लाल किले पर फ़हराया झंडा। अमूमन हर न्यूज़ चैनल पर यह खबर बहुत ऊंची, उग्र और आक्रामक रूप में एक प्रयोजित तरीके से दिखाया जा रहा है। छुपे हुए शब्दों में इसे आतंकवाद और खालिस्तान से जोड़ा जा रहा था। तस्वीरों के माध्यम से इसे सिख समुदाय से जोड़ा जा रहा है। जहाँ हर जगह पगड़ीधारी सरदार बताए और दिखाए जा रहे हैं। एक जगह एक निहंग सिख की तलवार को निशान के साथ बताया जा रहा है जहां ये तलवार मयान के अंदर है।
मेरे कौम को हमेशा दंगाई और आतंकवादी कहकर शर्मसार किया जाता रहा है
मसलन पूरे भारत की जनसंख्या की मात्र 2 प्रतिशत ही सिख समुदाय की है जो कि पूरे भारत में मौजूद है। जमीनी तौर पर अलग-अलग शहर में बहुत कम संख्या में मौजूद हैं लेकिन पिछले 70 सालों में बस वो दंगाई, आतंकवादी के रूप में ही शर्मसार किये जाते रहे हैं। आज बहुत बड़े अंतराल के बाद मैं भी लिख रहा हूँ क्योंकि मैं अपनी देश भक्ति साबित करना चाहता हूँ।
साल में कई बार मुझे अपनी देशभक्ति साबित करनी होती है जिसकी अब मुझे आदत हो चुकी है। अब इसपर मैं कोई सवाल भी नहीं करता कि क्यों मुझे मेरी देशभक्ति साबित करनी पड़ रही है? मेरा परिवार पंजाब से बहुत दूर है। कहां है और क्या कर रहा है ये बताना ज़रूरी नहीं क्योंकि सिख समुदाय के रूप में हम हर शहर में मौजूद हैं। परिवार और बच्चे भी हैं जिन्हें देख आज मैं भयभीत हूँ। अपने बच्चों को डरा हुआ देख रहा हूँ। मेरी ज़िन्दगी की कमाई मेरा परिवार है।
जिस तरह हर समुदाय के व्यक्ति का होता है लेकिन आज़ाद देश में आज़ाद नागरिक, आधिकारिक नागरिक का आनंद शायद मैं कभी उठा ही नहीं पाया। मैं आज मीडिया से भी डरा हुआ हूँ कि किस तरह से आज ट्रैक्टर रैली को बदनाम कर आतंकवादी रैली बताया जा रहा है। बताया जा रहा है कि किस तरह सुरक्षा कर्मी घायल हुए हैं लेकिन सरकार और मीडिया ये बताने में कहीं भी रुचि नहीं दिखा रहा कि कितने किसान इस कलह में घायल हुए हैं?
देशभक्त मीडिया किसानों को दुश्मन मान चुकी है
जब इतिहास लिखा जाएगा या जब भी 26 जनवरी 2021 के दिन को याद किया जाएगा तो भारत के मीडिया द्वारा प्रकाशित खबरें जानकारी का स्रोत बनेगी। यही 1984 में भी हुआ था और 2002 में भी। क्या दिखाई जा रही चीज़ें पूर्णतः सत्य है? सत्य को आधा-अधूरा काट-काटकर, प्रयोजित तरीके से दिखाने की साज़िश की जा रही है। एक जानकार कभी भी मीडिया द्वारा प्रकाशित खबरों को संदेह की नज़र से देखेगा ही।
ये भी सत्य है कि जब से किसान आंदोलन दिल्ली के करीब पहुंचा है और आम जन मानुष की नज़रों में आया है तब से ही मीडिया चैनल इसे आतंकवाद, खालिस्तान से जोड़ कर प्रकाशित कर रहा है। यहां तक कि खालसा एड संस्था जो कि पूरे विश्व में अपने मानवीय कार्यों के लिए जानी जाती है हमारे देश में भक्त न्यूज़ चैनलों ने उन्हें भी आंतकवाद की श्रेणी में रखकर उनपर आरोप मढ़े जा रहे हैं।
लेकिन भारतीय मीडिया ये दिखाने में कहीं भी दिलचस्पी नहीं ले रहा कि क्यों इस तरह के हालात बन गए? पिछले लगभग 5 महीनों से यह आंदोलन चल रहा है जहां सरकारी विभागों ने हर तरह से इस आंदोलन को नाकामयाब करने की मंशा सार्वजनिक रूप से दिखाती रही है। मसलन जब ये आंदोलन पंजाब तक सीमित था तब दबाव के रूप में पंजाब से रेल माल गाड़ियों का आवागमन रोक दिया गया।
जब किसान सरकार के प्रतिनिधि से मिलने जाते थे तब भी उन्हें भारत सरकार के मंत्रालय अफसर ही मिलते थे। शायद सरकार और सरकार के मंत्री अपना समय देश के अन्नदाता को देने में कोई रुचि नहीं रखते थे। सरकारी अफसर भी किसानों की समस्या सुनने की बजाय कानून के फायेदमंद बताने की ज़िद्द पर ही अड़े हुए थे।
पुलिसिया अराजकता पर कभी कोई सवाल खड़ा नहीं किया जाता
किसानों के दिल्ली आगमन को सरकारी तंत्र ने किस तरह बलपूर्वक रोकने की कोशिश की ये भी हम जानते हैं। मगर राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से आ रहे किसानों पर किस तरह का बल परेशान करके रोका गया मीडिया ने उसे बताने में दिलचस्पी नहीं ली। वहाँ पुलिस द्वारा आंसू गैस के एक्सपायर्ड गोले दागे गए। पुलिस द्वारा कहां-कहां अराजकता हुई इन खबरों को भारतीय मीडिया दिखाने में कोई भी दिलचस्पी नहीं ले रहा था। शायद ये देशप्रेम के हित में नहीं होगा। आज की भाषा में देशप्रेम सरकार तय करती है और उसके हित में आप न बोलें तो आपको देशद्रोही कहा जा सकता है।
लाल किले पर किसानों द्वारा फ़हराया गया झंडा इतनी बड़ी खबर बन गया कि इसके पीछे बाकी खबरों को दबा दिया गया। जब से मोदी सरकार आई है तब से ऐसा ही हो रहा है। पंचकुला में सिरसा वाले बाबा के भक्तों द्वारा की गई हिंसा की खबर लगातार 3 दिन तक मीडिया चैनलों पर छाई रही। दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु भी इतनी बड़ी खबर बन गई कि तीन-चार महीनों तक बाकी खबरों को दबा दिया गया। आज किसान ध्वजारोहण की आड़ में लाखों किसानों द्वारा किया गया शांति मार्च भुला दिया गया जहां पूरे देश से किसान अपने धर्म, जाति और मज़हब को भूलकर एक किसान मोर्चा के ध्वज के नीचे अपनी मांग पर कदम आगे बढ़ा रहे थे।
किसान ध्वजारोहण से इस ख़बर को भी भुला दिया गया कि 60 दिनों से बिना छत के ट्रैक्टर ट्राली के भीतर किस तरह किसान शांतमयी आंदोलन कर रहे हैं और इस दरम्यान सौ से भी ज़्यादा किसानों की मौत हो गई। छोटे किसानों का व्यक्तिगत और आर्थिक रूप से बहुत बड़ा योगदान था। जहां कर्ज किसान के सर चढ़कर बोल रहा हो वहां किसान आंदोलन में दिया गया एक रुपया भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान रखता है लेकिन हमारा मीडिया इसे भी आतकवादी फंड बताने से पीछे नहीं हटती।
हक मांगते ही हम अन्नदाता और देशभक्त से आतंकवादी में बदल दिए जाते हैं
सिख धर्म की मर्यादा में लंगर प्रथा का बहुत बड़ा योगदान है। ये समाजिक जातिप्रथा ओर पुरुषवाद के विरोध में अपनी अहम भूमिका निभाता है। जहां हर व्यक्ति एक पंगत में बैठकर इस लंगर में दिया जा रहा भोजन करता है लेकिन भारतीय देशभक्त मीडिया को ये भी एक साज़िश लगता है। नेताओं के अपमानजनक बयान किसान आंदोलन के खिलाफ बहुत बड़ी संख्या में आए हैं लेकिन वह कहीं भी हिंसा की रूपरेखा में नहीं दिखाए जा रहे।
व्यक्तिगत रूप से मैंने भारतीय मीडिया को किसान आंदोलन के किसी भी सकारात्मक पहलू पर चर्चा करते हुए नहीं देखा है। जहां भी चर्चा हुई है वह उग्र है और किसान आंदोलन के विरोध में। भारतीय मीडिया किसान आंदोलन के विरोध में ही अपनी भूमिका निभा रहा है। जबकि इस आंदोलन में 3 महीने के बच्चे से लेकर उम्रदराज़ बुज़ुर्ग ओर महिलाएं भी आगे बढ़-चढ़कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। शायद भारतीय मीडिया इसे दिखाने में ज्यादा रुचि नहीं दिखा रहा लेकिन ये सवाल भी इतिहास में ज़रूर दर्ज किया जाएगा।
आज एक सिख नौजवान में यह बात प्रचलित है कि जब हम खेत से अनाज पैदा करते हैं तब हम अन्नदाता कहलाते हैं, जब हम बॉर्डर पर फौजी के रूप में पहरा देते हैं तब हम देशभक्त हैं और जब हम अपना हक मांगते हैं तब हम आंतकवादी हैं। मैं किसी भी रूप में की जा रही हिंसा को स्वीकार नहीं करता लेकिन किसान आंदोलन के साथ सरकार का अबतक का रवैया काफ़ी ज़िद्द वाला रहा है। किसानों और सिख नौजवानों के हाथ में तिरंगा भी है लेकिन हमारा भारतीय मीडिया इसे दिखाने में कहीं भी दिलचस्पी नहीं रखता।
यह मुझे सोचने पर मजबूर करता है कि वास्तव में हमारे देश में लोकतंत्र है या यहां सिर्फ एक तानाशाही सरकारी तंत्र है? आखिर में किसानों द्वारा लालकिले पर किया गया ध्वजारोहण वास्तव में देश को चुनौती नहीं सरकार को चुनौती है। उसके मौजूदा गैर लोकतांत्रिक व्यवहार पर कई सवाल खड़े होते हैं लेकिन भारतीय मीडिया इसे दिखाने में कहीं भी योगदान नहीं देगा क्योंकि देशप्रेम आज सरकार प्रेम की भूमिका में मौजूद है।
व्यक्तिगत रूप से लालकिले पर किसानों द्वारा किया गया ध्वजारोहण से मैं सहमत नही हूँ लेकिन आजादी के 74 साल बाद ऐसे हालात क्यों बन रहे हैं कि नागरिक देश की सरकार का विरोध इस तरह से कर रहा है? इसका विश्लेषण ज़रूर होना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र नागरिक के लिए है और नागरिक ही लोकतंत्र को सफल बना सकता है।