IBPS PO में साल-दर-साल नौकरियों का हाल बुरा ही रहा है। आंकड़े पर गौर करें तो, IBPS PO 2012: 22000, IBPS PO 2013: 21680, IBPS PO 2014: 16721, IBPS PO 2015: 12434, IBPS PO 2016: 8822, IBPS PO 2017: 3562, IBPS PO 2018: 4252, IBPS PO 2019: 4336, और IBPS PO 2020 में कुल 1167 वैंकसी निकली गईं।
इसके बाद यही लगता है कि क्या और अच्छे दिन चाहिए? काफी मशक्कत के बाद कुछ सरकारी नौकरी की वैकेंसी निकाली जाती हैं और उनकी संख्या ऐसी की मानों सरकार भीख दे रही है। क्या सरकारी नौकरी की इच्छा रखना गुनाह है?
यदि हम दिन रात पढ़ाई करके ऑफिसर बनने की क्षमता रखते हैं, तो क्या यह पाप है? क्या देश इतना कंगाल हो चुका है कि यहां के युवाओं को बेरोज़गारी की खाई में धकेल दिया जा रहा है?
यदि योग्य युवाओं को उनकी क्षमता के मुताबिक रोज़गार देकर वेतन देने की ताकत देश की अर्थव्यवस्था में नहीं रही है, तो मूर्तियों और मंदिरों के निर्माण में लगाई जा रही रकम पर सवाल क्यों ना हो?
बैंकों को एक-दूसरे में घुला-मिलाकर सरकार ने तो पहले ही बैंकों में नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों को झटका दे दिया। अब सरकारी बैंकों की संख्या को पांच पर लाकर करोड़ों बेरोज़गारों के हाथों में 100-200 वैकेंसी का झुनझुना थमाने की तैयारी है।
दो साल पहले निकली थी रेलवे की वैकेंसी
परीक्षा तो दूर अभी तक वेंडर का भी चयन नहीं हुआ। यहां तो मामला और भी दिलचस्प है। बेरोज़गारों को नौकरी देना तो छोड़िए, उल्टा 100 रूपए के फार्म के लिए 500 रुपए वसूले गए। कारण? पता नहीं। क्या किसी ने सोचा कभी उस गरीब पिता के विषय में जिसने वह 500 रुपए साहूकार से लिए होंगे?
कर्मचारी चयन आयोग यानी SSC की हालत तो और भी बदतर हो गई है। यहां भ्रष्टाचार इस कदर व्याप्त है कि मजाल है कोई परीक्षा बगैर कोर्ट-कचहरी के संपन्न हो जाए।
तीन-तीन सालों में भी चयन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती है। जब से वर्तमान सरकार आई है, SSC ने कितने लोगों की ज्वाइनिंग की प्रक्रिया पूरी की? कभी चार साल से रिज़ल्ट के इंतजार में मर रहे युवाओं से भी मन की बात कीजिए। ऐसी-ऐसी कहानियां मिलेंगी कि कलेजा फट जाएगा बशर्ते कि आप के अंदर संवेदना और इंसानियत बची हो।
देश के युवाओं की ही कमर तोड़ दी जाएगी, तो देश कहां से मज़बूत होगा?
जो युवा विगत कई वर्षों से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे थे, आज जब वह सरकारी नौकरी की आवश्यक योग्यता के अनुसार उम्र के आखिरी पड़ाव में हैं, तो वे क्या करेंगे?
गाँव से दूर रहकर मेहनत कर रहे लोग, कर्ज़ में डूबे घर में नौकरी की बाट जोह रहे बूढ़े मां-बाप को क्या जवाब देंगे? कैसे लोगों को समझा पाएंगे कि आवश्यक योग्यता होते हुए भी सिस्टम की नाकामी ने उनके माथे पर नाकामी का ठीकरा फोड़ दिया।
अपने सपनों का गला घोंटना संभव नहीं होता है। इन लोगों की उस तकलीफ को समझना होगा।
रही बात युवाओं की, तो उनको भी अपने हक के लिए आवाज़ उठाने की आदत डालनी होगी। हिन्दू-मुस्लिम, धर्म, जात-पात जैसी साज़िशों से दूर रहना होगा। समय-समय पर अपने मताधिकार के सही प्रयोग पर विचार करना होगा। अब भी यदि ऐसे ही चुप्पी साधे रहे और हिन्दू-मुस्लिम करते रह गए, तो भूल जाइए कि सरकारी नौकरी भी कुछ होती है।
सरकार की उपलब्धियों को गिनाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, रोज़गार इन चारों के अलावा यदि और कोई मापदंड आपके ज़हन में है, तो समझ लीजिए आपका ब्रेनवाश हो चुका है। फिर सरकारी नौकरी के प्रति सरकार के इस रवैये और उदासीनता के लिए आप भी बराबर ज़िम्मेदार हैं। संभल जाइए कि इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। याद रखिए अभी नहीं, तो कभी नहीं।