कोरोनाकाल, एक ऐसा काल जिसने इंसान के भविष्य की परिभाषा को कुछ इस तरह से बदलकर रख दिया कि जिस जगह वह सालों से रहता हुआ आया, उस जगह को वह छोड़ते हुए घबराया नहीं क्योंकि उसने माना की जान है तो जहान है।
इस लॉकडाउन में मूलभूत आवश्यकताएं भेंट चढ़ गई हैं
एक महीने का लॉकडाउन, दो फिर तीन महीने का लॉकडाउन, इस लॉकडाउन में क्या इंसान वाकई में अपने परिवार के नज़दीक आ पाया है, क्योंकि इंसान की जो भूलभूत आवश्यकतायें थी वो इन लॉकाडाउन के चलते भेट चढ़ गईं।
इंसान परिवार के साथ कैसे खुशी के पल बिताएगा? उसे तो अपने आने वाले समय के लिए फिक्र हो रही है कि बड़ी मुश्किल से इस प्रतियोगिता भरे बाज़ार में उसने अपने पैरों को जमाना शुरु कर दिया था कि अचानक इस वायरस ने आकर सब कुछ निगल लिया।
जहां से शुरू किया था फिर वहीं आकर खड़े हो गए हैं
उसे फिर वहीं लाकर पटक दिया जहां से उसने शुरुआत की थी। उसकी नौकरी जा चुकी है, जहां रहता है, वहां की छत का भी भरोसा नहीं कि कब उसके सर से छिन जाए।
क्योंकि इस काल में इंसान ने फिजिकली सोशल डिसटेंसिंग के नाम पर अपनों के साथ ही भावनात्मक दूरी भी बना ली है।
इस कोरोना का प्रभाव हमारे जीवन पर सदैव दिखाई देगा
यह सही कहा गया है कि इस कोरोना काल का असर हमेशा रहेगा पर इसलिए नहीं कि इस महामारी में जो अपने बिछड़े उनके दुःख में बल्कि इसलिए कि जो अपने थे वो इस महामारी के कारण कोसों दूर हो गए।
हालचाल लेना तो बस एक औपचारिकता भर रह गई है, ताकि जिस दिन हमे यह विशवास हो जाए कि हम बाहर निकले और सुरक्षित रहेंगे तब हम उन औपचारिकताओं भरे रिश्तों को कह सके की देखो उन भयानक परिस्थितियों में भी हम तुम्हें नहीं भूले।
इस कोरोनाकाल में इंसानियत की भी पहचान हुई है
जाते-जाते यह वायरस इंसानी रिश्तों पर एक ऐसी मार करके गया है कि जो सालों हीं नहीं जिंदगी भर याद रहेंगी। क्योंकि यह कहना सही है कि इंसान की पहचान उसके बुरे वक्त पर होती है पर अब यही कहा जाएगा कि इंसनियत की पहचान कोरोना काल में हुई।
जहां इंसान ने जी भर के अनाज बांटकर अपनी तस्वीेर खिंचवाई और संदेश दिया कि इस मुसीबत की घड़ी में हम साथ हैं पर कैसे? वो तो जानते हैं सब।
कोरोनाकाल में जीने की आदत डालना ना डालना वो आप पर निर्भर है पर अपने रिश्तों को सजो के रखना आप पर निर्भर है, क्योंकि कोरोना आकर चला जाएगा पर रिश्तों पर पड़ी फफूंदी कभी नहीं हटेगी उसे बाद में फेंकना ही पड़ता है।