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अमेरिका रंग भेद की आग में

टाइटल

 

यूएसए  (यानी यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका) विश्व का सबसे ताकतवर और खूंखार देश है, खास कर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और भी  ज़्यादा जब सोवियत संघ का विघटन हुआ उसके साथ ही विश्व द्वि-ध्रुवीय से एक-ध्रुवीय दुनिया में परिवर्तित हो गया था।

मगर वहीं वह बहु-ध्रुवीय दुनिया की तरफ अग्रसर हो चला था।  यूरोपीय देश एक ‘स्वतंत्र’ सामर्थ्य से अपना अस्तित्व कायम करना चाहते हैं। इंग्लैंड के अलग हो जाने के बावज़ूद भी (अब यूरोपीय यूनियन से अलग हो चुका है)

वहीं, चीन और रूस अलग खेमे का निर्माण कर चुके हैं। कई छोटे देश जो अपनी सार्वभौमिकता को सुरक्षित रखते हुए,  खुद के संसाधनों का इस्तेमाल अपने देश  के लिए करना चाहते हैं साथ ही साम्राज्यवादी देशों से अलग अस्तित्व बनाने को तैयार भी हैं और संघर्षरत भी।

अमेरिका की चौधराहट को नकार रही दुनिया

बोलीविया का अभी का चुनाव महत्वपूर्ण है, जहां अमेरिका  प्रायोज़ित सेना की मदद से चुने हुए राष्ट्रपति इवो मोराल्स और उनके पार्टी को अपदस्थ किया गया था, फिर अभी भारी बहुमत से वापस जीत गए हैं।

चिली में भी दो तिहाई बहुमत से पुराने संविधान को हटा कर नए संविधान बनाए जाने की स्वीकृति दी गयी है। चिली का पुराना संविधान वहां के चुने हुए समाजवादी और राष्ट्रवादी शासक अलेंदे को सेना और अमेरिकी सीआईए के मदद से अपदस्थ करने के बाद वहां के तानाशाह पिनोशे ने बनवाया जो वहां  शासक बन बैठा था।

दुनिया बहु-ध्रुवीय  हो चुकी है मगर अब कोई भी समाजवादी खेमा नहीं बचा है। चीन में पूंजीवाद पूरी तरह से स्थापित हो चुका है। उत्तर कोरिया, बोलीविया, वेनेज़ुएला आदि में राष्ट्रवादी, जनवादी सरकार हैं मगर समाजवाद नहीं है।

वहीं कई खेमों का उदय होना और आपस में संघर्ष करना, जिसका नतीज़ा अनवरत युद्ध और आतंकवाद के रूप में भी दिखा है।

इसके पहले कि हम अमेरिकी सर्वहारा वर्ग के बारे में बात करने पर यह भी जानना सामयिक होगा कि अमेरिकी साम्राज्यवाद पतन पर है। अमेरिकी डॉलर का रुतबा ख़त्म हो रहा है। देश खासकर रूस, चीन, ईरान और कुछ लैटिन अमेरिकी देश अब आपस में अपने ही मुद्रा में व्यापार करना शुरू कर चुके हैं और नए देशों को भी अपनी ही मुद्रा में व्यापार करने को प्रोत्साहित कर रहे हैं।

सैन्य शक्ति भी अब अमेरिका की  दादागिरी को बरकरार रखने में सबल साबित नहीं हो रही है। आर्थिक संकट से जूझ रहा यह देश अब अपने मित्र देशों के लिए भी बोझ लगने लगा है। वहीं नाटो सदस्य टर्की अपनी ही चाल चल रहा है और क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने की कोशिश कर रहा है।

बहु-ध्रुवीय विश्व अमेरिकी चौधराहट को नकार रहा है। अरब देशों में इज़राइल और सऊदी अरब के अथक प्रयासों के बावजूद रुसी प्रवेश और जन चेतना विरोध के कारण अमेरिकी साम्राज्य का ह्रास होता  साफ दिख रहा है।

कमज़ोर पड़ता 7 वर्ष पहले शुरू हुआ ब्लैक लाइव्स मैटर

वहीं,अफ़्रीका और एशिया के देश भी अपनी स्वतंत्र विदेश और आर्थिक नीति चाहते हैं। भारत और ब्राजील का अमेरिकी चक्रव्यूह में आना ज़रूर अमेरिका के लिए सुकून भरा हो सकता है मगर यह क्षणिक ध्रुवीकरण है, इसका नतीज़ा भारत के पड़ोसी देशों का चीन के करीब होना है और आज की इस  विश्व महामंदी में भारतीय बाज़ार (जो खुद गंभीर आर्थिक और राजनीतिक संकट में है) या  किसी भी बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए ये कोई राहत की बात नहीं है।

ब्लैक लाइव्स मैटर (Black Lives Matter), यानी  ‘जो ब्लैक हैं उनका जीवन भी मायने रखता है’ यह एक नारा है, जो पूरे अमेरिका में आंदोलन का रूप ले चुका है।  इस आंदोलन की शुरुआत करीब 7 वर्ष पहले हुई थी , जो अब अमेरिका से बाहर यूरोप और इंग्लैंड में भी फैल चुका है। अमेरिकी साम्राज्य इसका पुरज़ोर विरोध कर रहा है।

जॉर्जे फ्लॉयड की अमेरिकी पुलिस द्वारा दिन दहाड़े हत्या के बाद यह आंदोलन हर वर्ग  हिस्सा बन गया, जिसमें हर प्रगतिशील और  क्रांतिकारी दल और जनता ने हिस्सा लिया। हालांकि इस देशव्यापी विरोध (लाखों लोगों ने इसमें हिस्सा लिया, विदेशों में भी भारी प्रदर्शन हुए और कई हफ़्तों तक यह आंदोलन जारी रहा।) में अमेरिकी प्रशासन, पुलिस और सरकार को हिला दिया।

कई बुर्जुआ दलों ने भी समर्थन देने की घोषणा की मगर  क्रांतिकारी लक्ष्य ना होने के कारण यह आंदोलन समय के साथ कमज़ोर पड़ गया।  (बाद में फिर उभर सकता है)| क्रांति के लिए क्रांतिकारी परिस्थितियों  के साथ ही एक क्रांतिकारी लीडर का होना ज़रूरी है, अन्यथा ऐसे सैकड़ों आंदोलन आते हैं और बिखर जाते हैं और  स्थितियां  कमोबेश वैसी ही जस की तस रह जाती हैं।  इस नारे के साथ  डिफण्ड पुलिस (Defund Police) का नारा भी काफी प्रचलित हुआ और अब जारी है।

वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करो (Occupy Wall Street) के नाम से अमेरिका में ही 2011 में आंदोलन हुआ था, जो न्यू यॉर्क सिटी वॉल  स्ट्रीट से शुरू होकर पूरे अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में फ़ैल गया था। आंदोलन कर्ताओं  का मुख्य आक्रोश आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी, सरकार के ऊपर पूंजीपतियों के प्रभाव के विरोध में था। इनके कई नारों में, एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय नारा था, “हम 99% हैं”| इन लोगों ने बैंक, कॉरपोरेट ऑफिस, बोर्ड मीटिंग, विश्व विद्यालय परिसर, आदि का घेराव किया| यह आंदोलन एक लम्बे समय तक चला और काफी प्रभावी रहा मगर  जैसा ऊपर कहा गया है, एक क्रांतिकारी विचार, दृष्टि, लक्ष्य और पार्टी की  कमी के कारण, इसका भी ह्रास कुछ वैसे ही हुआ था।  हम  वापस अभी के आंदोलन पर आते हैं। इस आंदोलन के बढ़ते समर्थन के साथ ही पुलिस और अन्य राज्य के विभागों का हस्तक्षेप बढ़ता गया और अंततः इसका भी ह्रास वैसे ही हुआ जैसे की अन्य इस तरह के आंदोलनों का होता गया,, जिसका कोई क्रांतिकारी लक्ष्य नहीं होता है  और परिणाम  स्वरूप स्वाभाविक रूप से रास्ता भी नहीं होता है। 

वैसे, अमेरिका में दो महत्वपूर्ण और मुख्य दलों के अलावा भी कई और अन्य दल है,  जो चुनाव लड़ते हैं या नहीं भी, पर एक बदलाव करने की बात करते हैं।  उनमें से मुख्य दल हैं ग्रीन पार्टी, लिबर्टेरियन पार्टी  ( डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी के बाद सबसे बड़ी पार्टी हालांकि  कभी भी इसे 4% से अधिक वोट नहीं  मिले थे।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ यूनाइटेड स्टेट ऑफ़ अमेरिका की स्थापना 1919 में हुई और ये 1924 से चुनाव में हिस्सा ले रही है लेकिन अधिकांशतः इसे  1% से भी कम वोट मिले हैं। गलत मज़दूर वर्गीय रास्तों और नीतियों के कारण अब यह कमज़ोर और गैर क्रांतिकारी हो चुकी है  मगर ये अब भी मज़दूर वर्ग की तरफदारी एक प्रगतिशील दल की तरह करता है।  कुल मिलाकर अमेरिकी मजदूर वर्ग की वही हालात हैं, जो कुछ अंतरों के साथ विश्व भर मेंदिखाई दे रहे है,  इनका रास्ता मुख्य भारतीय वामपंथियों से मिलता जुलता है।

बढते असंतोष का कारण है बढ़ती बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था का अभाव, बढ़ती बेघर जनता और इन सबका नतीजा है, बिगड़ती कानून व्यवस्था। अमेरिकी पुलिस और प्रशासन काफी बेरहम है और खासकर साधारण मज़दूरों के लिए और वहीं रंग भेद वहां खुलेआम है, जिसकी बात हम कर चुके हैं।  अमेरिकी पुलिस की  ट्रेनिंग का एक हिस्सा इज़राइली तरीका है, जहां पहले संदेहात्मक व्यक्ति को जकड़ लिया जाता है, गर्दन दबोच ली जाती  है

जिससे सांस लेना भी दूभर हो जाता है और यही कारण है जिससे  कई अमेरिकी मज़दूरों (खासकर ब्लैक) की  मौत हो चुकी है।  इजराइल ऐसा देश है, जहां  कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार (Third Degree Torture) देने की कानूनी छूट है। 

हाल ही में जो राष्ट्रपति चुनाव संपन्न हुआ उसमें ऊपर चर्चित संकटों और पूंजीवादी अंतर्द्वंद का असर साफ देखा जा सकता है भारत के मतदाता परिचित हैं भारत की  राजनीति के गंदे, भड़काऊ  झूठे भाषण और वादों से लेकिन अमेरिकी नेता गण यदि ज़्यादा नहीं हों तो कम भी नहीं है।

पैसा,प्रिन्ट मीडिया और सोशल मीडिया इनका भद्दे ढंग से इस्तेमाल पूरी  तरह से वहां भी दिखा। बाहरी ताकतों, जैसे चीन, रूस द्वारा हस्तक्षेप का आरोप-प्रत्यारोप लगाया गए। अल्पसंख्यकों के खिलाफ सिर्फ ज़हर ही नहीं उगला गया बल्कि राज्य सत्ता का प्रयोग भी किया गया।

 अमेरिका की तरह ही रंगभेद से लड़ते अन्य  देश

उनके खिलाफ और अमेरिकी देशवासियों  के  नाम पर जनता को बरगलाया गया। यानि पूंजीवादी प्रजातंत्र का पूर्ण ह्रास; आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी, और आध्यात्मिकता  मतलब अमेरिकी ‘प्रजातंत्र’का पूर्ण पतन हर जगह दिखा। जो बाइडेन का मुखौटा अभी भले ही एक प्रगतिशील और प्रजातांत्रिक का दिख रहा हो मगर   भूतपूर्व उप राष्ट्रपति (ओबामा के समय) का इतिहास हमें मालूम है, जो रक्त रंजित, सीआईए के हर घृणित काम  और इजराइल  युद्ध का साथ देना रहा है, खैर! इस चुनाव में ट्रम्प हार गए हैं और बाइडेन जीते हैं।

ट्रम्प के चुनाव प्रचार में भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का भी योगदान रहा, हाउडी मोदी (Howdy Modi) के दौरान उन्होंने अपनी ही तर्ज  पर नारा दिया था “इस बार ट्रम्प  सरकार”!! साथ ही ‘नमस्ते ट्रम्प’ पर भी जोर दिया गया था।

ट्रम्प को जीत दिलाने में ये माना जा रहा था अमेरिका में बसे भारतीय ट्रम्प को ही वोट देंगे।  वहीं, हारने के बाद भी ट्रम्प को कुल 47.7% वोट मिले जबकि बाइडेन को 50.6%  वोट मिले।   2016 के चुनाव में ट्रम्प को 48.9% और विपक्षी उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को 51.1% वोट मिले थे मगर अमेरिकी पद्धति इलेक्टोरल कॉलेज की वजह से ट्रम्प जीत गए थे मगर यह देखने की बात है कि अमेरिकी जनता रंग भेद और देशवाद के नाम से वैसे ही  प्रभावित है जैसे अन्य देशों में!

भारत में धर्म, जाति और छद्म देश प्रेम के नाम पर जनता का ध्रुवीकरण होता रहा है, हमारे देश में मजदूरों में वर्गीय चेतना की बहुत कमी है  जिसका एक ही कारण है वाम दलों की कमज़ोरी  (बुर्जुआ दल तो शुरू से ही मज़दूर वर्ग में भ्रम और भेद फैलाने की कोशिश करते रहते हैं। )

(इन दोनों अभियान में भारत सरकार ने क्रमशः 1.4 लाख करोड़ और 100 करोड़ खर्च किए! ये पैसे किसके थे?)

सर्वहारा वर्ग का विद्रोह बड़े पैमाने पर पूरे विश्व में हो रहा है।  अमेरिका और अधिकांश विकसित देश के मज़दूर और प्रताड़ित जनता भी विद्रोह में शामिल है।  पूंजीवाद का कोई भी रूप हो जैसे सामाजिक लोकतंत्र से लेकर फासीवाद तक,अब अपने अति सड़ांध रूप में आ चुका है।

इसका जीवित रहना सिर्फ मज़दूर वर्ग के भारी शोषण और तबाही से ही संभव है। पर्यावरण भी पूंजीवादी उत्पादन और मुनाफाखोरी के कारण बर्बाद हो रहा है।  पूंजीवाद ही मानव समाज के हर शोषण और प्रतारणा की जड़ है और इसके एकमात्र खगोलीय पिंड, पृथ्वी, के आसन्न बरबादी का नया समाज, एक शोषण विहीन समाज, वर्ग विहीन समाज पूंजीवादी समाज में संभव नही है।

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