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कागज़ों में किसान दिवस और उनसे जुड़ी असल समस्याएं

किसान और उनकी असल समस्याएं

तारीख 23 -12 -2016 यानी कि किसान दिवस का दिन, जो अमूमन मुझे कभी याद नहीं रहता लेकिन उसी दिन इसी के संदर्भ में एक चित्र मेरी फेसबुक वाल पर उड़ता-उड़ता आ गिरा और जिसने मुझे ज्ञात करवाया कि आज किसान दिवस है।

मैं इसके लिए सोशल मीडिया का शुक्रिया करने की बजाय उस चित्र में गलतियां निकाल रहा था और पास बैठे अपने मित्र से कह बैठा कि इस चित्र में एक महिला किसान के रूप में क्यों दिखाई गयी है? मैं और मेरा मित्र दोनों ही देश के दूसरे प्रांतों से हैं, लेकिन इतना सुनकर ही मेरे मित्र ने बड़े ही तल्ख रूप को अपनाते हुए मुझसे पूछा कि “क्यों किसान एक महिला नही हो सकती?”

उसका सवाल बड़ा गहरा था और अनजाने में ही सही मैं उसके अंतर्मन का अपराधी बन चुका था तो सबसे पहले मैंने अपने अपराधबोध को स्वीकार किया, फिर उसी दिन घर जाकर अपने पत्नी के पैर छुए और जब उस अपराधबोध से मुक्त हो गया तब अपने मित्र से फोन पर बात की और उसके सामने अपना पक्ष पूरी ईमानदारी से रखा।

 किसान और उनके जीवन से जुडी हुई समस्याएं

मैं एक किसान हूं, हां थोड़ा पढ़-लिख गया शिक्षा की लकीरों को तो आज मैं कृषि के व्यवसाय में नही हूं, लेकिन कृषि और उससे जुड़े किसानों के दर्द को भली-भांति जानता हूं। मेरे लिए कृषि या उस व्यवसाय से जुड़े लोगों का मतलब बेरोज़गारी, रोज होती आत्महत्याएं, खेती के औज़ारों से कटे-फटे हुए हाथ और पैर, खेतों में बिजली के करंट से होती मौतों से है।

मेरे घर में और पूरे परिवार में कहीं भी खेती-बाड़ी के काम करने में महिलाओं को अनुमति नही हैं, और मेरे लिए किसान का मतलब आदमी, यहां मुझे आप पुरुष प्रधान या पितृसत्तात्मक समाज के पुरोधा होने का ताना मत मारना क्योंकि खेती-बाड़ी एवं उससे जुड़े किसानों का मतलब दर्द, खेतों को देखती निराशापूर्ण आंखें, वर्षा होने की राह में सूनी आंखों से बादलों को तकना, ना उम्मीद चेहरे, समाज की प्रतिष्ठा में पिछड़ रहा परिवार और फसलों की छिड़काव की दवाई को पीकर रोज देश के किसी कोने में आत्महत्याएं करते किसानों से मैं बहुत आहत हुआ हूँ।

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मैं आज कुछ इसी तरह के हादसों को आप से साझा कर स्वयं के अपराधबोध के दोष से मुक्त हो जाऊंगा, लेकिन आप पर यह दोष बना रहेगा जिन्होंने मुझे अपने प्रांत के किसानों की असहनीय पीड़ाओं से अवगत नहीं कराया फिर वह चाहे महिला हो या आदमी, हमें उनकी पीड़ाओं को एक किसान की पीड़ा की भांति ही समझना चाहिए।

मेरे बचपन की घटनाओं का मुझ पर असर

हम गर्मी की छुट्टियों में अक्सर अपने गांव पंजाब जाया करते थे तो कभी मामा के घर तो कभी मासी के घर यहां सभी परिवार खेती-बाड़ी के व्यवसाय से ही जुड़े हुए थे। मैंने इस कारण अपने बचपन से कहीं ना कहीं किसानों के दर्द एवं उनसे जुडी असहनीय पीड़ाओं को करीब से अनुभव किया है।

हमारे वहां खेती मतलब पानी और पानी मतलब कुंआ, जिसके बिना चावल की खेती नहीं हो सकती और चावल की बुवाई के समय खेत अक्सर पानी से लबा-लब भरे होते हैं। सन 80 -90 के दौर में जो खेतों के कुंआ 20 -30 फिट की गहराई पर थे, वहीं सन 90 -92 के बीच में कहीं 50 -55 फिट गहरे हो गए थे।

एक बार कुएं में नीचे रखा पानी का पंप हवा ले गया तो मेरे मामा का लड़का, जो हमसे 8 महीने छोटा था। उस समय उसकी उम्र रही होगी 15 -16 साल, वह उसे सही से करने के लिए नीचे कुएं में उतर गया। उस समय वह कुंआ इतना गहरा था कि नीचे से हमें बस उसकी आवाज ही सुनाई दे रही थी। हमें कुएं में वह कहीं भी नहीं दिख रहा था, बस हमारी नजरे एक काले अंधेरे पर जाकर खत्म हो रही थी।

मैं उस काले गहरे अंधेरे को देखकर बस यही सोच रहा था कि ये काले अंधेरे से भरे हुए काले कुएं ही ना जाने कितने किसानों को निगल सकते हैं। इस घटना के कुछ दिनों बाद जब मैं अपनी ताई जी के मायके गया हुआ था तो अचानक से मेरा मामा घर पर दौड़ता हुआ आया और अपने ट्रैक्टर के साथ उसके पीछे रेती खींचने की मशीन बांध कर ले गया। मैं अवाक् सा अपने मामा को जाते हुए देखता रहा तब ही मैंने अपनी ताई जी से पूछा कि मामा को क्या हुआ? वो ऐसे भागते-दौड़ते आए जब उन्होंने बताया की पास के ही गाँव में दो मजदूर और कुछ मिस्त्री कुएं को और गहरा कर रहे थे तभी उनके आस-पास की मिट्टी उन पर गिर गई।

आप जरा सोचिए, कुएं में 50 फिट नीचे मिट्टी में दबा हुआ मजदूर या कोई भी आदमी उस से जिंदा निकल पायेगा! उस समय ऐसी असमय मौतों का चलन आम था। आप इससे सम्बन्धित जानकारी के लिए गूगल करिए, आपको बहुत कुछ मिल जाएगा।

अपनों के खोने का दर्द

मैं आपको अपनी व्यथा बता देता हूं, मेरी ताई जी के भाई और मेरे मामा उनकी मौत 50 फ़िट के गहरे कुएं में गिरने से हुई थी। उनको गुमशुदा मान कर हमारे परिवारों द्वारा कई दिनों तक उनकी छान-बीन की गयी लेकिन कुछ पता नही चला, फिर किसी ने बताया की उनकी मौत बगल के खेत के कुएं में गिरने से हुई है।

उस समय उनके दो छोटे बेटे और एक बेटी थी,अभी वह स्कूल ही जाते थे लेकिन साल 2000 के आते ही कुओं के पानी के लिए सबमर्सिबल पंप चल पड़े जिनके चलते अब कुओं को गहरा नहीं करना पड़ता था। कुरूक्षेत्र में प्रिंस कुछ इसी तरह के बोर की पाइप में गिरा था। अभी मेरा दर्द यहीं खत्म नहीं हुआ, मेरी ताई जी के पांच भाई थे जिनमें से एक की मौत का दर्द यहां आप से साझा और पढ़ें कर चुका हूं और बाकी दो भाई भी अपनी आर्थिक बदहाली के चलते खेती रक्षक दवाई को पी कर अपनी जीवन-लीला खत्म कर चुके हैं।

आज की खेती मतलब बिजली, जितने भी सबमर्सिबल पंप हैं वह या तो बिजली पर चलते हैं या बिजली के जनरेटर पर चलते हैं। हमारे गाँव में हर 4 -5 एकड़ जमीन छोड़कर एक पंप है तो आप सोच सकते हैं कि गाँवों में बिजली की आपूर्ति की कितनी मांग है और इसके चलते कई हादसे और मौतें भी हो जाती हैं। मेरी मौसी जी के एक रिश्तेदार का लड़का इसी व्यवसाय से जुड़ा हुआ था। बिजली के कर्मचारी जब किसी नये बिजली का कनेक्शन करने जाते हैं तो वहां उन्हें बिजली के खम्भे भी लगाने पड़ते हैं।

इसके लिए उन्हें एक गहरा गड्डा भी खोदना पड़ता है, जिससे उसकी अर्थिंग की जा सके और इस तरह के काम के लिए वह चुनिंदा लोगों को ही अपने साथ ले जाते थे। एक दिन ऐसे ही किसी बिजली के कनेक्शन के लिए ताई जी के रिश्तेदार के लड़के ने बस खड्डा खोदा ही था कि पता नहीं, किस तरह बिजली का तार खम्भे से खुलकर नीचे उस लड़के पर गिर गया और हाई वोल्टेज लाइन होने के कारण उसकी मौके पर ही बड़ी दर्दनाक मौत हो गई।

इस दर्दनाक हादसे से कोई किस्मत वाला ही बच सकता है यकीनन मौत तो होनी ही थी, लेकिन आज भी दिन प्रतिदिन हमारे गाँव के खेतों में बिजली से और भी कई हादसे होते हैं। जो कहीं भी किसी भी अखबार की सुर्खियां नहीं बनते अगर खबर आती भी है तो वह पीड़ित परिवार की विनती की होती है कि इस दिन उस किसान की मोत का भोग है और नीचे अपना पता दिया होता है।

मेरे रिश्तेदारों में, गाँव में, पडोस में, हर कोई खेती के व्यवसाय से जुड़ा हुआ है और इसी तरह ऐसे रोज होते दर्दनाक हादसे भी कुछ शब्दों में नहीं लिखे जा सकते हैं, शायद मैं इन सभी का दर्द आप से साझा करके दोष मुक्त हो जाऊं लेकिन आप पर अपराधी होने का दोष बना रहेगा क्योंकि आपने आप के प्रांत के किसानों से जुड़े हुए दर्दों को शब्दों में बांटा नहीं।

अगर दर्द, दर्द की भाषा समझेगा शायद तभी हम किसी तरह व्यवस्था को बदल सकते हैं जहां किसान की स्थिति इतनी दयनीय ना हो. जय हिंद.

 

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