बचपन में सातवीं-आठवीं जमात में विज्ञान की किताब द्वारा पढ़ने को मिला कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। वे भी सांस लेते और छोड़ते हैं। यही नहीं, सूर्य की किरणों के प्रकाश में पेड़ अपना भोजन भी बनाते हैं।
सच कहूं तो सर चकरा गया। समझ में नहीं आने पर ये बातें स्कूल टीचर तक जा पहुंची लेकिन उनके पास यह बताने के लिए समाधान नहीं थे कि क्या पेड़ों को लेकर किताबों में लिखी ये बातें सच हैं या नहीं?
पेड़ों के प्रति उत्सुकता ने जगदीश चंद्र बोस को जानने का अवसर दिया
मेरे शिक्षक ने पेड़ों को लेकर शोध करने वाले जगदीश चंद्र बोस से परिचय ज़रूर करवा दिया मगर मेरे पास रट्टा मारकर समझने के अलावा कोई चारा नहीं था। ज़ाहिर है कि हमारे स्कूल में भी उस तरह की पढ़ाई के लिए प्रेरित नहीं किया जाता था ताकि हम जिज्ञासु बनें।
बाद के दिनों में बेहतर किताबों के संगत में ना सिर्फ जगदीश चंद्र बोस के इस रिर्सच को जाना, बल्कि इस बात की भी जानकारी मिली कि वनस्पति शास्त्र के प्रोफेसर को रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स का जनक भी कहा जाता है। आज उनकी पुण्यतिथि है और आज से सात दिन पहले उनकी जन्मतिथि भी थी।
उनके द्वारा की गई रिसर्च उस ज़माने में हुई जब हम औपनिवेशिक गुलाम थे और आज़ादी के लिए कोई सोच भी ज़हन में नहीं थी। वह भारत के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने अमेरिकन पेटेंट प्राप्त किया। वह विज्ञान संबंधित कथाएं भी लिखते थे। उन्हें बंगाली विज्ञान कथा साहित्य का पिता कहा जाता है।
जगदीश चंद्र बोस का जन्म 30 नवबंर 1858 को हुआ था। भारतीय परम्पराओं और संस्कृति में आस्था रखने वाला परिवार चाहता था कि बोस अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषा का अध्ययन करने से पहले अपनी मातृभाषा बंगाली सीखें लेकिन उनकी रूचि शुरुआत से ही वनस्पति और भौतिक विज्ञान में ज़्यादा थी।
शोध के ज़रिये साबित किया कि पेड़-पौधों में भी जान होती है
आज के कोलकाता और उस दौर के कलकत्ता में सेंट जेवियर्स स्कूल से स्कूली शिक्षा लेने के बाद बोस ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक की डिग्री हासिल की फिर उन्होंने कैम्ब्रिज में दाखिला लिया और प्राकृतिक विज्ञान में भी बीएससी पूरी की।
लेकिन उन्हें स्वास्थ्य समस्या के कारण भारत वापस आना पड़ा फिर वह प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर बन गए लेकिन पेड़ों के प्रति लगाव हेतु उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी। पेड़-पौधे भी सांस लेते हैं, यह साबित करने के लिए वह शोध में लग गए।
उन्होंने क्रेस्कोग्राफ के ज़रिए पेड़-पौधों की प्रतिक्रिया रिकॉर्ड की। इस दौरान उन्होंने एक पौधे की जड़ ब्रोमाइड में डाली। पौधे की धड़कन स्क्रीन पर एक चिन्ह के रूप में दिख रही थी जिसे उपकरण के ज़रिए समझा गया। कुछ देर बाद ही यह अनियमित होने लगी। पौधे की जान दिखाने वाला चिन्ह कांपने लगा और अचानक रुक गया। अचानक रुक जाना इस बात का संकेत था कि पौधे की मौत हो चुकी है।
इसके साथ ही उन्होंने अपने प्रयोग से साबित कर दिया कि पेड़-पौधों में भी जान होती है। वे भी आम इंसनों की तरह सांस लेते हैं और उन्हें दर्द भी होता है। उनका यह प्रयोग देखकर वैज्ञानिक हैरान हो गए। पौधे में जीवन साबित करने वाला यह प्रयोग रॉयल सोसाइटी में हुआ और दुनिया बोस का लोहा मान गई।
रेडियो तरंगों द्वारा बेतार संचार का प्रदर्शन
उनके अन्य खोजों के लिए उन्हें रेडियो और माइक्रोवेव ऑप्टिक्स का जनक कहा जाता है। बोस ने 1885 में रेडियो तरंगों के माध्यम से बिना तार संचार का प्रदर्शन किया था।
उन्होंने रिमोट वायरलेस सिग्नल लाने के साथ ही वायरलेस दूरसंचार की शुरुआत की थी। 1893 में निकोला टेस्ला ने पहले सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया।
निबंध ‘अदृश्य आलोक’ का लेखन
नवम्बर 1894 में टेस्ला द्वारा सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किए जाने के एक साल बाद कोलकाता में सार्वजनिक प्रदर्शन के दौरान बोस ने एक बंगाली निबंध ‘अदृश्य आलोक’ में सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन किया।
इस बंगाली निबंध के मुताबिक अदृश्य प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों और भवनों आदि के भीतर से जा सकती है। इसलिए तार के बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचारित हो सकता है।
बोस ने ‘डबल अपवर्तक क्रिस्टल’ द्वारा बिजली की किरणों के ध्रुवीकरण पर पहला वैज्ञानिक लेख लिखा। उन्होंने सार्वजनिक रेडियो संचार का प्रदर्शन भी किया। लेख को एक साल के भीतर मई 1895 में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को भेजा गया था। जबकि उनका दूसरा लेख अक्टूबर 1895 में लंदन की रॉयल सोसाइटी को लॉर्ड रेले द्वारा भेजा गया।
दिसम्बर 1895 में लंदन पत्रिका इलेक्ट्रीशियन (36 Vol) ने बोस का लेख एक नए इलेक्ट्रो-पोलेरीस्कोप पर प्रकाशित किया। उस समय अंग्रेज़ी बोलने वाली दुनिया में लॉज द्वारा गढ़े गए शब्द ‘कोहिरर’ का प्रयोग हर्ट्ज़ के तरंग रिसीवर या डिटेक्टर के लिए किया जाता था। इलेक्ट्रीशियन ने तत्काल बोस के ‘कोहिरर’ पर टिप्पणी की।
अंग्रेज़ी पत्रिका इलेक्ट्रीशियन की टिप्पणी
अंग्रेज़ी पत्रिका के ज़रिये टिप्पणी करते हुए कहा गया,
यदि प्रोफेसर बोस अपने कोहिरर को बेहतरीन बनाने और पेटेंट करने में सफल होते हैं, तब हम शीघ्र ही एक बंगाली वैज्ञानिक के प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रयोगशाला में अकेले शोध के कारण नौ-परिवहन की तट प्रकाश व्यवस्था में नई क्रांति देखेंगे।
बोस ने अपने कोहिरर को बेहतर करने की योजना बनाई लेकिन पेटेंट के बारे में कभी नहीं सोचा।
1917 में बोस को नाइट की उपाधि मिली। इतना ही नहीं, बोस रॉयल सोसाइटी लंदन के फेलो भी चुने गए थे। 23 नवंबर 1937 को जगदीश चंद्र बोस ने दुनिया को अलविदा कह दिया था।
बोस ने अपने पूरे शोधकार्य को बिना किसी अच्छे उपकरण और प्रयोगशाला के ही अंजाम दिया था। इसलिए जगदीश चंद्र बोस एक अच्छी प्रयोगशाला बनाने की सोच रहे थे। ‘बोस विज्ञान संस्थान’ इसी सोच का परिणाम है, जो कि विज्ञान में शोधकार्य के लिए राष्ट्र का एक प्रसिद्ध केन्द्र है। भारत के पहले वैज्ञानिक और उनके कामों के बारे में लोगों को जानना चाहिए।
नोट: लेख में प्रयोग किए गए तथ्य जगदीश चंद्र बोस की किताब “Response In The Living and Non-Living” से लिए गए हैं।