शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों, संस्कृति, बोली, भाषा आदि के लोगों को जोड़ना है। शायद इसलिए प्रारम्भिक शिक्षा के माध्यम के रूप में क्षेत्रीय भाषाओं को उतना महत्त्व नहीं दिया जाता है। प्रारम्भिक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य स्टूडेंट्स को जीवन के लिए आवश्यक ज्ञान उपलब्ध कराना होता है, जो अलग-अलग क्षेत्रों एवं परिस्थितियों में भी उनके काम में आ सके और उन्हें आजीविका उपार्जित करने में उनकी मदद कर सके।
इसलिए भाषायी विभेद से उन्हें बचाकर एक राष्ट्रीय संस्कृति में जोड़ने का प्रावधान रखा गया है परंतु उच्च शिक्षा में परिस्थितियां भिन्न हो जाती हैं। जैसे ही स्टूडेंट यह समझने योग्य हो जाता है कि उसकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है, एक विशिष्ट बोली है, एक विशिष्ट भाषा है, तो उसकी शिक्षा का स्वरुप बदलने लगता है फिर शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं को महत्त्व मिलना शुरू हो जाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था का स्वरूप गहन सामूहिक विचार-विमर्श के पश्चात ही निर्धारित हुआ है, जो तार्किक और वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक, सभी कसौटियों पर खड़ी उतरती है।
जब हम यह देखते हैं कि हमारी यही शिक्षा-व्यवस्था ज़िम्मेदार युवाओं को तैयार करने में असफल हो रही है फिर यह महसूस होता है कि कहीं ना कहीं कोई गड़बड़ी तो ज़रूर है जिस पर या तो ध्यान नहीं दिया गया है, या ध्यान देने के बावजूद उसे सुधारने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई गई है। ऐसे में हमें हमारी शिक्षा-व्यवस्था के पुनरावलोकन की आवश्यकता दिखाई पड़ती है।
स्टूडेंट्स को किताबी शिक्षा की ओर धकेल दिया जाता है
मेरा व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि बच्चों को ‘क्या’ से पहले ‘क्यों’ बताना आवश्यक है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था में इस बात की घोर कमी नज़र आती है। विद्यालय में स्टूडेंट्स को उसके स्कूली जीवन के पहले ही दिन से किताबी पढ़ाई और परीक्षा-प्रणाली में धकेल दिया जाता है, जिससे वे ताउम्र बाहर नहीं निकल पाते हैं।
शुरुआती जीवन में सीखे गए ज्ञान का किसी भी व्यक्ति के जीवन पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ता है और यह कहना भी शायद गलत नहीं होगा कि यही ज्ञान उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है, बाद की पढ़ाई उसे एक निश्चित दिशा देने और जीवन को उपयुक्त आकार देने का कार्य करती है।
दूसरे शब्दों में हम इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि शुरुआती शिक्षा का सम्बन्ध हमारी नैतिकता से है जबकि बाद की शिक्षा का सम्बन्ध हमारी आजीविका से होता है। इसलिए ज़िम्मेदार युवा तैयार करने की ज़िम्मेदारी प्रारम्भिक शिक्षा व्यवस्था की ही होती है। अत: मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचता हूं कि समस्या हमारी शुरुआती शिक्षा प्रणाली में है और इसी कारण हमें पूरा ध्यान इसी ओर लगाकर इसे दुरूस्त करने की ज़रूरत है।
ज़रूरी है क्षेत्रीय भाषा का ख्याल रखना
बच्चों को ‘क्या पढ़ें?’ से पहले ‘क्यों पढ़ें?’ का ज्ञान देना आवश्यक है और बेहतर होगा कि यह ज्ञान उन्हें उस भाषा या बोली में दिया जाए जिसे उस समय वे सबसे बेहतर समझने की क्षमता रखते हैं, अर्थात जो उनकी अपनी क्षेत्रीय भाषा हो। पहले 1-2 वर्षों तक बच्चों को अनुशासन, स्वच्छता, कर्त्तव्य, और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए उन्हें सीखने के योग्य बनाया जाए।
उन्हें बताया जाए कि ज्ञान क्यों ज़रूरी है और किताबें हमारे जीवन में कैसा फर्क ला सकती हैं। किताबों को अचानक से उनके जीवन में उतारने की बजाय किताबों की कहानियां सुनाकर उनके मन में किताबों के प्रति प्रेम जगाया जाए। इस पूरे 1-2 वर्ष की अवधि को किसी भी प्रकार की लिखित परीक्षा से मुक्त रखा जाए और पढ़ाने की बजाय बच्चों को सिखाया जाए।
इस अवधि में उनकी चीज़ों से पहचान कराई जाए, उन्हें वर्णमाला के वर्णों और अंकों की पहचान सिखाई जाए। उनके बचपन को ज़िंदा रखते हुए, उनपर भारी-भारी बस्तों का बोझ डाले बगैर उनके नन्हें-नन्हें कंधों को मज़बूत बनाया जाए। उनसे विद्यालय की साफ-सफाई में मदद ली जाए, उनसे पौधे लगवाए जाएं, उन्हें एक-दूसरे का सहयोग करना सिखाया जाए। उन्हें अपने सामानों को सही ढंग से रखने और अपनी किताबों को सुरक्षित रखना सिखाया जाए।
मेरा यह भी विचार है कि शुरू के 1-2 वर्ष तक बच्चों की किताबें विद्यालय में ही रखी जानी चाहिए ताकि बच्चे विद्यालय जाते वक्त खुद को मुक्त महसूस कर सकें फिर 1-2 वर्ष के बाद जब वे सीखने के लिए तैयार हो जाएं, तब उन्हें औपचारिक शिक्षा की ओर मार्गदर्शित किया जा सके।यकीन मानिए, ऐसे बच्चों को पढ़ाना बेहद सरल और रोचक अनुभव होगा, क्योंकि उन्होंने जीवन का वह सबक अबतक सीख लिया होगा जिसे आज शिक्षा की समाप्ति पर भी युवा सीख पाने में सक्षम नहीं हो रहे हैं।
पैसे कमाकर जीवन शैली बदलने का ज़रिया नहीं है शिक्षा
क्या कभी हमने यह सोचने की ज़हमत उठाई है कि शिक्षित लोगों को भी हेलमेट पहनने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। क्या कारण है कि हमें शिक्षित लोगों को जल-संरक्षण और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए प्रेरित करना पड़ता है, क्या कारण है कि हमें लोगों से स्वच्छ रहने और अपने आस-पास को स्वच्छ रखने की अपील की जाती है, क्या कारण है कि शिक्षा का स्तर बढने के बावजूद सड़क-दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, क्या कारण है कि देश की जनसंख्या खतरनाक ढंग से बढ़ती जा रही है, क्या कारण है कि सार्वजनिक स्थानों पर भगदड़ बढ़ती जा रही है?
यह लिस्ट बहुत लंबी है और जवाब शायद आपके पास भी नहीं है परंतु मेरा दृढ विश्वास है कि मेरे सुझाये गए उपायों से हम भविष्य की पीढ़ियों को इस प्रकार तैयार कर सकते हैं कि उनमें सहयोग और सद्भाव की भावना का विकास हो सके और इन सब अनुत्तरित प्रश्नों के आसान उत्तर मिल सके।
बच्चों को इस मानसिकता से बाहर निकालना ज़रूरी है कि शिक्षा पैसे कमाकर जीवन-शैली बदलने का ज़रिया है। आज अपने आस-पास के माहौल से बच्चों में भौतिकतावादी सोच घर करती जा रही है और वे पैसे कमाना ही जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं।
आज हम देख सकते हैं कि वर्त्तमान पीढ़ी पैसे कमाने के उचित-अनुचित तरीकों का ख्याल नहीं करती है। यानि कि किसी भी तरह से केवल पैसे कमाना है। देश में बढ़ता हुआ आर्थिक अपराध इस दिशा में ही इंगित करता है। हमारी वर्त्तमान शिक्षा-व्यवस्था भी गला-काट प्रतिस्पर्धा को ही बल देती है और एक स्टूडेंट की मौलिकता को नष्ट कर देती है।
मैं अपनी सुझाई व्यवस्था को इस समस्या के हल के रूप में भी देखता हूं कयोंकि यह व्यवस्था एक स्टूडेंट की मौलिकता का सम्मान करती है और उसे उस भौतिकतावादी सोच से दूर करती है, जिसमें जीवन का केंद्र पैसा है। उम्मीद है कि यह व्यवस्था स्टूडेंट्स को उस मनोदशा के लिए भी तैयार करने में सक्षम होगी जिसमें उन्हें यह पता होगा कि पैसा क्यों कमाया जाए और पैसे को कैसे खर्च किया जाए।
उम्मीद करता हूं कि इस दिशा में गंभीरता से विचार कर मेरे सुझाव के गुण-दोषों को समझा जाएगा और एक उचित शिक्षा-प्रणाली का विकास किया जाएगा जो देश के भविष्य की राह प्रशस्त करने में समर्थ होगा।