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“बचपन में अच्छे अंक के लिए औरों से की तुलना ने मुझे डरपोक बना दिया”

मैं एक ऐसे समाज या ये कहूं कि एक ऐसे परिवार से आती हूं, जहां बच्चे की परीक्षा के नंबर या उसकी इंटेलीजेंसी ही परिवार में उसकी महत्ता तय करती है। अगर कोई रिश्तेदार घर आ जाए तब वो ये नहीं पूछता कि “बेटा, कैसे हो?” वो सबसे पहले ये पूछता है कि “बेटा, पढ़ाई कैसी चल रही है?”

शायद इसीलिए अच्छे नंबर लाने का दबाव हमेशा से ही मुझ पर हावी रहा, बचपन से ही मेरी तुलना मेरे भाई-बहनों और पड़ोसियों के बच्चों से होती आई है। पैरेंट्स भी यही चाहते हैं कि हमेशा अच्छे नंबर आएं।  खैर! अब परिस्थितियां और थोड़ी जागरूकता बढ़ने से उनकी ओर से ये दवाब कुछ  कम हो गया है मगर पूरी तरह से अभी भी खत्म नहीं हुआ है।

बचपन में घर से स्कूल तक सवालों से घिरी होती थी मैं

बचपन में हमेशा परीक्षा देकर आने के बाद मम्मी-पापा दोनों को ही पेपर के बारे में बताना होता था। “इस प्रश्न के उत्तर में क्या लिखा?”, “कौन-सा प्रश्न नहीं आया?”, ” कौन-सा उत्तर लिखने से छूट गया ?” सब कुछ।

अगर कभी पेपर समय से पहले पूरा हो गया और घर ज़ल्दी आ गई तो पापा पूछते थे, “बेटा जल्दी घर क्यों आ गई?”वही, अगर गलती से कोई प्रश्न गलत हो गया तो फिर डांट भी सुनने को मिलती थी और  यही कारण था कि पेपर में कोई प्रश्न नहीं आने पर मैं रोने तक लग जाती थी। परीक्षा में रोते हुए किसी को मेरे आंसू न दिखें इसलिए रूमाल ले जाना कभी नहीं भूलती थी।

जब मैं पांचवीं कक्षा में थी,तब मैंने अर्धवार्षिक परीक्षा में गणित विषय की जगह हिंदी विषय की तैयारी कर ली। जैसे ही पेपर देखा, मैं घबरा गई क्योंकि दो प्रश्न मुझे नहीं आ रहे थे। वो प्रश्न कुल 8 अंक के थे, तब मेरे मन में तमाम प्रकार के विचार आने लगे।

अब क्या होगा? घर पर डांट पड़ेगी। क्लास में मेरी रैंक पीछे हो जाएगी।  इसके बाद मैंने रोते हुए वो पेपर पूरा किया और शुरुआत में बर्बाद हुए समय की वज़ह से एक प्रश्न छूट भी गया।

उस घटना के बाद से तो आज तक, मैं अपनी परीक्षा का टाइम- टेबल स्टडी टेबल के ऊपर वाली दीवार पर चिपकाती आई हूं, ताकि वो गलती दोबारा ना हो जाए।

बचपन में ज़्यादा नंबर लाने का दबाव अब डर बन गया

हालांकि वो बचपन था, जहां मेरे ऊपर अच्छे नंबर लाने का मानसिक दवाब था लेकिन आज पैरेंट्स तो ज़्यादा कुछ नहीं बोलते मगर अब शायद नंबर कम आना मुझे भी पसंद नहीं इसलिए जिस दिन परीक्षा होती है, उस रात मुझे नींद ही नहीं आती है शायद ये बचपन में मेरे पैरेंट्स से अनजाने में हुई गलती का ही परिणाम है।

मगर मैं  मानती हुं इसमें पूरी तरह गलती मेरे पैरेंट्स की भी नहीं है। दरअसल, ग़लती उस समाज की है जिसमें हम रहते हैं । जिसका दबाव कहीं न कहीं हमारे पैरेंट्स पर भी होता है।

क्लास में भी बच्चे को उसकी बुद्धिमता के अनुसार आंका जाता है इसलिए पेरेंट्स को भी लगता है कि उनका बच्चा भी पढ़-लिख कर तरक्की करे। उसे अपने जीवन में कोई परेशानी ना हो। समाज में उसको भी अहमियत मिले।

आत्महत्या में बदलता अंकों का तनाव

वहीं, आजकल तो परीक्षा परिणाम आने पर  पेैरेंट्स अपने बच्चों के अच्छे अंको को सोशल मीडिया पर डाल देते हैं। नाते-रिश्तेदारों को बताते हैं और इस कल्चर के चलते वहीं किसी बच्चे के नंबर कम आने पर उसके माता-पिता लज्जित महसूस करते हैं। लोगों से बच्चों के अंक छिपाने का प्रयास करते हैं, जिसके चलते कभी-कभी तो तनाव में आकर कई बच्चे आत्महत्या तक कर लेते हैं।

काश! समाज ये सोच पाने में सक्षम हो पाता कि बच्चे के अंक ही सिर्फ़ मायने नहीं रखते बल्कि मायने यह रखता है की उसमें समझ का स्तर क्या है?  उसने उस शिक्षा से कितना ज्ञान अर्जित किया है।

बेहतर होता वे किताबी ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान को महत्व दे पाते लेकिन उनके आस-पास का वातावरण उन्हें इसकी इज़ाजत नहीं देता है। पैरेंट्स के खुद चाहे कम अंक आए हों, वे कभी परीक्षा में फेल भी हुए हों लेकिन वे हमेशा यही चाहते हैं कि उनके बच्चों के अंक हमेशा अच्छे आएं।

अभी इस ओर थोड़ा सा बदलाव आना शुरू हुआ है।  जब स्कूल और पैरेंट्स बच्चे के अंकों को नहीं बल्कि उसकी समझ के स्तर को देख रहें हैं लेकिन अभी भी वो वक्त नहीं आया है, जब पूरा समाज उसे उसके अंकों के आधार पर नहीं बल्कि उसे उसकी समझ के आधार में  आंके, इस ओर अभी बहुत बदलाव लाना बाकी है। इसका बीज अंकुरित हो गया है पर इसका फल मिलना अभी बाकी है।

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