अब यह बहुत ही विचारणीय हो गया है कि इस देश में शासन, आस्था द्वारा संचालित होगा या संविधान द्वारा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आस्था को लेकर काफी उग्र होता जा रहा है, यहां तक कि संसद और न्यायपालिका भी नियम बनाने में, निर्णय करने में आस्था की बात कहकर किसी कुरीति या कुप्रथा पर मानवीय दृष्टिकोण से जो उचित हो वह निर्णय ना दे तो यह चिंतनीय विषय है।
यदि यही दशा रही तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आस्था को लेकर ही संघर्षरत रहेगा और दूसरे बुनियादी मुद्दे विलुप्त हो जायेंगे।
किसी भी कीमत पर आस्था की संविधान पर जीत नहीं होनी चाहिए। बल्कि संविधान की जीत आस्था पर होनी चाहिए।
किसी भी कीमत पर मनु स्मृति को आस्था के नाम पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। ट्रिपल तलाक को किसी भी प्रकार से आस्था के नाम स्वीकारा नहीं जाना चाहिए। शरीयत किसी भी कीमत पर आस्था के नाम पर नहीं थोपी जानी चाहिए। सल्लेखना जैसी प्रथा किसी भी कीमत पर आस्था के नाम पर स्वीकार नहीं की जानी चाहिए।
यदि संविधान का कोई अनुच्छेद आस्था के नाम पर उचित न्याय करने में बाधा बन रहा हो तो उसमें भी संशोधन करने की आवश्यकता है। कोई भी प्रथा कोई भी नियम जो असमानता, शोषण का पोषक हो उसे आस्था के नाम पर स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
एक देश, एक संविधान ही सर्वोपरि होना चाहिए। यूनिफॉर्म सिविल कोड पूरे देश में लागू करने का प्रयास होना चाहिए। यदि सवर्ण यह कहते हैं कि अस्पृश्यता का उन्मूलन नहीं होना चाहिए, यह हज़ारों सालों से चली आ रही, हमारी आस्था का विषय है, तो क्या आज जो काफी हद तक सामाजिक सुधार हुए हैं वह सम्भव हो पाते?
इस आधार पर किसी प्रथा को नहीं स्वीकार किया जा सकता कि इससे हमारे यहां बहुत कम लोग पीड़ित हैं। ऐसे तो देखा जाय तो भारत में जनसंख्या की तुलना में अपराधियों की संख्या बहुत ही कम है तो क्या अपराध पर नियंत्रण लगाने की बात नहीं होनी चाहिए? अपराध को नियंत्रित करने के लिए कोई नियम नहीं बनने चाहिए?
अन्याय, अन्याय है चाहे किसी एक के साथ हो या अनेक लोगों के साथ हो। किसी भी कीमत पर अन्याय स्वीकार नहीं होना चाहिए। यदि भारत में इस पर विचार नहीं किया गया तो उसकी भी दशा पाकिस्तान सरीखी होगी जैसा कि जियाउल हक ने आस्था और धर्म की आड़ में सऊदी अरब की सहायता से पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया।
आस्था, धर्म (अध्यात्म) व्यक्तिगत मामला है। इसको पूरे समूह पर थोपना किसी प्रकार से जायज नहीं है। आस्था के नाम पर हिन्दू पर्सनल लॉ, मुस्लिम पर्सनल लॉ, ईसाई पर्सनल लॉ या इस तरह का कोई भी पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं होना चाहिए।
यह देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया किसी पर्सनल लॉ से नहीं चलनी चाहिए। पर्सनल को पर्सनल ही रखें। स्त्रियां सदियों से घरों में, पर्दे में रहती आ रही हैं, यह बहुत पुरानी प्रथा है। क्या इसको सिर्फ इस आधार पर स्वीकार कर लेना चाहिए?
ऐसा ही कुछ तर्क किसी पंडित ने राजा राममोहन राय को सती प्रथा के सन्दर्भ में दिया था कि हज़ारों साल से सती प्रथा चली आ रही है, इसलिए यह जारी रहना चाहिए। यदि निर्णय का आधार आस्था और धर्म ही हो जाये तो फिर संविधान की आवश्यकता ही क्या है?