झुलझुली गाँव दक्षिण पश्चिम दिल्ली के नज़फगढ़ क्षेत्र में बसा हुआ है। इस गाँव में रहने वाले दो भाई लालू प्रसाद और छोटे लाल, जो कि बिहार के सीतामढ़ी गाँव के हैं। उन्होंने लगभग 12 साल से पराली मैनेजमेंट को इस तरह संभाला है कि इसको शून्य कर लिया है। वो लगभग 20-22 साल पहले दिल्ली काम की तलाश में आए थे।ॉ
उनके अनुसार पराली जलना एकदम शून्य करना कोई मुश्किल बात नहीं है मगर इसमें सरकार और किसानों की भागीदारी बराबर होनी चाहिए। वो बताते हैं कि लगभग 15 साल पहले कुछ एक चरवाहे एवं गौशाला वाले लोग पराली का काम किया करते थे और हम तुड़े (चारा) का काम करते थे।
फिर झुलझुल गाँव के बाबा रामफल एवं कुछ अन्य निवासियों ने हमसे पराली उठाने के लिए कहा। पहले-पहल वे हमें मुफ्त में ही दे देते थे, बाद में काम बढ़ता गया तो हमने भी पैसा देना शुरू कर दिया और तभी से इसमें लगे हैं, फिर टीम संभव के लोगों का भी सहयोग है।
बड़े ही सहज भाव से और कुछ गौरवान्वित होते हुए छोटेलाल उर्फ मामलत कहते हैं कि उनकी उम्र 13 साल की रही होगी, जब वो अपने बड़े भाई के साथ दिल्ली खेती के समय में मज़दूरी करने आया करते थे। उस समय 1 महीने ज़मींदारों के यहां फसल की कटाई और कढ़ाई के दौरान उन्हें काम मिलता था।
कुछ और पैसे कमाने के लिए वो तुड़े (चारा) की ढुलाई का काम भी किया करते थे। तुड़े के काम के बाद ही ग्रामवासियों के कहने पर लालू प्रसाद एवं छोटे लाल ने मिलकर पराली का काम शुरू किया।
पराली प्रॉसेस से तुड़ा (चारा) बनाते किसान
छोटे लाल व उनके भाई लालू प्रसाद बताते हैं कि वे सालभर पराली प्रॉसेस करने एवं बेचने का काम करते हैं। उनके अनुसार पहले 2 महीने पराली को साईट पर इकट्ठा करने में लग जाता है, जिसमें पांच गाँव सारंगपुर, गालिबपुर, रावता, मलिकपुर एवं झुलझुली की पराली को मुख्य रूप से इकट्ठा किया जाता है।
2 महीनों में समझिए 15 दिन तो बिना सोये काम किया जाता है, क्योंकि किसान खेत जल्दी खाली करवाना चाहते हैं जिससे वे अगली फसल की बुआई जल्दी कर पाएं। इस दौरान लगभग 200-300 हेक्टयेर की पराली इक्कठी हो जाती है। पराली को इकट्ठा करने के बाद पराली की कटाई एवं ग्राहक ढूंढने का काम किया जाता है।
ग्राहक के मिलने पर ग्राहक की मांग के अनुसार चारा बनाया और सप्लाई किया जाता है। लालू प्रसाद बताते हैं कि पराली इक्कठा करने, कटाई एवं ट्रांसपोर्ट में लगभग 33 लोगों को सालभर के लिए रोज़गार मिल जाता है। फिर जैसे-जैसे मंडी में माल बिकता जाता है, कामगारों का मेहनताना और किसानों को लगभग दस हज़ार रुपये प्रति हैकटर की दर से भुगतान कर दिया जाता है।
ग्रामवासियों की मदद से मुख्यतः युवाओं की मदद से हम इस बात से बेफिक्र रहते हैं। किसान का भुगतान पूरा काम होने के बाद कर सकते हैं। किसान कभी भी पहले पैसे के भुगतान के लिए दबाव नहीं बनाते हैं। उनके अनुसार ग्रामवासी अपनी ज़मीन का एक टुकड़ा गाँव के निकट ही किराये पर दे देते हैं, जहां आसानी से पराली इक्कठी की जा सके और ज़रूरत के समय ग्रामवासी आर्थिक मदद भी करते हैं।
हज़ारों किसानों को रोज़गार दिला सकती है सरकार की पहल
छोटे लाल कहते हैं कि नजफ़गढ़ से लोड ट्रैक्टर की आवजाही में अक्सर ही जाम लग जाता है, जिससे चालान होते ही रहते हैं। उनके अनुसार, एक बार नज़फगढ़ तुड़ा मंडी को शिफ्ट करने की बात कही गई थी मगर वो आश्वासन फिलहाल ठंडे बसते में डाल दिया गया है। अगर मंडी हमारे इलाके में भी हो तो हमें नज़फगढ़ की भीड़ में ना जाना पड़े। अब काफी परेशानी होती है, चाहे ट्रैफिक की दिक्कत हो या रातभर जागने की।
वहीं, लालू प्रसाद सरकार से उम्मीद करते हैं कि अगर सरकार आर्थिक मदद और प्रोत्साहन दे तो हम कुछ किसान मिलकर एक हज़ार लोगों को सालभर का रोज़गार दे सकते हैं। वो आगे कहते हैं इसके लिए उन्हें बैंक लोन भी नहीं मिल सकता है, क्योंकि उनके पास गिरवी रखने के लिए कुछ भी नहीं है। लोन के ना मिलने पर ग्रामवासियों की भूमिका काफी अहम हो जाती है।
‘CYCLE INDIA’ के संस्थापक पारस त्यागी कहते हैं कि उन्होंने संभव टीम के साथ मिलकर आसपास के गाँव में पराली प्रबंधन को लेकर काफी प्रयास किए हैं कि किस प्रकार ग्रामवासी ऐसे मॉडल को अपनाकर अपनी पराली को जलने से बचाने के साथ-साथ आय के स्रोत भी पैदा कर सकते हैं। वो आगे बताते हैं कि उन्होंने आसपास के लगभग 11 गाँवों में हाल ही में छोटे स्तर पर यह काम शुरू कर दिया है। घुमान्हेरा, हसनपुर, शिकारपुर गाँव उसके मुख्य उदहारण हैं।
इस पर संभव टीम के रजनीश कहते हैं, “सरकार आत्मनिर्भर भारत के लिए यदि इन मॉडल को प्रमोट करे, इन्हें आर्थिक सहायता दे, तब ये लोग क्या कुछ नहीं कर सकते? ये वे छोटे-छोटे उदहारण हैं जो रोज़गार पैदा करने और किसानों की आय को बढाने में काफी कारगर साबित हो सकते हैं।”