यह दौर हम सभी के लिए कठिन है, उन लोगों के लिए भी जिन्हें नहीं लगता कि इस दौर में इस देश के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों पर लगातार हमला हो रहा है। हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं कि 26 जनवरी, 1950 को हमारा संविधान लागू किया गया था, बगैर यह जाने-समझे कि आखिर यह संविधान किस चिड़िया का नाम है।
यह इसलिए कि संविधान के बारे में जानकारी होना, उसमें गहरी श्रद्धा होना अपने आप में सत्ता के लिए चुनौतीपूर्ण है इसलिए प्राथमिक शिक्षा तो छोड़ ही दीजिए उच्च शिक्षा में भी कभी संविधान पढ़ाने और लोगों को उससे अवगत कराने का प्रयास किसी भी सरकार ने नहीं किया। सामाजिक विज्ञान पढ़ने वालों ने भी इसे हमेशा परीक्षा में पूछे जाने वाले ज़रूरी सवाल की तरह ही लिया, जिसे एक रात पहले रटकर दूसरे दिन उत्तर-पुस्तिका में छापा जा सके लेकिन क्या संविधान को एक परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्न मात्र में समेट देना न्यायसंगत है?
संविधान वह खाद है, जो एक गैर बराबर और सामंतवादी ज़मीन में भी समानता और आज़ादी जैसे बीजों को अंकुरित होने देता है। संविधान वह हथियार है जो अनगिनत वर्षों से शोषण और गैर बराबरी झेल रहे लोगों को एकाएक मज़बूती के साथ अपने शोषकों के बराबर ला खड़ा करता है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश में अधिकतर लोगों को संविधान के बारे में जानकारी ही नहीं है। उन्हें एक साज़िश के तहत अनभिज्ञ रखा गया है अपने अधिकारों से, हक से। वो बेचारे तो आज भी अपनी बिखरी हुई हालत का ज़िम्मेदार किसी ईश्वर, किसी खुदा को मानते हैं। शायद यही अनभिज्ञता है जो सत्तासीनों को ताकत देती है लोगों का हक मारने की, लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों को क्षतिग्रस्त करने की।
अगर लोग सच में जागरूक होते तो कैसे कोई सरकार रातों रात संविधान में प्रदत्त सामाजिक न्याय के सिद्धांत में सेंधमारी कर शोषितों और पिछड़ों का हक मुट्ठी भर शोषकों में बांट देती? कैसे गरीबों की रहनुमा बनने वाली सरकार इस देश के मेहनतकश किसानों और मज़दूरों की खून-पसीने की कमाई को तथाकथित ‘देशसेवा’ (नोटबंदी) के नाम पर लूटकर किसी उद्योगपति के चरणों में दान कर देती?
अच्छा है कि हमसब मिलकर 26 जनवरी का उत्सव मनाए लेकिन उस उत्सव को किस तरीके से मनाया जाए इसमें थोड़ा बदलाव करने की ज़रूरत है। अमूमन जब भी संविधान को पढ़ा जाता है तो वह भी दूसरी किताबों की तरह एक मामूली सी नियम कायदों की किताब नज़र आती है। वह इसलिए कि हम सिर्फ उसमें लिखे नियम ही पढ़ रहे होते हैं, उसकी आत्मा को नहीं। संविधान की आत्मा बसती है उस एक-एक शब्द में जो संविधान सभा में संविधान निर्माताओं के मुंह से निकला था।
संविधान सभा की बहस को पढ़ते समय आपको भारत अपने सूक्ष्म और सबसे खूबसूरत रूप में महसूस होगा। संविधान की आत्मा को जन-जन तक पहुंचाना ही गणतंत्र दिवस उत्सव का उद्देश्य होना चाहिए। जब देश का हर व्यक्ति अपने आपको दूसरे से ऊपर या नीचे ना देखकर, बराबर देखने लगेगा उस दिन इस संविधान का अस्तित्व में आना सार्थक हो जाएगा।
आज के दौर में संविधान और हमारे मौलिक अधिकारों पर जो हमले हो रहे हैं, वो किसी से छिपा नहीं है। ऐसे समय में गणतंत्र दिवस हमारे लिए प्रतिरोध का प्रतीक बनेगा, जब हम एक सूत्र में बांधने वाले संविधान के बचाव में खड़े होकर उसके प्रति अथाह प्रेम और अटूट श्रद्धा प्रकट करेंगे और सत्ता के हर उस प्रहार को चुनौती देंगे जो संवैधानिक मूल्यों पर चोट करता है। यह ज़रूरी है कि लोकतंत्र को हम सिर्फ वोट और मतदान तक सीमित ना करें, इसका दायरा तो उससे कहीं ज़्यादा है और उस दायरे को मापना ही आज की ज़रूरत है।