Site icon Youth Ki Awaaz

“मोदी-समर्थक या मोदी-विरोधी, लगता है अब यही हमारी पहचान रह गई है”

बीते 5 वर्षों में हमने अपनी एक अलग पहचान बना ली है। हममें से शायद हर किसी ने अपने लिए लाइन का एक ओर चुन लिया है। अब लाइन पर खड़ा कोई नज़र नहीं आता है। हमारी यह दूसरी पहचान इतनी मज़बूत हो गई है कि लगता है कि आधार कार्ड के फॉर्म में अब सरनेम की जगह ‘मोदी-समर्थक’ एवं ‘मोदी-विरोधी’ का विकल्प रख दिया जाना चाहिए।

मेरे पास इसका कोई प्रामाणिक आंकड़ा तो नहीं है लेकिन अपने सगे-संबंधियों, यार-दोस्तों, सहकर्मियों से लेकर पास-पड़ोस तक हर किसी को लाइन के किसी एक ओर बड़ी मज़बूती से खड़ा पाता हूं। इस अनुभव से लगता है कि देश की पूरी जनसंख्या में बड़े थोड़े लोग होंगे, जिनपर तटस्थ होने का तमगा ठीक-ठीक से लगाया जा सकता है।

मैं खुद को भी इन दो गुटों में किसी एक के बहुत करीब ही महसूस कर पाता हूं। हां, यह बात बिल्कुल मानने लायक है कि हर किसी के झुकाव की डिग्री बहुत अलग-अलग है। भक्त से लेकर दास एवं विकासवादी से लेकर उदारवादी तक की कई श्रेणियां बनाई जा सकती हैं। यहां अपने-अपने आराध्य नेता/नेत्री के लिए अट्टहास करने वालों से लेकर मंद-मंद मुस्कुरा भर देने वालों की लंबी रेंज है।

हमारे रोज़मर्रा के मुद्दे और सरकार चुनने के मुद्दे अलग-अलग हैं

 

मीडिया के हर फोरम में भी इन सेनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग सुलभता से दिख जाते हैं। किसी टीवी चैनल, अखबार या सोशल मीडिया यूज़र की टाइमलाइन पर महज़ 5-10 मिनट खर्च कर बहुत संभव है कि आपको उसका वाला पाला नज़र आ ही जाएगा। ऐसा भी नहीं है कि यह बंटवारा सिर्फ तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं शिक्षित लोगों के बीच का ही है। आप सब्ज़ी वाले के रेहड़ी पर, पानवाले एवं चायवाले (जो वर्त्तमान में भी चाय ही बेच रहे हैं) के ठीये पर भी लगभग यही अनुभव करेंगे।

दिल्ली में रहते हुए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का अक्सर मुझे इस्तेमाल करना होता है। इस चुनावी मौसम में कई मौकों पर किसी ऑटो या ई-रिक्शा पर सफर करते हुए बस आसपास की टोह लेने के लिए मैंने पॉलिटिकल चर्चा छेड़ देने की शरारत की है और इसके बहुत हैरतअंगेज अनुभव हुए हैं।

बचपन से सुनता आया हूं कि हमारी बेसिक ज़रूरतें रोटी, कपड़ा एवं मकान है और इसी आधार पर यह भ्रम पाले बैठा था कि समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए अपनी सरकार चुनने के बस ये ही मानदंड होंगे। यह जानकर हैरानी हुई कि पॉलिटिकल डिस्कोर्स के शब्दकोश अब बहुत अपडेटेड हैं। इसमें अब बालाकोट है, राफेल है, पड़ोसी मुल्कों को लेकर सीमा सुरक्षा का सवाल है, जीएसटी है, परिवारवाद बनाम संप्रदायवाद है, इत्यादि-इत्यादि।

कुछ भी हो लेकिन अब राजनीति को लेकर एक नई चेतना, तो समाज के एक बड़े वर्ग में आई ही है। यह और भी सुखद लगता है कि अब यह दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों तक सीमित नहीं है। पिछले दिनों अपने गृह राज्य झारखंड के कुछ ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में जाने का मौका मिला। यहां के कुछ हिस्सों में अंतिम चरण में मतदान होना अभी बाकी था। घर पर आए एक इलेक्ट्रिशियन से जब मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया कि इधर किसकी (राजनैतिक) हवा है, तो अपना काम रोककर इत्मीनान से अपने आराध्य नेता के बारे में बड़ी प्रसन्नता से बताने लगा और उनकी जीत के दावों को बुलंद करने लगा।

खैर, मुझे अधिक हैरानी तब हुई जब बातचीत के दरम्यान उसने बालाकोट वाली घटना का ज़िक्र किया और इसे ही अपने मतदान का आधार बताया। पूरी विनम्रता से उसके इस अधिकार क्षेत्र में मैंने कोई व्यवधान नहीं डाला लेकिन मन ही मन यह सोचने को ज़रूर विवश हुआ कि क्या उनको अपने आसपास के पांच-दस गॉंवों के आगे के किसी गांव का नाम पता भी होगा?

ऐसे ही एक और वाकये में, रेलवे स्टेशन पर मैं किसी लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। बाजू में खड़ा एक बहुत ही ढीला-ढाला व्यक्तित्व वाला व्यक्ति जो थोड़े नशे में भी था, अपने किसी परिचित को समझाइश देता सुनाई दे रहा था। जो मोटी-मोटी बातें मेरे कानों पर बार-बार पड़ रही थीं, उसका सार यह था कि किसे वोट देने वाले हो, उसी को देना जो तुम्हारा भला करे, अपना पहले सोचना, जुमलों वाली सरकार से बचकर रहना, देखो अमुक ने देश की क्या हालत कर दी है बीते 5 सालों में, आदि-आदि।

अब महज़ तर्कों के आधार पर अपनी ज़मीन नहीं बदलते हम

मज़ेदार बात यह है कि हर ओर खड़ा व्यक्ति अपने साथ लगातार दो-चार लोगों को जोड़ लेना चाहता रहा है। राजनीति से कहीं अधिक अब यह उनकी व्यक्तिगत स्पर्धा बन गई है। सही भी है, लोकतंत्र तो आधारित ही है संख्याबल पर। यहां तो वही अधिक सफल है, जिसने अपने पाले में जितने अधिक सर जुटा लिए, हम सबने दिवंगत अटल जी की सरकार को महज़ एक वोट की भेंट चढ़ते देखा ही है लेकिन समर्थकों एवं विरोधियों के बीच निरंतर चल रहे इस शीत-युद्ध से क्या इस मोर्चे पर भी कोई सफलता मिल पाई है?

मेरी समझ से तो पांच वर्ष पूर्व जो समर्थक थे, वे और मज़बूती से भक्त की श्रेणी में आ चुके हैं या फिर उस ओर अग्रसर हैं। इधर जो विरोधी थे, वे सरकार की नीतियों एवं नीयत का विरोध जताने के लिए अपने स्कूल के समय के अवॉर्ड ढूंढने में लगे हैं, ताकि कुछ तो उन्हें मिल जाए जिसे वे वापस कर सकें एवं और अपने आराध्य के प्रति अपनी निष्ठा साबित कर सकें। कुल मिलाकर दोनों गुटों के बीच तल्खी ही बढ़ी है।

अपने व्यक्तिगत सर्कल में भी देखूं तो मुझे लगता है कि मेरे वे दोस्त या जानने वाले जो लाइन की उस ओर खड़े थे, उनके साथ मेरा पांच सालों का पूरा राजनैतिक संवाद एक-दूसरे के तर्क को काटना ही रहा है। मुझे नहीं लगता कि मैं उस पाले की ओर इंच भी बढ़ पाया हूं और यह बात लाइन की उस ओर खड़े लोगों के लिए भी उतनी ही सत्य है। बीते पांच वर्षों में हम सबने अपने-अपने पाले में खड़े होकर अपने आराध्य नेता/नेत्री के कमियों को ढंकने और दूसरी ओर के नेता/नेत्री द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कार्यों में कमियां ढूंढने में अपनी ऊर्जा लगा दी है।

राजनैतिक दल के रणनीतिकारों को भी यह सोचने की ज़रूरत है कि ट्विटर एवं प्राइम टाइम डिबेट की नूरा-कुश्ती के इन प्रयासों से समाज में केवल रासायनिक प्रतिक्रियाएं बढ़ी हैं या संख्याबल के गणित पर भी इसका संतोषप्रद प्रभाव पड़ा है। क्या किसी कथित ‘उदारवादी’ के नाम के आगे ‘चौकीदार’ लगाने में सफलता हासिल हो पाई है? क्या नमो जाप करने वाले किसी को भी ‘प्रियंका’ में ‘इंदिरा’ की छवि दिखाई दी है?

यह ठीक है कि जिस पक्ष का हम समर्थन करते हैं, उसकी जीत-हार से हम अवश्य ही प्रभावित होते हैं। क्रिकेट के एक मैच में भी ऐसा हो जाता है फिर तो यह पूरे पांच साल के लिए सरकार चुने या नहीं चुने जाने से जुड़ा हुआ है। मनोवैज्ञानिक तौर पर इन परिणामों को लेकर खुश होना या निराश होना एकदम स्वाभाविक है, किंतु इसे उस इंतहा तक भी नहीं जाना चाहिए कि ‘समर्थक’ खुद को उस हिरण की तरह मान लें, जिसने कस्तूरी पा ली हो और अब उनके जीवन में पाने के लिए कुछ और रहा ही नहीं। ना ही ‘विरोधियों’ को हर सुबह इस भारी मन के साथ उठना चाहिए अब यह अगला 5 साल बीतने में और कितने दिन बाकी हैं। यह देश का अंतिम चुनाव नहीं था, यह देश की आखिरी सरकार भी नहीं है लेकिन बीतता हर पल हमारे जीवन में कभी ना लौटने वाला पल है, कोशिश रहे कि इसे हम ऐसे ही ज़ाया ना होने दें।

Exit mobile version