक नहीं है कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सबसे खतरनाक राजद्रोही के रूप में दर्शाया। सावरकर लंदन में पढ़ रहे थे इसलिए 1881 का भगोड़ा अपराधी अधिनियम उन पर लागू नहीं होता था जिसके कारण उन्हें भारत भेजते हुए यह भी सुनिश्चित किया गया कि सावरकर को अपना बचाव या अपील करने का मौका ना मिले। यहां पर उन्हें कुल 50 साल की सज़ा दी गई। उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर के साथ उन्हें अंडमान के सेल्यूलर जेल में सड़ने के लिए छोड़ दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने दी दो जन्मों की सज़ा
उन्हें दो जन्मों की कैद दी गई, वो भी तब जब ब्रिटिश इसाई धर्म में मानते थे और दूसरे जन्म में उनका विश्वास नहीं था। ब्रिटिश दस्तावेज़ बताते हैं कि वे सावरकर की उपस्थिति से इतने डरे हुए थे कि उन्हें जल्द से जल्द भारत की मुख्य भूमि से दूर रखने का प्रयास किया गया।
सेल्यूलर जेल में उन्हें हर संभव यातना से गुजरना पड़ा। ज़ंजीरों से बांध कर उल्टा लटकाना, मील में बैलों की तरह बांध कर कोल्हू खिंचवाना, इसके बाद हर ज़रुरी सुविधा जैसे कि टॉयलेट और पानी से दूर रखना, सड़ा हुआ खाना देना, बल्कि खाने में मक्खी और जोंक के टुकड़े देना ये सब उनको दी जाने वाली यातनाओं का हिस्सा था।
1913 में सावरकर ने दूसरे कैदियों के साथ मिल कर अमानवीय व्यवहार के खिलाफ जेल में भूख हड़ताल और असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। इसी बीच इंडियन एक्सप्रेस में एक रिपोर्ट लीक हुई कि सावरकर अपने साथियों के साथ मिल कर जेल में ही बम बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। बात ऊपर तक गई तो अक्टूबर 1913 में भारत सरकार के गृह सदस्य ‘सर रेगीनाल्ड एच. क्रेद्दोक’ ने सेल्यूलर जेल जाने का फैसला किया और कुछ राजनीतिक कैदियों से बातचीत कर उनकी समस्याएं सुनी।
सावरकर और दूसरे राजनीतिक कैदी जैसे बारिन घोष, नन्द गोपाल, हृषिकेश कांजीलाल और सुधीर कुमार से बातचीत की गई और फिर उन सभी ने याचिकाएं भी जमा की। यह प्रक्रिया ब्रिटिश भारत में सभी राजनीतिक कैदियों के लिए वैध थी। ठीक वैसे ही जैसे उन्हें कोर्ट में अपने वकील के माध्यम से अपने बचाव का मौका मिलता था। कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के कारण सावरकर को इसकी अच्छी जानकारी थी और इसलिए उन्होंने अपने आप को स्वतंत्र कराने या जेल में अपनी स्थिति बेहतर करवाने के लिए हर प्रावधानों का उपयोग करना चाहा।
सावरकर दूसरे कैदियों को भी अक्सर समझाया करते थे कि क्रांतिकारियों का प्राथमिक कर्तव्य खुद को अंग्रेज़ों के चंगुल से छुड़ाना था, जिससे कि वे मातृभूमि की सेवा करने में फिर से जुट सकें।
1913 में सावरकर ने ब्रिटिश सरकार को सौंपी याचिका
14 नवंबर 1913 को क्रेद्दोक को सौंपी अपनी याचिका में सावरकर ने तर्क दिया कि बलात्कार, मर्डर, चोरी और दूसरे अपराधों में सज़ा पाए आम अभियुक्तों को तो उनके अच्छे व्यवहार के आधार पर सहूलियतें दी जाती थी या 6 – 18 महीने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता था, लेकिन ‘विशेष श्रेणी का कैदी‘ होने के बावजूद उनके लिए ये प्रावधान उपलब्ध नहीं थे।
यहां तक कि अच्छे भोजन और बर्ताव की मांग पर उन्हें यह कहते हुए इंकार कर दिया गया कि वो एक ‘सामान्य दोषी’ हैं। वह यदि किसी अन्य भारतीय जेल में होते तो यह सब आसानी से हासिल किया जा सकता था पर सेल्यूलर जेल में वह साल में एक से अधिक चिठ्ठी भी नहीं भेज सकते थे और ना ही अपने परिवार वालों से मिल सकते थे।
1909 के मार्ले-मिन्टो सुधार के तहत भारतीयों को सरकार और शिक्षा में भाग लेने के बेहतर अवसर प्राप्त हुए थे। इसे ध्यान में रखते हुए सावरकर ने अपनी याचिका में यह ज़ोर देकर कहा कि उन्हें अब बंदूक उठाने की ज़रूरत नहीं रह गई थी और मुख्य धारा की राजनीति में जुड़ कर और सरकार के साथ मिल कर काम कर भारतीयों के लिए बेहतर संवैधानिक भागीदारी को पूर्ण करने में ही उनकी खुशी थी।
”मैं किसी प्रकार की विशेष सुविधा नहीं मांग रहा,” उन्होंने कहा, “पर राजनीतिक कैदी होने के नाते मेरा विश्वास है कि विश्व के किसी स्वतंत्र राष्ट्र में सभ्य प्रशासन इतना तो कर ही सकता है। इतना नहीं तो केवल वो रियायत और एहसान जो सबसे कुख्यात और इरादातन अपराधियों को दिया जाता है?” यह पूर्णरूप से अंग्रेज़ों के असभ्य होने का अप्रत्यक्ष मज़ाक उड़ाने जैसा था।
दुर्भाग्य से, सावरकर को उनकी याचिका के लिए दुत्कारने वाले वही मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं जो कसाब, याकूब मेमन, नक्सली और उनके वैचारिक सिरमोरों की पैरवी करते फिरते हैं।
याचिका की अंतिम पंक्ति जो विवाद को निमंत्रण देती है, उसकी भी व्याख्या किसी से छुपी नहीं है ”जो शक्तिशाली होता है वह दयालु होने का जोखिम उठा सकता है और कहां कोई उदार माई का लाल लौट कर आया हो फिर सरकार को माई बाप मानने को रुका है?” यह संदर्भ बाइबल से लिया गया था। यह कहना ठीक ही होगा कि वह जेलर की धार्मिक भावनाओं को भड़का रहे थे। इस याचिका की केवल कुछ पंक्तियों को उनके पूर्ण रूप या संदर्भ के बिना देखना बौद्धिक मूर्खता है।
मज़ेदार बात यह है कि भारत से वापस लौटते हुए क्रेद्दोक ने जहाज़ पर ही लिखे अपने रिपोर्ट में कहा कि सावरकर ने जो भी किया उसके लिए उसे कोई पछतावा व्यक्त करने के लिए नहीं कहा जा सकता। आगे उन्होंने लिखा, “सावरकर काफी महत्वपूर्ण नेता हैं , जिन्हें भगाने के लिए भारतीय अराजक तत्वों का यूरोपीय धरा लंबे समय से प्रयत्न कर रहा है। यदि उसे सेल्यूलर जेल से बाहर कहीं भी कैद किया जाएगा तो वह फरार होने में कामयाब हो जाएगा। उसके दोस्त आराम से किसी भी द्वीप पर स्टीमर से पहुंच कर और थोड़े पैसे बांट कर ऐसा करने में सफल रहेंगे। निस्संदेह सरकार ने याचिका ख़ारिज कर दी और सावरकर के लिए कुछ नहीं बदला।”
प्रथम विश्व युद्ध शुरू होते ही, 1914 में दी दूसरी याचिका
प्रथम विश्व युद्ध शुरू होते ही सावरकर ने अक्टूबर 1914 में दूसरी याचिका दी, जिसमें उन्होंने युद्ध में भारत सरकार की किसी प्रकार से सेवा करने का प्रस्ताव दिया। उसी याचिका में उन्होंने उन सभी कैदियों की सामान्य रिहाई की गुहार लगाई जिन्हें किसी राजनीतिक घटना के कारण सज़ा मिली थी। ऐसा कई ब्रिटिश उपनिवेश में किया जाता रहा था।
मज़ेदार बात यह है कि भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने इस महत्वपूर्ण समय में ब्रिटेन को खुला समर्थन दिया था। जब युद्ध चल रहा था तब महात्मा गाँधी ब्रिटेन में ही थे, जहां उन्होंने एक चिकित्सीय सेना भी बनाई। यह उसी तरह की थी जैसा उन्होंने बोअर युद्ध (दक्षिण अफ़्रीकी युद्ध) के वक्त ब्रिटेन की मदद करने के लिए बनाया था और यहां तक कि इसके लिए उन्होंने गोल्ड मेडल भी जीता।
22 सितम्बर 1914 को जारी एक विज्ञप्ति में गाँधी जी को फिल्ड अम्बुलेंस ट्रेनिंग पुलिस के लिए भी बुलाया गया था। जनवरी 1915 में वह जब भारत वापस आए तो उन्होंने युद्ध में ब्रिटेन को बिना किसी शर्त के समर्थन दिया क्योंकि गाँधी जी को लगता था कि ब्रिटेन अभी मुश्किल परिस्थितियों में है इसलिए ब्रिटेन को शर्मिंदा होने के लिए छोड़ देना या भारत की आज़ादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना ठीक नहीं होगा।
उन्होंने कहा कि इंग्लैंड की ज़रूरत हमारे लिए एक मौका नहीं बनना चाहिए और फिर हमारे द्वारा लंबे समय से की जा रही मांगों को भी युद्ध के अंत में पूरा किया जाएगा। गुजरात के गांव – गांव में घूमते हुए उन्होंने युद्ध में भाग लेने के लिए सैनिकों की नियुक्ति में अंग्रेज़ों की मदद की। उस वक्त दक्षिण भारत के गांवों में सैनिक बनाने के लिए लोगों का अपहरण तक कर लिया जाता था। गाँधी जी या कांग्रेस ने कभी इसका विरोध नहीं किया। ये सब सावरकर के 1914 वाले याचिका से कितना अलग था?
1917 में दी तीसरी याचिका
5 अक्टूबर 1917 को राज्य सचिव ‘एडविन शमूएल मोंटागु’ को दिए याचिका में सावरकर ने मोंटागु – चेल्म्फोर्ड सुधार का हवाला देते हुए ब्रिटेन को सीमित स्वशासन और भारतीयों के लिए दो सदनात्मक विधानसभा बनाने की बात को याद दिलाया। ये मांगें विश्व युद्ध में अंग्रेज़ों के समर्थन के बदले किए गए थे। उन्होंने भारत में होम रुल और भारत को कॉमनवेल्थ का स्वतंत्र साथी बनाने की मज़बूती से वकालत की पर अंग्रेज़ों ने संवैधानिक आंदोलन ना होने का बहाना बनाया।
सावरकर ने कहा कि जब देश में कोई संविधान ही नहीं था तो संवैधानिक आंदोलन कैसे किया जा सकता था? यदि वास्तव में तब कोई संविधान अस्तित्व में लाना हो तो इसके लिए काफी सारा राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक कार्य करने की ज़रूरत थी, लेकिन यह तभी किया जा सकता था जब सभी राजनीतिक कैदियों को संतुष्ट किया जाए कि उन्हें बिना कारण जेल में बंद कर दंड नहीं दिया जाएगा। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का हवाला दिया जैसे कि रूस, फ्रांस, आयरलैंड और ऑस्ट्रिया में कैदियों की सज़ा माफ करना एक आम प्रक्रिया बन गई थी।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस याचिका में उन्होंने विशेष रूप से कहा, “यदि सरकार को लगता है कि इससे सिर्फ मेरे ज़मानत पर ही असर पड़ेगा तो मुझे कैद में ही रखा जाए या यदि मेरा नाम एक बड़ी रुकावट बन रहा है तो मेरा नाम लिस्ट से मिटा दिया जाए और दूसरे सभी कैदियों को छोड़ दिया जाए। इससे मुझे उतनी ही संतुष्टि मिलेगी जितनी कि मेरी रिहाई पर मुझे मिलती।”
युद्ध के बाद सावरकर के अलावा सभी राजनीतिक कैदियों को छोड़ दिया गया
युद्ध की समाप्ति के साथ ही राजा जॉर्ज पंचम के शाही फरमान के कारण पूरे भारत और अंडमान के सारे राजनीतिक कैदियों को इकट्ठे छोड़ा जाने लगा। बारिन घोस, त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती, हेमचन्द्र दास, सचिन्द्र नाथ सान्याल परमानन्द सहित सेल्यूलर जेल के राजनीतिक कैदियों को एक निश्चित समय तक राजनीति में ना आने की प्रतिज्ञा पर छोड़ दिया गया।
इसी तर्ज पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी छोड़ दिया गया, जिन्हें 1919 के असहयोग आंदोलन के वक्त गिरफ्तार किया गया था। जबकि इस तरह का कोई भी फायदा सावरकर और उनके बड़े भाई को नहीं मिला।
सावरकर ने उसी समय फिर से याचिका दायर की,लेकिन अंग्रेज़ों ने उन्हें फिर भी जेल में ही रखा क्योंकि उन्हें डर था कि सावरकर के बाहर आने के बाद ‘अभिनव भारत’ का नेतृत्व उनके हाथ में चला जाएगा जो एक बार फिर से क्रांतिकारी आंदोलन भड़का सकता था। इसलिए 20 मार्च 1920 के दिन सावरकर ने अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ एक बार फिर से याचिका दायर की।
1921 में जब सेल्यूलर जेल बंद होने को आया तो अंग्रेज़ों ने मई 1921 में सावरकर को रत्नागिरी जेल भेजने का फैसला लिया। उस समय तक सावरकर ने पोर्ट ब्लेयर जेल में ही अच्छा खासा सुधार कर लिया था जैसे कि पुस्तकालय की स्थापना, सज़ा पाए लोगों के लिए शिक्षा की व्यवस्था और किसी प्रकार के दवाब के कारण धर्म परिवर्तन की समाप्ति।
आगे समस्या फिर से बढ़ गई क्योंकि रत्नागिरी जेल में इन सारी सुविधाओं को उनसे छीन लिया गया। इस तरह वह वहीं पहुंच गए जहां से सज़ा की शुरुआत हुई थी। सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘माय ट्रांसपोर्टेशन ऑफ लाइफ’ में बताया कि उस वक्त उन्होंने तीसरी बार आत्महत्या करने का फैसला किया। ऐसा फैसला उन्होंने पहले 2 बार सेल्यूलर जेल में किया था।
उनका असीम आत्मबल ही था कि वो इस तरह के विचारों से बाहर आ सके, अन्यथा कितने राजनीतिक कैदियों ने अपने आप को फांसी से लटका लिया था और कितने पागल हो गए थे। ऐसी स्थिति में 19 अगस्त 1921 को दी गई उनकी याचिका उनके टूटे हुए मन और निराशा को दर्शाती है, जिसके कारण उन्होंने राजनीति को त्यागने का फैसला लिया।
1924 में सावरकर को रिहा किया गया
3 साल बाद 6 जनवरी 1924 को वह समय आ गया जब सावरकर को जेल से छोड़ दिया गया, लेकिन रत्नागिरी जिले के भीतर ही सख्त निगरानी रख उन्हें राजनीति से वंचित रखा गया। उन्होंने अपने जीवन के अगले 13 साल इसी प्रकार बिताए पर उन्होंने सामाजिक सुधार के उन कार्यक्रमों को जारी रखा जिससे जाति प्रथा और छुआछुत को समाप्त किया जा सके।
हरिजन आंदोलन और अंबेडकर के आवाहन के काफी पहले ही सावरकर ने अंतर-जातीय भोज की शुरुआत कर दी थी। इसके अलावा उन्होंने रत्नागिरी में पतित -पावन मंदिर का निर्माण करवाया जिसमें सभी जातियों के लोग पूजा करते थे।
ऐसा कोई भी विश्लेषण जो सावरकर या उनके जैसे किसी भी वीर की छवि को धूमिल करता हो उसे कठिन प्रश्नों से गुजरने की ज़रूरत है।
हमें यह देखना होगा कि काँग्रेस द्वारा किए गए आंदोलन से परेशान होकर अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ने का फैसला किया या फिर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद उनकी स्थिति बदतर हो गई थी। ब्रिटेन को हर उस भारतीय से डर लगता था जिसकी दोस्ती दूसरे देश के नेताओं से थी।
दूसरे विश्व युद्ध के वक्त भी काँग्रेस ने भारत को आज़ादी देने की शर्त पर ब्रिटेन को समर्थन देने की बात कही थी। मुस्लिम लीग ने तो ब्रिटेन का समर्थन भी किया था। काँग्रेस भी ऐसा कर सकती थी पर उस वक्त तक सुभाष चन्द्र बोस का प्रभाव बढ़ गया था।