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“मैंने अपने जीवन में माना कभी हार नहीं, क्योंकि मैं दिव्यांग नहीं”

मैं अपने शरीर से लाचार सही
लोगों की नज़रों में बेकार सही,
फिर भी मैंने अपने जीवन में माना कभी हार नहीं
क्योंकि मैं दिव्यांग नहीं।

 

कांटों की राहों को हमेशा फूलों की सेज समझ कर चला हूं
मुश्किलें कितनी भी हों फिर भी मुस्कुराते हुए बढ़ा हूं,
क्योंकि मैं बचपन से ही संघर्षों में पला हूं
इसलिए मेरी सफलता मेरे लिए कोई महान नहीं,
क्योंकि मैंने कभी खुद को समझा दिव्यांग नहीं।

 

ना नेताओं से मेरे भाषण हैं
ना राजाओं से सिंघासन हैं,
ना ऊंचे महल की आज़माइश है
थोड़ा प्यार मिले यह ख्वाहिश है।
मेरे कष्ट अंधेरे को जो दूर करे
ऐसा दीपक देदो चांद नहीं,
क्योंकि मैं दिव्यांग नहीं।

 

मुझे कड़ी धूप में चलने दो
थोड़ा और परिश्रम करने दो,
मैं पत्थर हूं चोटें खाने दो
मुझे मूरत तो बन जाने दो।
मुझे दुनिया को दिखलाने दो
सबको विश्वास दिलाने दो,
जो आप कर सकते हैं
मैं वो क्यों नहीं?
मैं भी इंसा हूं हैवान नहीं
क्योंकि मैं दिव्यांग नहीं।

 

अभी ना आलस से आराम करेंगे
जो आगे बढ़कर काम करेंगे,
औरों के लिए एक मिसाल बनेंगे
तो सब हमको भी सलाम करेंगे।
मैं उगते कल का सूरज हूं
कोई ढलती आज की शाम नहीं
क्योंकि मैं दिव्यांग नहीं।


Note: This poem has been written by Jayant Singh Raghav a JAF volunteer and a student of Delhi University.

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