संपूर्ण राजस्थान विविधताओं से भरा है। यह विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं, प्रचलनों, प्रथाओं और सामाजिक, भौगोलिक परिवेश को अपने अन्दर समाहित किए हुए हैं। यहां महिलाओं की आन-बान और शान का एक लंबा इतिहास रहा है।
उनके जीवन चक्र को समाज अपनी इज़्ज़त और सम्मान से जोड़ता रहा है। शायद यही कारण है कि इस क्षेत्र की महिलाओं और बालिकाओं को कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ता रहा है।
बालिका साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम
जन्म से लेकर मृत्यु तक उन पर अनेकों बंदिशें लगाई जाती रही हैं। इज़्जत और मान सम्मान के नाम पर इस क्षेत्र में महिलाओं और किशोरियों की समस्याएं घर के अंदर ही घुट कर रह जाती हैं। आज भी पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं और किशोरी बालिकाओं को बहुत सी समस्याओं, चुनौतियों, परेशानियों से लड़ते हुए अपना जीवनयापन करते देखा जाता है।
इन समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या शिक्षा प्राप्त करने की है। राज्य में ऐसे कई ज़िले हैं जहां साक्षरता की दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। राजस्थान के टोंक जिले की बात करें तो यह सात तहसीलों से मिलकर बना है, जिनमें टोंक, निवाई, उनियारा, पीपलू, टोडारायसिंह, आंवा एवं देवली है।
समाजसेवी अनिल शर्मा के अनुसार, “टोंक की कुल जनसंख्या में पुरुषों की आबादी 7,28,136 है जबकि महिलाओं की जनसंख्या 6,93,190 है। यहां साक्षरता की दर 61.58 प्रतिशत है। ज़िले में सबसे कम महिला साक्षरता निवाई में 49.95 प्रतिशत, जबकि उनियारा तहसील में मात्र 40.22 प्रतिशत है।”
टोंक के ज़िला शिक्षा अधिकारी उपेन्द्र रैना के अनुसार निवाई में 279 सरकारी विद्यालय हैं, जिसमें कुल नामाकिंत बालिकाएं तकरीबन 17,124 है तथा उनियारा में कुल 218 सरकारी विद्यालयों 11,783 बालिकाएं नामाकिंत हैं। स्वयंसेवी संस्था से जुड़े स्थानीय कार्यकर्त्ता जाहिर आलम के अनुसार, सरकारी विद्यालयों में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का नामांकन अधिक देखने को मिलता है।
कम उम्र में शादी भी बड़ी वजह
परन्तु साक्षरता दर फिर भी लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की कम इसलिए है क्योंकि बालिकाएं नामांकित तो हैं परंतु विद्यालय तक पहुंच नही पाती हैं। दूसरी ओर अभिभावक सरकारी विद्यालय की अपेक्षा लड़कों को प्राइवेट स्कूलों में अधिक भेजते हैं,
जिसके कारण भी बालिकाओं का सरकारी विद्यालयों में आंकड़ा लड़कों की अपेक्षा अधिक दिखता है। लड़कियों की स्कूल से दूरी का सबसे अधिक आंकड़ा अल्पसंख्यक और दलित समाज में है।
टोंक के एक निजी विद्यालय की शिक्षिका चित्रलेखा कोली के अनुसार, लड़कियों के शिक्षा से वंचित होने के कई कारण है। जैसे, कम उम्र में ही उनका विवाह हो जाना। घर से विद्यालय की दूरी का अधिक होना और बेटी को पराया धन समझ कर उसे पढ़ाने से अधिक घर के कामकाज में लगाना प्रमुख है।
माहवारी जैसे भय और अशिक्षा ही कुप्रथा की जड़
वहीं, एक अभिभावक नूर मोहम्मद मानते हैं कि अशिक्षा के कारण ही मुस्लिम समुदाय में कुप्रथा ने जन्म ले लिया है। जिससे लड़के और लड़कियों में भेदभाव, लैंगिक असामनता और रूढ़िवादी प्रथाओं के कारण लड़कियों को घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता है,
जिससे वह शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण कड़ी से जुड़ने से वंचित रह जाती हैं मगर लड़कियों के स्कूल से दूरी का एकमात्र कारण रूढ़िवादी सोच ही नहीं है बल्कि स्कूलों में मिलने वाले बुनियादी ढांचों में कमी भी प्रमुख है।
निवाई ब्लॉक के खिडगी पंचायत की रहने वाली सोहिना, मोनिशा और फातिमा जैसी कई छात्राओं का मानना है कि न केवल घर से स्कूल की अधिक दूरी उनकी पढ़ाई में रुकावट बन रही है बल्कि स्कूलों में माहवारी प्रबंधन की उचित सुविधा नहीं होने के कारण भी कई लड़कियां स्कूल जाने से कतराने लगती हैं।
सरकार और स्थानीय शिक्षा विभाग को यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि स्कूलों में सेनेट्री नैपकिन जैसी आवश्यक चीज़ों की कमी न हो ताकि माहवारी के समय भी लड़कियों का स्कूल नहीं छूटे।
लड़के-लड़कियों का साथ पढ़ना भी एक समस्या
वहीं उनियारा ब्लॉक स्थित शिवराजपुरा पंचायत की रहने वाली रुखसार और मोहिना जैसी बालिकाओं का मानना है कि कई बार स्कूल में महिला शिक्षिका के नहीं होने के कारण भी अभिभावक अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। इस असुरक्षा के प्रमुख कारण बताते हुए गांव की सरपंच सीमा भील का कहना है कि पंचायत के सरकारी स्कूल सह-शिक्षण केंद्र हैं, जहां लड़के और लड़कियां साथ पढ़ते हैं।
ऐसे में स्कूल में किसी महिला शिक्षिका के नहीं होने से अभिभावक अपनी बेटियों के लिए चिंतित रहते हैं। परिणामस्वरूप कई अभिभावक ऐसी परिस्थिति में अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से मना कर देते हैं। यही कारण है कि सरकारी विधालयों में लड़कियों का नामांकन तो काफी है लेकिन उनकी उपस्थिति इसकी अपेक्षा कम होती है।
निवाई ब्लॉक के चैनपुरा पंचायत स्थित माध्यमिक विद्यालय के प्रबंध समिती के अध्यक्ष रामविलास शर्मा भी इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं कि यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। विद्यालयों में पुरूष शिक्षकों द्वारा किशोरी बालिकाओं के साथ अभद्र व्यवहार एवं यौन शोषण की कुछ घटनाओं ने जहां शिक्षा को कलंकित किया है, वहीं अभिभावकों के मन में भी डर की भावना पैदा की है।
बालिकाओं को बालश्रम और वेश्यावृति में धकेला जाना
हालांकि इस संबंध में स्कूल प्रबंधन और स्थानीय प्रशासन की ओर से तत्काल कड़े कदम उठा कर सख्त संदेश दिए गए हैं ताकि न केवल बालिकाएं स्कूल में स्वयं को सुरक्षित महसूस कर सकें बल्कि अभिभावकों की चिंता भी दूर हो सके। वहीं स्थानीय सामाजिक कार्यकर्त्ता मोहनलाल शर्मा के अनुसार लड़कियों का स्कूल छूटने का एक और कारण उनके घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति भी है।
इससे उन्हें कम उम्र में ही बालश्रम की ओर धकेल दिया जाता है। कुछ बालिकाओं स्कूल भेजने की बजाए वेश्यावृति जैसे बुरे कामों में भी लिप्त कर दिया जाता है। इस बुरे और आपराधिक कामों में अधिकतर नट समुदाय शामिल होता है, जिनकी आर्थिक स्थिति काफी दयनीय होती है।
इस समुदाय के पुरुषों का कोई स्थाई रोज़गार नहीं होता है। ऐसे में घर चलाने के लिए वह घर की नाबालिक लड़कियों को इस गंदे व्यवसाय में धकेल देते हैं, जिससे न केवल उनका बचपन मारा जाता है, बल्कि उनकी शिक्षा भी छूट जाती है।
अतिरिक्त शिक्षण केंद्र और सरकारी योजनाएं भी
हालांकि इस संबंध में कुछ प्रयास भी किये गए, जिसके काफी सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं। शिवराजपुरा, खिडगी और सोप पंचायत के सरपंचों के प्रयास से बालिकाओं के लिए अतिरिक्त शिक्षण केन्द्र खुलवाये गए हैं, जिसमें शिक्षा से वंचित बालिकाएं शिक्षण कार्य कर रही हैं। जिन्हें उम्र के अनुसार शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का सराहनीय प्रयास सरपंच द्वारा किया जा रहा है।
वहीं सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाएं जैसे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, बालिका शिक्षा प्रोत्साहन योजना, सुकन्या समृद्धि योजना और शुभलक्ष्मी जैसी अनेकों योजनाओं के माध्यम से बालिका शिक्षा के दर को बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त ललवाडी में बालिकाओं ने धरना देकर व मुख्यमंत्री जी को ज्ञापन देकर पंचायत के विद्यालय को 12वी तक करवाने में सफलता प्राप्त की है।
प्राथमिक स्तर पर समाधान ज़रूरी
वास्तव में महिलाओं के मान-सम्मान का गौरवशाली इतिहास समेटे राजस्थान का वर्तमान परिदृश्य निराशाजनक है। किशोरी उम्र की बालिकाओं की समस्या का यदि समय पर निदान नहीं किया गया तो ये सब उन्हें गहरी निराशा और अवसाद की ओर धकेल सकता है। जिसका नकारात्मक प्रभाव उनकी शिक्षा पर पड़ेगा।
ऐसे में ज़रूरी है कि किशोरी बालिकाओं की समस्याओं का प्राथमिक स्तर पर समाधान किया जाए। सरकार को चाहिए कि तहसील, ज़िला और राज्य स्तर पर जागरूक किशोरी बालिकाओं की मदद के लिए एक कानूनी बोर्ड का गठन करे, जहां न केवल उन्हें अपनी समस्याओं को दूर करने का मंच प्रदान हो बल्कि वह पूरी आज़ादी के साथ अपनी आवाज़ उठा सकें।
नोट: यह आलेख चाकसू, राजस्थान से रमा शर्मा ने संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अंतर्गत लिखा है।