राजकपूर ‘द शो मैन’ फिल्म जगत में उनके योगदान को भुला देना, जैसे भारतीय सिनेमा के एक युग को बिसरा देना है। वह एक दक्ष अभिनेता एवं समर्पित निर्देशक के रूप में जाने जाते हैं।
उन्हें भारतीय सिनेमा को ‘अवारा’, ‘श्री 420’ एवं ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी चिरसम्मत (क्लासिक) फिल्में देने का श्रेय जाता है। राजकपूर की ये तीनों ही फिल्में वास्तविकता को प्रतिबिंबित करती हुई चलती हैं। संयोगवश, तीनों ही फिल्मों का निर्देशन राजकपूर एवं लेखन ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा किया गया।
अवारा: निर्दयी समाज का आइना दिखाती फिल्म
1951 में आई फिल्म अवारा की कहानी समाज के उस परिप्रेक्ष्य को प्रस्तुत करती है, जिसमें किसी व्यक्ति की पहचान को उसके जन्म और परिवेश से ही निर्धारित कर दिया जाता है। फिल्म की कहानी में राज (राजकपूर) की माँ स्वयं पर लगे कलंक को लिए अग्नि परीक्षा देने पर विवश हो जाती है।
जज साहब (पृथ्वी राजकपूर) द्वारा गर्भावस्था में ही घर से निकाले जाने के पश्चात् वह अकेले ही राज को जन्म देती है। कठिन परिस्थितियों एवं मुंबई की मलीन बस्ती में राज बड़ा होता है। ज़ुर्म की दुनिया में जग्गा जैसे लोग उसे इस दलदल से बाहर नहीं निकलने देना चाहते। परंतु रीता (नरगिस) का प्रेमरूपी धागा राज को उस दलदल से बाहर निकलने में उसकी सहायता करता है। फिल्म राज जैसे उन सभी युवाओं की व्यथा बताती है। जिन्हें जजसाहब जैसे लोग शराफत से जीने नहीं देते और इसी का फायदा उठाकर जग्गा जैसे असामाजिक तत्व उन्हें जुर्म की खाई में धकेल देते हैं।
फिल्म का संगीत मशहूर संगीतकार शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने बनाया था। फिल्म का शीर्षक गीत “अवारा हूं” शैलेन्द्र द्वारा पिरोया गया। हालांकि फिल्म का ध्वनि प्रस्तुतीकरण अधिक प्रभावी नहीं है। फिल्म में राजकपूर ने चार्ली चैप्लिन के “लिटिल ट्रैंप” के किरदार से प्रेरित होकर स्वयं में उसको आत्मसात किया।
फिल्म का एक गीत “तू आ जा” में “ट्वर्लिंग क्लाउड” तकनीक को दर्शाया गया है, जो कि भारतीय सिनेमा में पहली बार इस फिल्म में प्रयोग की गई थी। साथ ही कपूर खानदान की तीनों पीढ़ियां पहली बार एक साथ पर्दे पर दिखीं एवं शशि कपूर ने भी बाल कलाकार के रूप में अपना डेब्यू इस फिल्म से किया।
श्री 420: ईमानदारी और बेईमानी के तराजू में झूलती
1956 में आई फिल्म श्री 420 की कहानी गाँव के एक शिक्षित एवं फटेहाल युवा राज (राजकपूर) से शुरू होती है। जो इलाहाबाद से बम्बई (मुम्बई) ईमानदारी की नौकरी करने आता है, जहां उसे गंगा माई (ललिता पवार) के रूप में माँ एवं विद्या (नरगिस) के रूप में प्रेमिका की प्राप्ति होती है।
लेकिन लॉन्ड्री में काम करते समय एक दिन वो मायानगरी की माया (नादिरा) में फंस जाता है, जहां वो अपना ईमान भी गिरवी रख देता है, जहां विद्या से दूरी उसकी अक्ल से माया की कालिमा को हटाती है।
अंतत: 420 सी के खेल में जीत विद्या की होती है। फिल्म की कहानी बेरोज़गार भटके हुए युवा का प्रतिनिधित्व करती है। साथ ही सेठ सोनाचंद धर्मानंद (नीमो) जैसे पूजीपतियों की उस खोखली दुनिया के मुखौटों को हटाती हुई नज़र आती है, जिनकी चमक दूर से तो लुभावनी लगती है। परंतु नज़दीक जाते ही वो चेहरे एवं मुखौटे भयावह लगने लगते हैं।
फिल्म के सभी गीत “मेरा जूता है जापानी”, “दिल का हाल सुने दिल वाला”, “प्यार हुआ इकरार” इत्यादि गाने उत्कृष्ट हैं। गीतकार शैलेन्द्र ने परिस्थितियों के अनुकूल गीत के बोलों को ढाला है।
जहां “मेरा जूता है जापानी” गाना उस समय के स्वतंत्र भारत में बेहद लोकप्रिय हुआ था, क्योंकि उपनिवेशवाद के पश्चात् जिस प्रकार सांस्कृतिक तौर पर परिधान आदि का पश्चिमीकरण हुआ, उसका प्रभाव भारत में भी दृष्टिनीय है परंतु पश्चिमी सभ्यता के बाद भी भारतीयों ने स्वतंत्रता संघर्ष में कमी नहीं आने दी। साथ ही “रमैया वस्तावैया” गीत ने तेलुगू जनता को आकर्षित किया।
“रमैया वस्तावैया” का अर्थ है “राम तुम आओगे”। इस गीत का प्रयोग एक अलंकरण के रूप में किया गया है, जिसमें राम राज्य के आने की कल्पना की गई है, क्योंकि आज के विलासितापूर्ण समाज में राम राज्य मात्र एक स्वर्णिम युग बनकर रह गया है।
मेरा नाम जोकर: ज़िंदगी एक रंगमंच है
फिल्म “मेरा नाम जोकर” 70 के दशक में आई एक रंगीन फिल्म थी। फिल्म की कहानी जोकर पर केंद्रित है। राजू (राजकपूर) के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती यह फिल्म राजकपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट थी। ऐसा शायद इसलिए भी है, क्योंकि फिल्म की कहानी कहीं-ना-कहीं एक अभिनेता के जीवन को दर्शाती है।
राजू नाम का एक किशोर, जिसके पिता भी एक जोकर थे, उनकी मृत्यु सर्कस में ही होती है। राजू की माँ (अचला सचदेव) इसी डर के कारण राजू से उसके पिता के वजूद को उससे छिपाती है परंतु जब राजू को उसके पिता के वजूद का बोध होता है, वह जोकर बनने की ठान लेता है।
वहीं दूसरी ओर राजू को उसकी टीचर मेरी (सिम्मी ग्रेवाल) से प्यार हो जाता है। बाली उम्र का पहला प्यार उसके दिल में बेचैनी पैदा कर देता है। राजू, मेरी को जोकर भेंट करता है। राजू को जोकर बनकर कर्तब दिखाने के कारण स्कूल से निकाल दिया जाता है। तभी मेरी की शादी डेविड (मनोज कुमार) से हो जाती है। मेरी, राजू को उसका जोकर वापिस उसको भेंट कर देती है।
राजू अपनी माँ के साथ बम्बई चला जाता है। जहां उसे सर्कस में नौकरी मिल जाती है। वहां राजू को सोवियत यूनियन की सदस्य मरीना से प्रेम हो जाता है। वह उस जोकर को मरीना को भेंट करता है लेकिन यहां भी उसको निराशा प्राप्त होती है। वह सर्कस छोड़ देता है लेकिन तीसरी बार भी दिल टूटने के बाद सर्कस राजू को अपनी ओर बुला ही लेता है।
इस फिल्म को 1970 में आलोचकों द्वारा नहीं सराहा गया था। हालांकि लोगों को फिल्म से कई उम्मीदें थीं, क्योंकि फिल्म का प्रोडक्शन पूरे 6 सालों तक चला लेकिन जनता को फिल्म आकर्षित नहीं कर पाई।
फिल्म में जोकर को भेंट करना एक अलंकरण है, जिसके द्वारा यह दर्शाया गया है कि एक जोकर को लोग सराहते तो हैं लेकिन उसके जीवन का हिस्सा कोई नहीं बनना चाहता। किंतु उसका दिल इतना विशाल होता है कि पूरी दुनिया को अपने में समाने की क्षमता रखता है। चाहे कैसी भी परिस्थिति हो “द शो मस्ट गो ऑन”।
यह फिल्म भारतीय सिनेमा की दूसरी दो इंटरवल वाली फिल्म थी। उस ज़माने में सिम्मी ग्रेवाल का न्यूड सीन जो कि फिल्म में पूर्णतः पारदर्शी नहीं है, को फिल्म से कट करने की खबरों ने ज़ोर पकड़ा था। यह फिल्म में एक काल्पनिक दृश्य है। 1980 में जब फिल्म को दोबारा रिलीज़ किया गया तो फिल्म को “कल्ट क्लासिक” का दर्जा दिया गया।
फिल्म का गीत “जीना यहां मरना यहां” जीवन की सच्चाई को समेटे हुए है, जिसमें दुनिया को रंगमंच एवं सभी प्राणियों को कलाकार बताया गया है।
राजकपूर की फिल्मों में स्टूडियों सिस्टम का प्रभाव साफतौर पर देखा जा सकता है।