देश में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए परीक्षा करवाने को लेकर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दिशानिर्देशों ने एक बहस शुरू कर दी है। इस बहस का केंद्र बिंदु है शिक्षा की गुणवत्ता; क्या परीक्षा ही एकमात्र तरीका है गुणवत्ता तय करने का। एक लम्बी अनिश्चिता के दौर के बाद UGC ने यह आदेश दिए है वह भी उस समय जब देश के बहुत से राज्यों में महाविद्यालयों ने बिना परीक्षा के छात्रों के परिणाम घोषित करने के तरीके तय कर लिए थे और छात्र भी अगली कक्षाओं में प्रवेश की तैयारी में जुट गए थे।
यह सबको विदित है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 6 जुलाई को एक नोटिस में देश के सभी महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अंतिम सेमेस्टर (टर्मिनल) में पढ़ रहे सभी छात्रों के लिए परीक्षा आयोजित करने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि कोरोना काल में संक्रमण से बचने के लिए तमाम शिक्षण संस्थान मार्च महीने से ही बंद है और टर्मिनल क्लास के छात्रों को छोड़ कर सभी छात्रों को (स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय) को बिना परीक्षा के अगली कक्षा में पदोन्नत किया गया है। यहां हम इस निर्णय पर चर्चा नहीं करेंगे, इस मुद्दे पर बहुत कुछ पहले ही लिखा/बोला जा चुका है।
लेकिन यहां हम इस निर्णय से पैदा हुई बहस ‘शिक्षा की गुणवत्ता’ पर चर्चा करेंगे क्योंकि UGC सहित कई लोगो का तर्क है कि गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं किया जा सकता, प्रश्न यही है कि गुणवत्ता क्या है और कैसे सुनाश्चित की जा सकती है। दिक्कत ये है कि जिन्हें इसका उत्तर-निर्धारण करना है, वो खुद भी इसी व्यवस्था की देन हैं जो रचनात्मकता को उपजाने नहीं, मारने पर ज़ोर देती है।
शिक्षा की गुणवत्ता और उसके निर्माण कि सीढ़ियां
शिक्षा की गुणवत्ता सबके लिए अलग होती है । कई लोग इसे परिणामों में खोजते है और कई शिक्षा की प्रक्रिया में। एक अच्छा अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता अध्यापन-विज्ञान में देखता है और इसे कक्षा में सिखने की प्रक्रिया व शिक्षाशास्त्र (pedagogy) के रूप में परिभाषित करता है । यह प्रक्रिया शिक्षार्थी के संज्ञानात्म, भावनात्मक और सामाजिक आधार को आलोचनात्मक सोच के नए आयाम पर ले जाता है ।
इस प्रक्रिया का परिणाम होता है एक नए और जटिल तरीके से सोचने की शक्ति जो छात्रों को स्वयं, समुदाय, दुनिया और ब्रह्मांड के बीच तालमेल बैठाने में सक्षम बनाती है। शिक्षा में ऐसी गुणवता सुनिश्चित करने का मकसद होगा शिक्षा कि प्रक्रिया को ठीक करना न कि केवल परिणाम की जांच करना। परीक्षाओं के लिए पढ़ना ही गुणवत्ता को खत्म करने की तरफ बढ़ना है।
भारतीय शिक्षा व्यवस्था और दम तोड़ती हुई विकास की अवस्था
यह भारतीय शिक्षा व्यवस्था की विडम्बना है जहां परीक्षा को ही गुणवता का एकमात्र मानक माना जाता है। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में शिक्षा को कितने सिमित दायरे में देखा जाता है। यहां छात्रों को सिखाने पर ज़ोर नहीं दिया जाता बल्कि उसने क्या नहीं सिखा यह जानने पर जोर दिया जाता है। जिसका मकसद उसमे सुधार करना कतई नहीं है।
वर्तमान समय में अंतिम वर्ष (टर्मिनल) के छात्रों के लिए परीक्षा पर जोर देना इसी सोच का परिणाम है। क्या कोई तीन घंटे की परीक्षा गुणवत्ता सुनाश्चित कर सकती है या फिर छात्रों को शिक्षा कैसे दी जाती है, वह प्रक्रिया क्या थी वह महतवपूर्ण है।
शिक्षा की गुणवत्ता जांचने के कई आयाम हैं
शिक्षा की गुणवत्ता के बहुत से आयाम है, छात्र क्या और कैसे सीख रहे है। क्या शिक्षा उनको समाज में जिम्मेवार नागरिक के रूप में विकसित कर रही है जो मानवीय गुणों को न केवल समझे बल्कि जीवन में उनका पालन करे।
कोई सेमेस्टर परीक्षा केवल यह आंक सकती है कि छात्रों को संविधान के बारे में जानकारी है की नहीं मसलन इसका लेखन कब हुआ, किसने किया, इसमें कितनी और कौन से धाराएं और अनुच्छेद है आदि परन्तु अगर छात्रों कि संवैधानिक मूल्यों के बारे में समाज का पता करना है तो यह एक सतत प्रक्रिया से ही हो सकता है।
वैसे भी इस दौर में हमारी सरकार छात्रों पर पाठ्यक्रम का बोझ को कम करने के नाम पर धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, नागरिकता, लोकतांत्रिक अधिकार, लिंग, धर्म, जाति और खाद्य सुरक्षा आदि विषयों पर अध्यायों को छात्रों का स्कूल पाठ्यक्रम से हटा रही है। जिस देश के शिक्षा मंत्री (मानव संसाधन विकद मंत्री) नागरिकता, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद पर अध्यायों को छात्रों पर बोझ मानता हो वहां की सरकार की गुणवत्ता की परिभाषा अलग ही होगी।
मूल्यांकन शिक्षा प्रणाली और भारतीय शिक्षा
मूल्यांकन शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब प्रभावी ढंग से डिजाइन किया जाता है, तो आकलन कई कार्य करते हैं –
- मूल्यांकन छात्रों को सीखने में मदद करने के लिए होते हैं।
- छात्रों को उनकी सीखने की प्रगति पर नज़र रखने के लिए होते हैं।
- इनका मकसद यह भी होता है कि यह नीति निर्धारको को भी बताये की छात्र शिक्षा से क्या हासिल कर रहे हैं और इस प्रक्रिया को मज़बूत करने के लिए क्या किया जा सकता है।
हमारे शिक्षा ढांचे में मूल्यांकन सामान्यता दो तरह के होते है, निर्माणात्मक (formative) और योगात्मक (Summative) मूल्यांकन। पहले तरह के मूल्यांकन में कक्षा में छात्रों का निरंतर आंकलन होता है कि क्या छात्र सही में सीख पा रहे हैं। उनको क्या दिक्कते आ रही हैं। छात्र के बेहतर सिखने के लिए अध्यापन प्रक्रिया और प्रणाली में क्या फेरबदल किये जा सकते हैं।
योगात्मक मूल्यांकन में आमतौर पर एक एक कार्यक्रम के अंत में कुछ निर्दिष्ट मानकों के तहत आयोजित किये जाते है। भारत में ज़्यादातर ज़ोर केवल योगात्मक (Summative) आकलन दिया जाता है न कि निर्माणात्मक (formative) मूल्यांकन पर। इसका मतलब है कि प्रयास शिक्षा प्रक्रिया में सुधार कर उसकी गुणवत्ता ऊपर उठाने का नहीं होता बल्कि केवल छात्रों को अंको के आधार पर श्रेणीबद्ध करना होता है।
हालांकि जरूरी नहीं कि जो छात्र परीक्षा में कम नंबर लाए वो कम जानता है, विडम्बना है कि हमारे शिक्षा पद्धति में परीक्षा को ही सफलता का मानक मान लिया गया है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब छात्रों के अंक बहुत अच्छे नहीं होते परन्तु वह न केवल अपने अपने क्षेत्रो में बहुत सफलता हासिल करते है बल्कि बौद्धिक ज्ञान के सृजन में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
भारत की शिक्षा प्रणाली केवल व्यावसायिक लाभ को देखती है
भारत की शिक्षा प्रणाली केवल व्यावसायिक लाभ को देखती है और छात्रों को केवल पैसे कमाने के मकसद को ध्यान रखकर प्रशिक्षित किया जाता है। पाठ्यक्रम भी एक परीक्षा पास करने और विशेष व्यवसायों में सफलता के लिए बनाया गया है। सीखना प्राथमिकता नहीं है। इसलिए छात्र ज्ञान अर्जित करने पर नहीं बल्कि केवल कुछ जानकारिय याद करने पर ज़ोर देते हैं जिससे परीक्षा पास कि जा सके।
निजीकरण ने शिक्षा की गुणवत्ता की गलत धारणा को और तेजी से आगे बढ़ाया है। निजी संस्थानों का तो पूरा ज़ोर ही परीक्षा परिणामों में ज्यादा अंक अर्जित करने पर होता है। इन निजी शिक्षण संस्थानों में चाहे कुछ न हो, चाहे कक्षा भी न होती हो, मूलभूत ढांचा भी न हो, लेकिन परिणाम बहुत अच्छे होते है। निजी स्कूलों में तो हालत ज्यदा खराब है। स्कूलों में अच्छे नंबर लाने की विशेष ट्रेनिंग दी लाती है केवल नंबर। यह संस्थान अपने अध्यापकों को स्पष्ट निर्देश देते है कि प्रबंधन का एकमात्र लक्ष्य है अच्छे परिणाम लाना चाहे कक्षा में असल पठन पाठन की प्रक्रिया ही गायब हो।
स्कूल शिक्षा के विभिन्न बोर्ड की परीक्षा परिणाम के बाद मीडिया और सोशल मीडिया में छात्रों की मेरिट लिस्ट व अंक प्रतिशत पर चर्चा एक अलग ही माहौल पैदा करता है। जहां अंको के प्रतिशत को ही शिक्षा की गुणवत्ता का पर्याय मान लिया गया है। देश के हर छोटे बड़े शहर में छात्रों के छवि के साथ लगे होर्डिंग्स इस समझ का व्यवसायिक फायदा उठाते है जहां छात्रों के अंको को गुणवता का मानक बताकर संस्थानों में दाखिले के लिए अभिभावकों को आकर्षित किया जाता है।
यह भी सच है और इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि प्रतियोगिता के इस दौर में परीक्षा विशेष तौर पर प्रतियोगिता परीक्षा का अपना महत्व है और छात्रों को इसके लिए तैयार करने की भी जरूरत है। लेकिन यह वास्तविक शिक्षा की कीमत पर नहीं हो सकता। शिक्षा का पहला मकसद तो केवल सिखाना, विषय को समझना और ज्ञान अर्जित करना होना चाहिए। हो यह रहा है कि किसी भी विषय के समूल ज्ञान और इसकी समझ की परवाह किये बिना कुछ बिन्दुयों पर ही ज़ोर दिया जाता है। जिससे परीक्षा में अच्छे नंबर लाये जाएं।
क्या सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया से ज्यादा महत्वपूर्ण है सेमेस्टर परीक्षा
लेकिन UG/ PG कक्षायों के लिए टर्मिनल परीक्षा पर इतना ज़ोर देना और छात्रों के जीवन तक को खतरे में डालना समझ से परे है। दूसरा पक्ष है कि क्या पिछले पांच/ तीन सेमेस्टर में छात्रों के मूल्यांकन से ज़्यादा महत्वपूर्ण है ‘अंतिम समेस्टर का मूल्यांकन’। क्या सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया से ज्यादा महत्वपूर्ण है समेस्टर परीक्षा? इन सवालों के जो उत्तर दिया जा रहा है, शिक्षा की अवधारणा और परीक्षा की हमारी अधूरी समझ का प्रतिफल है।
बहुत से विश्वविद्यालयों में हमारे शिक्षाविदों ने तो छात्रों को पास करने का फैसला ले लिया था जैसे पश्चिम बंगाल और दिल्ली में पिछली कक्षाओ में अर्जित अंको के अधर पर 70 प्रतिशत और इस वर्ष की आन्तरिक मूल्यांकन के आधार पर 25% मूल्यांकन तय किया गया था। ऐसे बहुत से विश्वविद्यालयों है और विश्वविद्यालयों में बहुत से कोर्से है जहां सामान्य परिस्थितयों में भी समेस्टर परीक्षा होती ही नहीं और केवल सतत मूल्यांकन की प्रक्रिया अपनाई जाती है तो क्या इन संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता कम हो जाती है नहीं अपितु यह संस्थान गुणवत्ता में बहुत ऊंचे आंके जाते हैं।
UGC इस निर्णय का शिक्षा की गुणवत्ता से कोई सरोकार नहीं है और न ही इससे गुणवत्ता में कोई सुधार होगा। इसके दो ही परिणाम होंगे, पहला अगर लिखित परीक्षा करवाई जाती है तो छात्र बीमारी की चपेट में आएंगे, कर्नाटक के SSLC की परीक्षा में ही 32 से ज्यादा छात्र वायरस की चपेट में आ गए थे। इसलिए लिखित परीक्षा की सम्भावना कम है। इसका मतलब है कि ऑनलाइन परीक्षा जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय ने कोर्ट में कहा है। इसके लिए 3 घंटे तक बिना किसी रूकावट के अच्छी इन्टरनेट सुविधा चाहिए, लैपटॉप या कंप्यूटर के साथ।
ऐसे देश में जहां अधिकतर छात्रों को उनके घरो में तीन घंटे तक बिना अशांति एक कोना खोजना असंभव है। वहां विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ऑनलाइन परीक्षा करवाने पर अड़ियल है वो भी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के तर्क के साथ। इसी से पता चलती है हमारी शिक्षा की गुणवता और नीतिनिर्धारको की शिक्षा के बारे में समझ। जो शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में सही समझ रखते हैं उनके लिए टर्मिनल एग्जाम कोई बड़ा मसला हो ही नहीं सकता।