कहते हैं कि इंसान की सोच से उसका पूरा चरित्र निर्धारित होता है और जाने अनजाने ही सही महप यह समाज ही है, जो नौनिहालों की सोच पर बचपन से लिंग भेद की दीमक लगाना शुरू कर देता है। जन्म के पश्चात जब एक नौनिहाल अपनी सोच को विकसित कर रहा होता है, तो जीवन की प्रथम पाठशाला कहे जाने वाले परिवार के ही बड़े-बूढ़े कहीं ना कहीं लिंग भेद और मानसिक कुंठा का विष घुट्टी की तरह पिलाए जा रहे होते हैं। वो लड़का है ताकतवर है, लड़की है कमजोर है या तुम लड़की हो ऐसे काम तुम्हें नहीं करने चाहिए, जैसे कथन हर घर में कहे जाते रहे हैं।
हालांकि कुछ लोग हैं जो अपने को इस लड़का लड़की के भेदभाव और दोहरे आचरण से दूर रखने की झंडाबरदारी करते हैं, पर उनकी झंडाबरदारी भई, हमने तो अपनी लड़की को लड़के की तरह पाला है, वो लड़की थोड़े है मेरा लड़का है इत्यादि कथनों से शुरू होती है।
प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को अलग अलग बनाया है परन्तु इसी लिंग भेद के अंतर को अलग ही जामा पहना कर समाजिक तौर पर अन्तर कर देना ही कहीं न कही समाज में महिलाओं के साथ घटती घटनाओं और कुपोषित सोच का कारण है।
समाज क्यों तय करता है लड़के और लड़कियों का दायरा?
आप बचपन में ही लड़के और लड़की के काम बांट देते हैं। लड़की है तो खाना बनाएगी और लड़का है तो इसे घर के कामों से क्या लेना देना, ये बाहर के काम देखेगा। क्यों यह समाज लड़की को बस बार्बी डॉल से खेलता और गुलाबी रंग के कपड़ों में ही सजा देखना चाहता है?
एक बच्ची गुड़िया की जगह प्ले स्टेशन या विडियो गेम खेलने पर इस समाज के लिए टॉम बॉय हो जाती है। आप क्यों तय कर देते है की लड़की है तो दायरे में रहेगी और लड़का है तो अपनी सहूलियत के हिसाब से दायरे बनाएगा और तोड़ेगा?
पढ़ी-लिखी लड़की का चुनाव करना भी स्वार्थी सोच की निशानी है
ये इस समाज की ही अविकसित सोच है जिसने बीते दिनों न जाने कितनी लड़कियों की भेंट चढ़ा दी है और अभी ना जाने कितनी है जो जल रही है और चढ़ जायेगी, क्यों इस समाज में सारे अर्ध, पूर्ण और सांकेतिक विराम लड़कियों की सोच , पहनावें और इच्छाओं पर ही फलीभूत होते हैं। शाम ढलने से पहले घर आने के फरमान सिर्फ हमारे लिए ही क्यों? कभी-कभी तो घर से हमारा बाहर निकलना ही आपके लिए अमर्यादित हो जाता है।
अधिकतर मर्दों को एक पढ़ी-लिखी बीवी ही चाहियें क्योंकि खाना पकाने, बर्तन मांजने और रात में शारीरिक सुख के अलावा वो बच्चों को भी पढ़ा देंगी। चलिए अच्छी बात है पर ऐसी ही पढ़ी लिखी महिला का घर के बाहर जाकर नौकरी करना क्यों खटकता है? जो पति रात में उसे अपने पलकों की हूर और चाँद तारे तोड़ लाने की बात करता है नौकरी की बात करने में चारित्रिक हनन पर क्यों उतारू हो जाता है?
महिलाओं के चरित्र का सर्टिफिकेट पुरुष समाज क्यों निर्धारित करता है?
पुरुष के महिला मित्र होना बड़े गर्व की बात है। परन्तु अगर किसी महिला के पुरुष मित्र हैं तो यही समाज उसकी चरित्र पर प्रश्नचिंह क्यों लगाता है? पुरुष मित्र से बातें करना साथ में चाय पीना या बहार घूमने जाना उसका वैश्या बन जाना है पर यही सारे काम एक पुरुष के लिए उसके चरित्र का चार चांद है। क्या पवित्र मित्रता पर लिंग की मोहर लगी होती है ? वह कौन सा धार्मिक ग्रन्थ है जहां पर ये लिखा है कि महिला की मित्र केवल महिला हो ना की पुरुष ?
इस समाज के लिए लड़को द्वारा लड़कियों को छेड़ना भी लड़कियों की गलती है , लड़के हैं तो करेंगे ही। लड़की हो, तुम्हे ही सोच समझ कर चलना चाहिए। ये लगभग हर घर में सुना जाने वाला वाक्य है, लेकिन क्यों ? एक लड़की के जींस, टी-शर्ट पहन लेने से एक लड़के को उसे छेड़ने या माल बुलाने का अधिकार कहां से मिल जाता है? जीन्स टी-शर्ट से ज्यादा अंगो का सुलभ दर्शन ब्लाउज और साड़ी में होता है, पर आप की दृष्टि तब नहीं खराब होती क्यों ?
आपके घर में रहने वाली भी महिलाएं हैं
आपकी बहन, बेटी, माँ और पत्नी के लिए किसी अनजान का बुरी नजरो से देखना अपराध है और शायद आप उसे खड़ी दुपहरी सरेआम गोलियों से भून दें पर जब बस में जाती एक महिला को आपकी निगाहे कपड़ों को चीरकर आपकी शारीरिक कुंठा मिटा रही होती है, तो आप उसी खड़ी दुपहरी में चुल्लू भर पानी में डूब क्यों नहीं मरते।
हमारा जीन्स पहनना , टी शर्ट पहनना, बॉय कट बाल कटाना उपहास का कारण है। आप बोलते थकते नहीं की देखो ये सब करके लड़का बनने चली है कुतिया! हां, हम बराबरी कर रहे हैं। आइये आप भी करिए , खाना पकाइए , बर्तन मंजिये , प्लाज़ों पहनियें और हील्स भी, किसने रोका है। असल समस्या ये नहीं की हम लड़कियां है पर ये हैं की आप लड़के हैं, और इस समाज ने आपको चिरकाल से यों सिर आंखों पर बिठा रखा है कि आपकी सोच हमें एक जिन्दा इंसान न समझ कर बस माल बनाने तक ही सीमित है। रात में सड़क पर अकेली खड़ी लड़की को खुली तिजोरी न सोच कर कभी इंसान समझिएगा तो दुनिया का नज़ारा कुछ और होगा।
राम ने अपनी पत्नी पर विश्वास ना किया मगर एक धोबी की बात मान ली!
कोई भी बात को बिना सोचे बिना परखे हम क्यों मान लेते हैं? रामायण में सीता के अपहृत होने का भुगतान भी सीता को ही करना पड़ा अग्नि परीक्षा देकर। क्या पता सीता ने खुद कहा हो कि रावण आओ और उठा ले जाओ मुझे। राम जो की भगवान् थे उन्होंने अपनी पत्नी पर विश्वास न किया पर एक धोबी की बात मान ली। असल में तुम ऐसे ही हो दूसरों की बातों को सुनकर किसी का चरित्र बताने वाले। कहने को ये घटना प्रभु की एक लीला कही जाती है पर वहां पर भी समर्पण सिर्फ महिला के हिस्से आया , पुरुष मुक्त है क्योंकि वो पुरुष है।
मर्दानगी का मतलब ये नहीं कि हमे मात्र खलेने की एक वस्तु समझ लिया जाये, तुम मर्द तब हो जब हमे बराबर समझ कर उतना ही सम्मान करो जिसकी कामना तुम रखते हो। लेकिन तुम्हारे समाज ने तुम्हारी सोच पर झूठी मर्दानगी का पर्दा लगा दिया है और तुम्हें लगता है कि तुम सर्वश्रेष्ठ हो और हम बस भोग की वस्तु हैं। जिस दिन ये सोच बदल जायेगी समाज की काया पलट हो जाएगी फिर कोई लड़की बलात्कार और उत्पीड़न से दुखी नहीं होगी लेकिन फिलहाल ऐसा है नहीं क्योंकि तुम सोचते हो तुम मर्द हो और तुमको सब अधिकार है।
तुम भी मुक्त हो क्योंकि तुम लड़के हो और हम बंधे हुए हैं, क्योंकि हम लड़कियां हैं।