कबीर सिंह के गुस्से में दिक्कत नहीं है। दिक्कत कबीर सिंह के प्रेम में है। कबीर (शाहिद कपूर) का गुस्सा आपको आग की तरह लगता है। जो पवित्र है मगर पास आने पर जला भी देता है।
हम सभी ने अपने जीवन में कबीर सिंह जैसे किरदार देखे हैं। जो मुंहफट होते हैं। गुस्सैल होते हैं। पल में भड़क जाते हैं और पल में पानी हो जाते हैं लेकिन कोई एक चीज़ होती है, जो उन्हें बुरा नहीं बनने देती। वह चीज है कुछ उसूलों के प्रति उनका कमिटमेंट।
कबीर टूटता है लेकिन ज़िद्द नहीं छोड़ता
कबीर सिंह खरा है। गलत बर्दाश्त ना करने के चक्कर में खुद गलत बन जाता है। फुटबाल खेलते समय मारपीट कर बैठता है। वह सबसे कहता है कि प्रीति (कियारा आडवाणी) मेरी बंदी है मगर प्रीति से ऐसा कुछ नहीं कहता। वह अपने प्रोफेशन के प्रति कमिटेड है। वह माफी नहीं मांगता। वह गलत तरीके से खुद को सही नहीं साबित करना चाहता और हर बार और गलत होता चला जाता है।
वह टूटता चला जाता है मगर ज़िद्द नहीं छोड़ता। मगर कबीर का यह कमिटमेंट सोशल नहीं है। वह उसका निजी कमिटमेंट है। वह उस लड़की के लिए खुद को तबाह करने लगता है जिससे उसने प्रेम किया है। अब जब उसका प्रेम सामने आता है, तो बहुत सारी दिक्कतें भी नज़र आती हैं।
अपनी प्रेमिका प्रीति के साथ कबीर सिंह की केमेस्ट्री ठीक वैसी है जैसे लोककथाओं में राक्षस की जान किसी मासूम तोते में होती थी।
हालांकि व्यावहारिक रूप से यह केमेस्ट्री बिल्कुल गलत नहीं है। यह अक्सर होता है कि एक वाचाल लड़की किसी खामोश लड़के के प्रेम में पड़ जाती है या कोई अराजक लड़का किसी धैर्यवान लड़की के, क्योंकि दोनों एक-दूसरे के अधूरेपन को भरते हैं। एक के भीतर उमड़ती-घुमड़ती अराजकता दूसरे की प्रशांति में समाहित हो जाती है। जैसे उफान खाती नदियां सागर में पहुंचकर शांत हो जाती हैं लेकिन प्रीति यहां कबीर सिंह की पूरक नहीं बन पाती। उससे बेहतर पूरक तो उसकी दादी, उसका भाई और उसका दोस्त हैं।
कबीर की प्रीति एक सजावटी गुड़िया से ज़्यादा कुछ नहीं
प्रीति इस कहानी में सचमुच एक सजावटी गुड़िया है। वह एक गुड़िया से बेहतर बन सकती थी। हमारी सोसाइटी में प्रीति जैसी बहुत सी लड़कियां मिल जाएंगी, जिन्हें एक अराजक उद्दंड लड़का प्यार करे और वे इस पर इतराएं। ऐसा लड़का उन लड़कियों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा देता है, जिनको हमारी सोसाइटी और घर-परिवार एक खास कंडीशनिंग के तहत ‘लड़की जैसा’ बनाते हैं लेकिन वे लड़कियां नायिकाएं नहीं हैं।
जब दो लोग मिलते हैं, जुड़ते हैं, एक रिश्ते में आते हैं तो वे तेज़ी से ट्रांस्फार्म हो रहे होते हैं। यदि वे ट्रांस्फार्म ना हो रहे हों, तो रिश्ता बेजान और नीरस होकर मर जाएगा। खत्म हो जाएगा। शादियों के बाद रिश्ते इसी तरह खत्म होते हैं, क्योंकि दोनों में कोई एक-दूसरे को बदलने नहीं देना चाहता। बदलाव का स्वागत नहीं करना चाहता, मगर कबीर प्रीति से मिलने के बाद बदल रहा है।
एक मरखने बैल के भीतर कोमलता आ रही है लेकिन प्रीति क्यों नहीं बदल रही है? फिल्म के आरंभ में वह एक जूनियर छात्रा की तरह डरी-सहमी थी मगर बाद में वह मुखर क्यों नहीं हुई। उसकी सहेलियां कहां हैं? उसकी कोई डिमांड क्यों नहीं है? वह कबीर से ज़िद्द क्यों नहीं करती? वह अपने आंसुओं और अपनी मुस्कान से कबीर को चकरघिन्नी क्यों नहीं बनाती? फिल्म इस क्यों का जवाब नहीं देती।
इतनी घरेलू और कम ग्लैमरस तो 30 साल पहले आई ‘मैंने प्यार किया’ की भाग्यश्री भी ना लगी थीं। दुपट्टा ठीक करने को तो अब कस्बों के लड़के नहीं कहते तो एक मेडिकल का स्टूडेंट एक मेडिकल छात्रा से क्यों कहता है?
दरअसल फिल्म कबीर सिंह के गुस्से और प्रेम को जिस तरीके से स्टैब्लिश करती है वो एक पितृसत्तात्मक मानसिक बुनावट को संतुष्ट करता है। हालांकि कबीर खुद ऐसा नहीं है। वह एक ऐसा नायक है जो अपनी बहुत सी बुराइयों और अच्छाइयों को खुद नहीं जानता। वह इतना अनप्रडिक्टेबल है, इसीलिए सच्चा सा लगने लगता है और हम उसकी कहानी को बंधे देखते रहते हैं। हम सोच नहीं पाते कि वह क्या करेगा और क्या फैसले लेगा?
वास्तविक त्रासदी पर फिल्मी अंत
कबीर के फिक्सड पैटर्न से हमें धीरे-धीरे पता लगने लगता है कि इसके फैसले लेने में भी एक खास पैटर्न है। वह पैटर्न उसके किरदार को खोल रहा है। यह फिल्म अपने श्रेष्ठतम रूप में तब आती है जब हम उसे सारे पैसे खत्म होने और फ्लैट से निकाले जाने के बाद अपने कुत्ते के साथ एक गंदी सी बस्ती में जाते देखते हैं। यह त्रासदी का चरम है।
ग्रीक त्रासदियों के नायकों के भीतर ही उनकी बरबादी के बीज छिपे होते थे। वे अनजाने में ऐसे फैसले लेते जाते थे कि उनका बनाया संसार धीरे-धीरे ध्वस्त होता चला जाता था और वे एक दुखद अंत की तरफ बढ़ते जाते थे। लेकिन यहां इतना सब कुछ हो जाने के बाद निर्देशक को एक फिल्मी अंत चाहिए था। उसे सब कुछ सुधारने की जल्दीबाज़ी थी।
फिल्म का अंतिम हिस्सा इसका सबसे कमज़ोर हिस्सा है। कबीर का किरदार उसके प्रेम को जिस ऊंचाई तक ले जाता है अंत में दिखाया गया जस्टिफिकेशन उसे ज़मीन पर ला गिराता है।
कबीर का प्रेम एक बड़े सैक्रिफाइस की मांग कर रहा था। जिसके लिए वह किरदार तैयार हो रहा था। वह विवाहित प्रीति के उस बेटे का पिता तक बनने को तैयार हो जाता है, जो उसका नहीं है। कबीर प्रेम के आगे किसी सामाजिकता, किसी परंपरा, किसी वैल्यू को वजन नहीं देता। काश वह इसी सोच में आगे बढ़ गया होता। शायद ऐसा होता तो यह एक उदात्त फिल्म होती।
कबीर का एक ऑर्डिनरी वर्ल्ड से स्पेशल वर्ल्ड में जाना तो बखूबी दिखाया गया है, मगर वहां से उसकी वापसी को झटपट समेट दिया गया है। जो भी हो फिल्म कबीर सिंह की इसी कहानी के काफी बेहतर ढंग से कहती है। फिल्म सफल भी इसीलिए है। भारतीय मध्यवर्ग सारे विद्रोह और क्रांतिकारिता से अपने घर की चाहरदीवारी को अछूता रखना चाहता है।
दुर्भाग्य से यह फिल्म भी ऐसा ही करती है।