25 मार्च को सम्पूर्ण भारत में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। घरों में रहने के आदेश दे दिए गए थे। लॉकडाउन को लोकतांत्रिक व राजनीतिक नज़रिये से देखा जाए तो यह एक सेहतमंद लोकतंत्र के लिए खतरा साबित हो सकता है।
लेकिन आज थोड़ी सकारात्मक बातें की जाए, भारत के अखबारों और दूरदर्शन के न्यूज़ एंकरों की तरह। 6-7 मार्च को यूनिवर्सिटी ने होली के उपलक्ष पर अवकाश घोषित कर दिया था एवं 15 मार्च को फिर यूनिवर्सिटी के खुलने का समय था।
लेकिन कोरोना के खतरे को भांपते हुए 30 जून तक का अवकाश घोषित कर दिया गया था। कई स्टूडेंट्स बिल्कुल चौंक गए थे एवं इस बात से परेशान भी थे कि आखिरकार घर में बैठकर क्या करेंगे मगर मुझ पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि मुझे शुरू से ही घर में रहने की आदत है।
बचपन में खेलना-कूदना भी घर में ही होता था। हालांकि शहरी क्षेत्र के बच्चों को इससे समस्या पैदा हो सकती है, क्योंकि शहर के मकान ग्रामीण क्षेत्र के मकानों से काफी हद तक अलग होते हैं और बनावट में शहरी मकान बंद कोठरी की तरह होते हैं। इसी बात पर एक शेर प्रस्तुत करता हूं।
इधर का चांद कभी उधर नहीं आता
शहर के मकानों में कबूतर नहीं आता।
वहीं, गाँवों की बात की जाए तो जलवायु के साथ-साथ माहौल भी व्यक्ति का काफी साथ देता है। शहरों का मौसम मुझे कभी रास नहीं आया। बचपन से ही मैं ग्रामीण परिवेश में पला हूं, माँ-बाप शहर में रहते थे। कई बार बुलाने के बाद भी मैं स्थाई रूप से शहर में नहीं रह पाया। गाँव के बुज़ुर्गों की छाया की आदत इतनी पड़ चुकी थी कि शहर की धूप से सदैव बचने की कोशिश की।
लेकिन एक समय ऐसा आता है जब आपको आगे का सफर तय करने के खातिर धूप में भी सफर करना पड़ता है। इसलिए पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए जयपुर का रुख करना पड़ा।
पढ़ने शहर में आया लेकिन कविताएं और गज़लें गाँव की ही रहीं, कुछ बनने शहर में आया लेकिन बनावट गाँव की ही रही और नया खोजने शहर में आया लेकिन खोज हमेशा गाँव की ही रही।
फिर आया लॉकडाउन का समय, जो मेरे लिए संजीवनी बूटी का काम कर गया। घर में रहने का मौका फिर से मिल गया लेकिन इस बार तय किया कि राजनीतिक व सामाजिक खबरों से छुट्टी लेकर आराम करूंगा। हालांकि यह प्रण पूर्णतः सफल नहीं हो पाया लेकिन समय अच्छा व्यतीत हो रहा है।
प्रमुखता से कहा जाए तो ‘किस्सों’ के सहारे लॉकडाउन अच्छा कट रहा है। ‘किस्से’ जो बुज़ुर्गों की ज़बानों पर मिलते हैं। ज़बान खुलते ही बस किस्सों की झड़ी लग जाती है और वक्त पानी की तरह बह जाता है।
घर के बरामदे में कुर्सी डाले हुए, डूबते सूरज को देखते हुए और चाय की चुस्कियां लेते हुए जब ‘किस्सेबाज़ी’ होती है, तो क्या ही कहने! हालांकि यह कोई नया नहीं था क्योंकि बचपन से लेकर आज तक यही किया है, यानी पूरे 18 बरस।
कभी-कभार दोस्तों से बात होती है तो शिकायत करते हुए कहते हैं, “घर में क्या करें।” तब मुझे लगता है कि कुछ करने की ज़रूरत क्यों पड़ती है। कुछ चीज़ें अपने आप भी हो सकती हैं, बिना योजना या प्लानिंग के।
कुछ चीज़ें यदि वक्त पर छोड़ दी जाएं तो पल और भी खास हो सकते हैं, जिन्हें आज़ाद पल कहा जा सकता है, क्योंकि वो आपकी बनाई गई योजना से बंधे नहीं हैं, वो बिल्कुल स्वछंद हैं जो कभी भी कहीं भी उड़ सकते हैं।
फिर चाहे वो पल पेड़ पर टंगे परिंडे में पानी डालने के हों, बिना काम जेब में हाथ डाले शाम की हवा के साथ बात करने के हों या चाय की चुस्कियों के साथ ‘किस्सेबाज़ी’ करने के हों।
कई बार लोगों की बात सुनकर लगता है कि आखिरकार लोग इतने कैसे ऊब सकते हैं? जिस घर में बचपन बीता, जिस घर में चलना सीखा, जिस घर के पेड़ों के नीचे बैठना सीखा और जिस घर ने हमें बनाया, उस घर से इतनी जल्दी कैसे कोई ऊब सकता है?
दीवारों की पुरानी यादों से बातें करना, जामुन के पेड़ के नीचे गुज़रे बचपन को निहारना, वो बड़े वाले पेड़ के झूले पर खुद को देखना और शाम की ठंडी हवा में छत पर बचपन खोजना। क्या ये सारे काम आदमी को ‘बोर’ करते हैं? मुझे तो बिल्कुल भी नहीं करते। पुरानी यादों को सहेजने के साथ-साथ नई यादें बनाना भी एक बेहतर तरीका है।
लॉकडाउन में आप ‘खुद’ को खोज सकते हैं, जो शायद कई बरस पहले आप थे। तो यह एक सफर है खुद को खोजने का और खुद को जानने का। बस यही है लॉकडाउन।