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गणतंत्र और गण की तंत्र में भूमिका

गणतंत्र और गण

हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूँ कि हम साल भर में कितने आगे बढ़े हैं। मैं ना सोचूं तो भी जीवन का हर दैनिक क्रिया का काम चलेगा बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। सोचना एक रोग है कब्ज जैसे-  खाने के जरुरी तत्वों में किसी का भी संतुलन बिगड़ कर वह असंतुलित हो जाता है तो आपको कब्ज़ की शिकायत होगी और जो इस कब्ज़ से मुक्त हैं और स्वस्थ है, वे धन्य हैं।

कल कैलेंडर में तारीख  26 जनवरी और साल 2021 है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का गणतंत्र दिवस है, मगर इस लोकतंत्र में से ‘ गण ‘ टूट रहे हैं। हर गणतंत्र दिवस ‘ गण ‘ के टूटने या नये ‘ गण ‘ बनने के आंदोलन के साथ आता है। गणतंत्र में आज की तारीख में गण के वजूद की उतनी ही अहमियत है जितना लोकतंत्र में तंत्र का बचा हुआ हिस्सा रह गया है।

इस बार मांग राष्ट्रीय स्तर पर आय  की न्यायिक व्यवस्था पर है और अगले वर्ष फिर इस पावन अवसर पर कोई और गण संकट आएगा।

राष्ट्र और नागरिकों के कर्तव्य

मैं राष्ट्र के एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते, राष्ट्र में हर सुबह नई किरण की प्रतीक्षा में आशावादी होकर उठता हूँ,  कानों में रोज़ की खबरें सुनते ही एक दिन सब सही हो जाएगा के आश्वासन पर जीने की आदत पालने लगता हूं। शाम तक जनतंत्र की चार हकीकत देखकर निराशावादी की तरह सो जाता हूँ। हर रात मैं सोचता हूँ कि हो सकता है कि मेरी समस्याओं में और राष्ट्र की समस्याओं में अंतर है, मेरी समस्या समाज में मौजूद जाति व्यवस्था, उसके साथ हो रहे राजनीति और धीमे धीमे हो रहे हमले पर केंद्रित रहती है या हो सकता है कि इस प्रकार के आंकलन के लिए मेरा विषय जिम्मेदार हो।

 समाजशास्त्र भी समस्याओं के सागर में जब इस गहन समस्या का उत्तर नही ढूंढ पाया तो उसने भी बताया कि एक आदर्श और सभ्य समाज कैसा होना चाहिए, लेकिन यहां इस परिप्रेक्ष्य में यह बताना समाजशास्त्र का काम नही है कि समाज कैसा होना चाहिए इसके इतर उसे बताना चाहिए कि असल वास्तविक संसार की चारदीवारी में समाज कैसा है बतौर समाजशास्त्र हमें स्वयं के अवलोकन की आवश्यकता है।

इस वक़्त जब हमारे गणराज्य में गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है तब इस दुनिया के मानचित्र में से आधे से ज्यादा मुल्क साम्राज्यवाद के शिकार हो चुके हैं। आज 21 वीं सदी के साम्राज्यवाद में भूमि अधिग्रहण नही होता है बल्कि हर मुल्क विज्ञान एवं नई तकनीकी में अपना विशेष ज्ञान अर्जित कर इसका उपयोग सम्पूर्ण संसार एवं अन्य राष्ट्रों के लिए अपनी श्रेष्ठता साबित कर स्वयं को सब के समक्ष सर्वशक्तिमान सिद्ध करना है, जिसे दुनिया भर के बुद्धिजीवी एवं मनीषी इसे ‘ इम्पीरियलिज्म विदआउट कॉलोनी ‘ कहते हैं। 

वर्तमान में गणतंत्र का सम्मानीय गण अब सिर्फ इसलिए ज्ञान अर्जित कर रहा है क्योंकि उसे भारत से बाहर जाकर आधुनिक युग की जिंदगी जीनी है,तब साम्राज्यवाद मजबूत हो रहा है।

 विकासशील राष्ट्र की पश्चिमी अवधारणा

प्रधानमंत्री और सरकारों की समस्याएं अलग हैं उन्हें देश में शासन के सबसे मजबूत और कारगर उपाय तलाशने हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहीं गलती से ‘ निरर्थक गणराज्य ‘ ना हो जाए। विकास की पश्चिमी अवधारणा ने राष्ट्र अध्यक्षों को यह विश्वास दिला दिया है कि पश्चिमीकरण ही विकास है। यह तब हो रहा है जब दुनिया के सबसे ताकतवर राष्ट्र के राष्ट्रीय संसद में घुसकर लोग अतरंगी तौर पर तस्वीरें ले रहे हैं।

आधुनिकता के इस मार्ग पर पूंजीवाद दिशा है और पूंजीपति वर्ग इस मार्ग का मालिक है। दुनिया के तमाम विकसित राष्ट्र आज असन्तोष की बुनियाद पर खड़े हुए हैं, यही असंतोष भीड़ बनकर धर्म, जाति और पेशे का रूप धारण कर रहा है। सरकार भी पहचान के आधार पर पहचान को पहचान के सामने खड़ा करके विकास ला रही है। नजर घुमा कर पीछे मुड़कर देखने पर पता चलता है कि देश के पिछले सात दशकों से बस दो ही प्रकार के व्यक्तियों का बोलबाला है- जादूगर और भटकती आत्मा वाले लोग।

गणतंत्र एवं गण की राष्ट्र निर्माण में भूमिका

जादू वाला आदमी जादू दिखाता है, आंखों पर पट्टी बांधकर गाड़ी चलाता है । रोज अखबार टटोलने पर पता चलता है कि देश में कोई नया जादूगर पैदा हो गया है और कोई बड़ी भटकती आत्मा का आयोजन होने को है। ‘ उभरता भारत ‘ और ‘ गरीबी हटाओ ‘ वाली जनता राशन की दुकान छोड़कर जादू देखती है और ताली पीटती है ये छोटे दर्जे वाले जादूगर हैं।

एक इनसे भी बड़ा है जो गत 68 वर्षों से देश की जनता को जादू दिखा रहा है और जनता जादू देख कर अभिभूत है, आम आदमी चीख चीख कर चीत्कार करता हुआ बहदवास विकास की ओर भागा जा रहा है। इस पूरे प्रकरण में वह व्यक्ति जो अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर जनता को विकास का खेल दिखा रहा है, उसे सरकार कहा जाता है और जो आम आदमी चीत्कार करता हुआ विकास की ओर भागा जा रहा है उसे जमूरा कहा जाता है।

वह लोगों की मांग पर जादू दिखाता है, मैं आम आदमी से पूछना चाहता हूँ कि आंख बंद करके वह किस ओर जा रहा है- समाजवाद /राष्ट्रवाद/ लोकतंत्र ? जनता को बस जादू चाहिए और जादूगर दिखा रहा है। अब तक यह मुझे समझ नहीं आया है कि आखिर क्या वजह है कि जनता को बस जादू ही क्यों चाहिए ?  कईं बुरी आत्मा भी हैं जो धर्म के नाम पर साधु-संतों का चोला पहनकर जीवन की खोज़ करने के लिए प्रयासरत हैं, उनका कहना है कि शरीर मिथ्या है, ज्ञान की खोज करो ?

लोग वहां भी जाते हैं, लंबी- लंबी कतारें लगती हैं। लोग धर्म और विचारधारा के नाम पर एक-दूसरे की हत्या करने को तैयार हैं और इसे अपनी श्रेष्ठता मानकर स्वयं को सर्वशक्तिमान कह रहे हैं।

कुलदीप नैयर एवं उनकी निर्दोषिता को आपातकाल के दौरान शिकार होना पड़ा था। यह वह समय था जब उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के हनन का अहसास होना शुरू हुआ था। उस समय ही उन्हें इस  महान व्यवस्था में शामिल उनकी व्यक्तिगत आस्था को भी गहरा झटका लगा था। यह उनके लिए बदलाव का वक़्त था। मेरा उस वक़्त इस भौतिक कहे जाने वाले नश्वर संसार में अस्तित्व भी नहीं था। आज यदि मुझे वह रास्ता चुनना हो तो मैं सूचना क्रांति के इस आधुनिक दौर से भयभीत हूं। यह वह दौर था जब सत्य के बिलकुल निकट पहुंचकर आबादी का एक बड़ा हिस्सा बंट गया, जब सफेद स्क्रीन पर झूठी चेतना का व्यापार शुरू हुआ था।

 एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते राष्ट्र के लिए मेरी भूमिका

एक राष्ट्र के नागरिक होने के नाते मुझे एक छात्र होने की हैसियत प्राप्त हुई और एक किसान परिवार के पुत्र होने के नाते एक जागरूक नागरिक होने का सौभाग्य प्राप्त है। जुलाई 1952 में दिल्ली समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरु के बीच संबंध ठीक नही थे। समाधान के लिए रफी अहमद किदवई को श्रीनगर भेजा गया। बात नही बनी तो मौलाना आजाद भी बातचीत करने गए। बात भले ना बनी लेकिन शेख अब्दुल्ला को यह मालूम चल गया कि नेहरू उन्हें कितना महत्व देते हैं।

भारत का एक सम्मानित नागरिक होने के नाते मुझे यही गर्व रुपी अधिकार मिला है कि हम यहां अपनी बातों को रख सकते हैं, तमाम अंसन्तोष के बाद भी अगर यह बोलने का अधिकार है तो यह व्यवस्था की ही जीत मानी जानी चाहिए। यह सौभाग्य सबको प्राप्त नही है। हमें प्राप्त है, हालांकि यह परंपरा तभी तक बनी रहेगी जब तक लाठी के बदले जीभ का इस्तेमाल किया जाए।

कांग्रेस ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात कही थी। आजाद भारत में नेहरू, पन्त और सितारमैय्या इस मुद्दे को टालते रहे। सरकार तब अपनी ज़िद में रही जब तक पोट्टी श्रीरामुलु मर न गए। सरकार ने तुरन्त ‘ राज्य पुनर्गठन आयोग ‘ के गठन की घोषणा कर दी। मामलें शांत हुए लेकिन 1955 में आयोग के रिपोर्ट आते ही बवाल मचा। जिन्हें कुछ न मिला, उन्होंने विद्रोह का झंडा उठा लिया। ऐसा माना गया कि जो जितना शोर करेगा, उसकी मांग माने जाने की उतनी सम्भावना है।

हमारा अतीत हमारे भविष्य का आईना होता है

हर राष्ट्र अपने हर आने वाले गणतंत्र दिवस पर अपनी पिछली विरासत में कुछ न कुछ नया जोड़ता है। आज जो शोर-शराबा है, वो इसलिए है क्योंकि राष्ट्र में कभी उनकी अहमियत थी। आज जब राष्ट्र वैश्वीकरण के दुःस्वप्न से बाहर आ रहा है तब राष्ट्र के गण अंतरराष्ट्रीय परिवारों की ओर अग्रसर हैं। इन दोनों के बीच जो है वह है असन्तोष छात्र निराश हैं, बेरोजगार युवाओं में नाउम्मीदी बढ़ रही है, किसान हाशिये पर आने को है। इन सबके बीच जो राष्ट्र के अध्यक्ष की जिम्मेदारी है और जनता की आशा है, वह यही है कि पुरानी विरासत के अच्छे पन्नों को संभालकर रखा जाए और इस दौरान जो नई चीजें जुड़ रही हैं उन्हें अपने समन्वय से पुरानी विरासत में एक नए अध्याय के रूप में जोड़ा जाए।

यदि किसी किसान की मृत्यु से राष्ट्र की चेतना जागकर विद्रोह का रूप धारण कर ले उससे पहले जरूरी है कि सरकार पीड़ित जनता और उनके पक्ष को सुने। गणराज्य में जनता की विजय राष्ट्र अध्यक्षों की विजय होती है। संस्था और व्यवस्था में विश्वास अटल रहे, उसके लिए जरूरी है कि चीजों को समझा जाये। 26 जनवरी के दिन मैं यही सोच रहा हूँ कि खुशहाली? गरीबी हटाओ? समाजवाद कहां है? एक नागरिक होने के नाते मैंने इन सब लक्ष्यों को हासिल करने में अपने राष्ट्र में कितना सहयोग दिया है?

भारत भाग्य विधाता! इस गणतंत्र दिवस पर हमें शक्ति प्रदान करें कि जैसा भी हो, अनाज सबके पेट में जाए,  सब संतोष की नींद लें,  राष्ट्र उन्नति के नए मार्ग तलाशें और हमें लेकर चलें, हमें मतलब… हर ‘गण’ को !

भारत माता की जय
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

 

 

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