आज से तीन साल पहले शायद ही मेरे गांव में मुझसे बड़ा कोई आस्तिक रहा होगा। उस समय मेरी नज़रों में वह हर व्यक्ति पाप का हकदार था जो भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारता था।
मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ी हुई है और मेरे परिजन अशिक्षित हैं, जो धर्म के प्रति उनके अंदर पैदा हुए आकर्षण को बढ़ाने के लिए एक ज़िम्मेदार कारक कहा जा सकता है। जिसका प्रभाव बाद में मुझपर भी पड़ा।
पहले मेरे पिता भी एक नास्तिक ही थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी ज़िन्दगी में आयी समस्याओं ने उनको धर्म के प्रति इतना आकर्षित कर दिया कि आज वे भगवान कृष्ण के भक्त हैं और लोगों की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त रहते हैं। आज हमारे घर में ही एक बड़ा सा मंदिर है, जिसमें प्रतिदिन सुबह-शाम पूजा करने के लिए लगभग 1 घण्टा सुबह व 1 घण्टा शाम का समय लगता है। इसी मंदिर में, मैंने तीन साल पहले तक भगवान की आराधना की है। कहने का सार यह है कि अब भी मेरे घर में मुझे छोड़कर सब ईश्वर के प्रति गहन श्रद्धा रखते हैं।
तीन साल पहले मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली आया जोकि अभी तक जारी ही है। जब मैं दिल्ली आया तब भी मेरे अंदर आस्तिकता के हिचकोले मारते थे। यहीं कारण था कि मेरे फोन व व्हाट्सएप की डीपी ईश्वर की तस्वीर से सजी रहती थी और मैं अपने हॉस्टल के पास के ही मंदिर में जाकर ईश्वर का ध्यान किया करता।
लेकिन जैसे-जैसे मैं अपनी पढ़ाई के दरम्यान इतिहास व दर्शन की गहराइयों में उतरता गया वैसे-वैसे मैं नास्तिकता की चादर ओढ़ता चला गया। किताबों के ज्ञान ने मुझे बताया कि धर्म तो बस सामाजिक,आर्थिक, राजनीतिक, व सांस्कृतिक परिस्थितियों की उपज है।
धर्म तो उस समय की समस्याओं का समाधान था जो धर्म उत्पत्ति के समय उत्पन्न हुई। लेकिन लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे को मार रहे हैं। जोकि वास्तव में कुछ है ही नहीं, सिवाय परिस्थितियों की मांग के। धर्म का लोगों में इतना आकर्षण है कि कार्ल मार्क्स की विचारधारा ज़्यादातर देशों में विफल रही और जहां सफल भी हुई वहां बहुत खून-खराबे के साथ।
इसी आकर्षण के कारण नास्तिक लोग भी कोई संकट या मृत्यु समीप आने पर ईश्वर का नाम जपने लगते हैं। अब मैं उन कारकों का ज़िक्र करने जा रहा हूं जिनके कारण मैं नास्तिकता की ओर आकर्षित हुआ।
ज़्यादातर धर्मों की यह मान्यता है कि आत्मा अनश्वर है और वह नश्वर शरीर के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराए रहती है। इसी मान्यता के कारण पुनर्जन्म की अवधारणा अस्तित्व में आयी। पुनर्जन्म कर्मों के सिंचित फलों के आधार पर तय होता है, ऐसा धार्मिक ग्रंथों द्वारा बताया जाता है। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, पुनर्जन्म, सिंचित कर्मों का फल जैसी मान्यताएं मानव के ज़हन में गहरी जड़ें जमाए हुए हैं।
उपरोक्त मान्यताओं पर सवाल उठाने वालों को प्रायः चार्वाकी, लोकायती, व नास्तिक जैसे शब्दों से तिरस्कृत किया जाता है। लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं जो अनुत्तर ही रह जाते हैं। प्रायः हिंदू धर्म में विवाह का बंधन सात जन्मों तक माना जाता है लेकिन शायद यह कोई ही जानता होगा कि उसकी वर्तमान शादी पहले जन्म की है या आखिरी जन्म की। कहीं ऐसा तो नहीं कि सातवां जन्म यही हो और अगला जन्म बिछड़ने का जन्म हो।
इसके अतिरिक्त एक सवाल यह उठता है जब हमें ना अगले जन्म की याद है ना पिछले जन्म की तो किस आधार पर यह मान लिया जाये कि पुनर्जन्म की अवधारणा सत्य ही है। आखिर किस आधार पर अगले जन्म की चिंता में इस जन्म में अपने शरीर पर कष्टों का बोझा ढोया जाए?
धर्म की अधिकतर मान्यताएं मौर्योत्तर व गुप्त काल के आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था की उपज है। क्योंकि उस काल में उन सवालों का सामना करना पड़ा जो समाज के लिए नए थे और जिनकी व्याख्या इतिहास में नहीं थी। पुनर्जन्म की अवधारणा के पीछे हमारी सामाजिक व्यवस्था ज़िम्मेदार है, लेकिन समर्थन उसको धर्म के माध्यम से मिलता है।
निर्धन लोगों को यह विश्वास दिलाया गया कि उनकी निर्धनता का कारण वे स्वयं ही हैं। पिछले जन्मों के बुरे कर्मों का दंड उनको इस जन्म में भुगतना पड़ रहा है। इसलिए इस जन्म में अच्छे कर्म करके, अगले जन्म को बेहतर बनाओ। इस व्यवस्था के होने से निर्धन लोग अपनी निर्धनता का कारण आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था को ना मानकर खुद को ही दोषी समझने लगते हैं। साथ ही निर्धनों को भगवान की भक्ति का मार्ग सुझाया जिसके माध्यम से वे पुण्य अर्जित कर सकते थे और धनी लोग मंदिर बनाकर।
इससे धनी लोगों को संपत्ति सुरक्षा का आश्वासन मिला व इसके साथ ही धनी लोगों से मंदिर के लिए धन भी मिलने लगा क्योंकि उनको यह आश्वासन दिया गया था कि वे धन देकर भी पुण्य कमा सकते हैं। निर्धनों को यह भी आश्वासन दिया गया कि उनके कष्टों को दूर करने हेतु स्वयं भगवान अवतार लेकर आयेंगे। यहीं से मूर्तिपूजा व अवतारवाद का जन्म हुआ।इसी का परिणाम है कि आज भी बहुत से लोग भौतिकता का मोह छोड़ उसको ढूंढने में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं जो अनिश्चितता के बादलों में छुपा बैठा है।
“भगवान के घर देर है अंधेर नहीं”, “भगवान सब देखता है”, “उस ऊपर वाले से डरो”, “इसका भगवान ही न्याय करेगा” जैसी कहावतें इसी आश्वासन की उपज है कि गरीब का भगवान होता है। इसीलिए गरीब लोग ज़िन्दगी भर कष्टों में काट देते हैं और उसके खिलाफ आवाज़ भी नहीं उठाते।
साथ ही धनी लोगों को बताया गया कि जैसे एक भक्त भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखता है वैसे ही उसको राजा या उसके ऊपरी सामंत के प्रति समर्पण का भाव रखना चाहिए और उसको राजा की हरेक आज्ञा का पालन व कर का भुगतान अपना कर्तव्य समझकर करना चाहिए। इससे राज्य में विद्रोह की समस्या कम हो जाती है और राजा के प्रति नैतिक भावना पैदा हो जाती है। जिस तरह से सामंती व्यवस्था में हेरार्की बनी हुई थी, ठीक ऐसे ही देवताओं के मध्य बना दी गयी। दो या तीन देवताओं को मुख्य देवता मानकर बाकी को गौण देवता की उपाधि दी गयी। इसका सटीक उदाहरण शिव परिवार है, जिसमें शिव को मुख्य देव व बाकी को गौण देवता माना गया है। इस तरह से असंतोष को धर्म के माध्यम से दबा दिया गया।
ऐसे ही इस्लाम धर्म की उत्पत्ति हुई। उस समय की राजनीतिक व आर्थिक मांग थी कि विभिन्न कबीलों को एक साथ इकट्ठा किया जाए ताकि एक मज़बूत राज्य की स्थापना की जाए, जिसमें सुगमता के साथ व्यापार हो सके। इसलिए हज़रत मुहम्मद साहिब ने राजनीतिक व धार्मिक शक्तियों को एक ही व्यक्ति में सीमित कर दिया और खुद को एक राजा के साथ-साथ पैगम्बर भी घोषित कर दिया।
अगर सिख, बौद्ध, जैन व अन्य धर्मों की उत्पत्ति पर नज़र डाली जाए तो मालूम होता है कि ये सब उस समय की परिस्थितियों की ही उपज थे। उस समय में जिस बदलाव व सुधार की मांग थी वह ये धर्म ही लेकर आये और जन लोकप्रिय होते चले गए।
ये धार्मिक मान्यताएं तो परिस्थितियों की उपज थी। लेकिन वर्तमान में अब भी बहुत सी चीज़ें आपको देखने को मिलती होंगी जो आपकी समझ से परे होती है। अब यहां होता क्या है आपकी समझ से परे प्रत्येक चीज़ को आप जादू, कोई करिश्मा, या भगवान का अस्तित्व की संज्ञा दे देते हैं। जैसे-मुझे नहीं मालूम कि मेरे पापा कैसे लोगों की समस्याओं का समाधान करते है? क्यों पीड़ित उनके पास आकर ठीक हो जाते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर मेरे पास अभी नही हैं। लेकिन उत्तर न होने का मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी अनुत्तरित प्रश्नों को ईश्वर की संज्ञा दे दूं। यहां हमारी मदद कार्ल मार्क्स का यह कथन करेगा-
धर्म मानव मस्तिष्क जो ना समझ सके उससे निपटने की नपुंसकता है
कोई भी चीज़ जो हमारी समझ से परे है उस पर तर्कवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए न कि उसको चमत्कार की संज्ञा देनी चाहिए। तर्कवादी दृष्टिकोण अपनाने से ही आविष्कार से हमारा सामना होता है। समझ में ना आई किसी चीज़ को चमत्कार का नाम दे देने से आविष्कार होने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और समाज एक नए ज्ञान से वंचित रह जाता है।
यही वह सब है जिनके कारण मैं आज नास्तिक हूं। इसके अतिरिक्त शहीद भगत सिंह के लेख “मैं नास्तिक क्यों हूं” में उनके द्वारा दिये गए तर्कों से भी सहमत हूं। मैं किसी धर्म का विरोध करने के लिए नास्तिक नहीं बना हूं बल्कि तर्कों के साथ अपनी समझ विकसित कर मैंने नास्तिकता का हाथ पकड़ा है और स्थिति आज यह है कि चार्वाक दर्शन का मूलमंत्र मुझे आकर्षित करता है-
यावत जीवते सुखम जीवेत
ऋण कृत्वा घृतम पिबेत
भस्म-भूतस्स देहस्या
पुनरागमन कुत: