शाम होने के साथ ही घर जाने का भी वक्त हो चला था। मेरे पति ने दोपहर को ही फोन करके बता दिया था, ‘शाम तक तैयार रहना, मैं लेने आ रहा हूं।’ मैंने फोन के बारे में किसी को नहीं बताया, शायद इसलिए क्योंकि मैं जाना ही नहीं चाहती थी। मगर मेरे चाहने ना चाहने से क्या होता है!
माँ टीवी देख रही थी तभी दरवाज़े पर नज़र गई, ‘नमस्ते! आ जाओ, अंदर आओ।’ उधर छोटी बहन अंदर से चिल्लाई, ‘अरे जीजाजी आ गए।’ थोड़ी देर में पिताजी भी ऑफिस से आ गए।
माँ चाय-पानी के साथ खातीरदारी करने लगी, छोटी बहन हमेशा की तरह मेरा सामान पैक करने लग गई। माँ ने मेरा चेहरा तो पढ़ लिया था लेकिन बेटी की खुशी से ज़्यादा ज़रूरी था यह सोचना कि नहीं गई तो लोग कहेंगे, ‘लेने आए थे और दामाद को खाली हाथ भेज दिया। अब आ गए तो बिना लिए जा नही सकते ना।’ शादी को डेढ़ साल से उपर हो गए लेकिन अभी भी ससुराल पराया ही लगता हैं और पति भी!
समझ नहीं आता पीहर में बोलते हैं अब यह तेरा घर नहीं है। ससुराल ही तेरा घर है, फिर ससुराल में भी तो मेरे साथ पराये जेसा व्यवहार किया जाता है। वहां भी मुझे अपना नहीं समझते, मैं दूसरे घर की बेटी हूं। यह सवाल आज भी मन में है कि मेरा घर कौन सा है?
पीहर और ससुराल के बीच 20 मिनट का ही फासला है, ससुराल पहुंचकर फोन किया कि पहुंच गई तब बहन ने बताया, ‘माँ बहुत रो रही थी कि बेटी पिताजी के पांव नहीं छू कर गई।’ बहन ने बोला भुल गई होगी।
मैंने भी बहन को सच नहीं बताया बस बोल दिया गुस्से में थी और फिर से मन की बात मन में ही रह गई। अब उसे कैसे बताती कि पांव छूने के लिए अगर मैं झुकती तब पिताजी मेरे सिर पर आशिर्वाद देने के लिए हाथ रखते और जैसे ही वौ हमदर्दी भरी नज़रों से मुझे देखते, मेरे मन के अंदर जो सवाल थे, वह इन आँखों से आंसू बन कर बहने लग जाते।
उनके सामने कमज़ोर नहीं पड़ना चाहती थी, क्योंकि मैं कमज़ोर पड़ गई तो उनका क्या होगा? मैं आखिरकार घर की बड़ी बेटी हूं। शायद इसलिए अपने आंसुओं को मैंने गुस्से का रूप देना उचित समझा और भारी मन के साथ ससुराल आ गई।
फोन काटने के बाद फिर से सवालों में उलझ गई, आखिर क्यों??? क्यों मुझे ना चाहते हुए भी घर छोड़ कर जाना पड़ता है? क्यों मुझे अपने ही माँ-बाप से मिलने के लिए किसी और से पूछना पड़ता है? क्यों अब मेरे खुद के फैसले लेने के लिए माँ-बाप से नहीं बल्कि पति से पूछना पड़ता हैं? क्या अब मेरी ज़िन्दगी पर मेरे माँ-बाप और मुझसे भी ज़्यादा हक उनका हो गया है?
यह हक उनको दिया किसने? यह ज़िन्दगी मेरी है। हमारे संविधान ने भले ही हमें स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार दिया हुआ है लेकिन लड़की होने के कारण हमसे समाज ने शायद यह अधिकार भी छीन लिया है।
पिताजी से बस यही शिकायत है कि 26 साल की उम्र तक जब आपने अपने फैसले खुद लेना सिखाया था और साथ ही साथ तमाम तरह की आज़ादी भी दी थी, फिर अब क्या हो गया? अब मेरी ज़िन्दगी का मालिक कोई और केसे हो गया? जबकि इतना हक तो कभी आपने भी नहीं जताया।
आखिर क्यों इतना पराया कर दिया? क्यों मेरे गुस्से के अंदर के दर्द को नहीं पहचान पाए? मुझे आपकी दुआएं और आपका साथ भी चाहिए जैसे हमेशा आप देते आए हो! आपके बिना मैं इस समाज से तो क्या, अपने आप से भी नहीं लड़ सकती।
नोट: तस्वीर प्रतीकात्मक है। फोटो साभार: Flickr