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लॉकडाउन ने कैसे किया है युवाओं को प्रभावित?

रात हो गई है,

और आकाश में तारे जगमगा रहे हैं,

मोहल्ले में सब कोरोना की चर्चा कर रहे हैं,

शोर है, हल्ला है, शांति नहीं है,

ना घर के बाहर, ना घर के भीतर

– आरती, 12 वर्ष

लॉकडाउन महज तीन या चार महीने का रहा लेकिन उसका प्रभाव आने वाले कई महीनों तक दिखेगा। लॉकडाउन के दौरान सबकी अपनी कहानियां, संघर्ष और अनुभव हैं। कुछ मन को तोड़ जाती हैं और कुछ हिम्मत की नई मिसाल हैं।

युवाओं ने लॉकडाउन के दौरान अपने अनुभवों को किया साझा

लॉकडाउन के दूसरे हफ्ते में ही मेरी संस्था (MFF) ने अपने नेटवर्क के सभी किशोर-किशोरियों, युवाओं से वार्तालाप का माहौल बनाया। उनसे बात करके उनको यह सुनश्चित कराया कि इस सफर में वह अकेले नहीं हैं और उनके लिए, उनकी बात रखने के लिए यह एक सुरक्षित स्थान है।

धीरे-धीरे उनकी कई चिंताएं, डर और मुद्दे सामने आए। उनसे बात के बाद पता चला कि वो अपने भविष्य को लेकर काफी परेशान हैं, उन्हें अपने करियर की चिंता है। पढ़ाई की चिंता है और अकेलेपन की भी।

कविता से व्यक्त किए गए अनुभव

हमने किशोर-किशोरियों को “रूफटॉप पोएट्री” के माध्यम से इंगेज किया। जिसमें वे कविता को ज़रिया बनाकर अपनी मन की बात को कहते थे। उनकी कविताओं से यह अनुमान लगा कि लड़कियां इस लॉकडाउन से खुश नहीं हैं, क्योंकि उनके ऊपर घर के काम की ज़िम्मेदारी तो बढ़ी ही है, साथ ही साथ वह सबके साथ घरों में बहुत असहज महसूस करती हैं।

कविता के अलावा कुछ ने चित्र के माध्य्म से घरों में हो रहे एकतरफा काम के बोझ को दर्शाया (जिसमें महिलाएं ही सब कर रही थी), साथ ही कईयों ने अपने आस-पास हो रही घरेलू हिंसा का ज़िक्र भी किया।

कविता से व्यक्त किए गए अनुभव

लड़कियों ने लॉकडाउन के बीच हुई दिक्कतों का किया ज़िक्र

कुछ समय बाद हम उनके साथ ऑनलाइन सेशन लेने लगे और लगातार बात-चीत के बाद वे सहज होकर हमारे साथ बहुत कुछ साझा करने लगे। उनकी बातें सुनकर यह तो तय था कि यह बंदी किसी के लिए भी आसान नहीं हैं।

इस दौरान कुछ लड़कियों ने राशन केंद्र या भोजन वितरण केंद्र पर उनके साथ हुए छेड़-छाड़ के बारे में भी बताया। कईयों ने घरों में जगह के अभाव के कारण हो रही मुश्किलों के बारे में भी बताया कि कैसे घर का पलंग या बैठने वाला कोई भी स्थान घर के पुरुषों द्वारा ज़ब्त कर लिया गया है।

कुछ की परेशानी यह थी कि उनके माता-पिता कहां से सब इंतज़ाम करेंगे। इसके अलवा कुछ ने अपने परीक्षाओं के ना होने के डर को प्रकट किया। लड़कियों की एक गंभीर समस्या यह भी थी कि वे नहीं जानती कि लॉकडाउन के बाद भी उन्हें दोबारा स्कूल जाने दिया जाएगा या नहीं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

सबकुछ हो गया है ऑनलाइन

लॉकडाउन के दौरान सब ने ऑनलाइन शिक्षा, ऑनलाइन योगा, ऑनलाइन सेशन लेने शुरू कर दिए। इसका परिणाम यह हुआ कि किशोर-किशोरियों के लिए “स्क्रीन टाइमिंग” काफी ज़्यादा बढ़ गई। यह एक वास्तिविकता है कि फोन में केवल हम पढ़ाई-लिखाई नहीं करते हैं।

किशोर-किशोरियों ने भी ऑनलाइन क्लासेस के अलावा सोशल मीडिया का भी बहुत उपयोग किया। सेशन के दौरान उनसे संवाद के बाद यह बात सामने आई कि लड़कियां ऑनलाइन प्लैटफॉर्म्स पर कितनी असुरक्षित हैं। कई लड़कियों ने अपने खुद के अनुभव को बताया, तो कई लड़को ने यह बताया कि उनके कुछ दोस्त ऐसे हैं जो ऑनलाइन स्टॉकिंग करते हैं।

कोविड-19 ने भटकाया है युवाओं से ध्यान

यह जो किशोर-किशोरियों के मुद्दे हैं, बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। लैंगिक भेदभाव और असमानता के पनपने की यही उम्र होती हैं। हम कई बार बाकी परेशानियों और मुद्दों पर ध्यान देने में इतने व्यस्त हो जाते है कि हमें इनका मुद्दा थोड़ा कम लगने लगता हैं।

हालांकि हम अगर घरेलू हिंसा की बात करें, तो उसका प्रभाव किशोर-किशोरियों पर पूरे जीवनकाल के लिए रह जाता हैं। कुछ उस हिंसा को खुद में शामिल करते हैं, वे सोचते हैं कि किसी को पीटना आम बात है और कुछ उस हिंसा से डर जाते हैं और उसका छाप पूरी ज़िंदगी उन्हें डराता हैं। ऐसे में, यह बेहद ज़रूरी है कि हम आने वाले समाज की आधारशिला के साथ काम करें।

प्रतीकात्मक तस्वीर

कोविड-19 महामारी होने के बाद सबका ध्यान उधर चला गया है जो कि ज़रूरी भी है लेकिन बाकी मुद्दे खासकर किशोर-किशोरियों के मुद्दों से ध्यान भटक रहा हैं, उन्हें अहमियत नहीं दी जा रही हैं।

हमारी सरकारी नितियां भी बहुत कम हैं जो किशोर-किशोरियों के विकास के लिए बनी हो। सिविल सोसाइटी संगठनों को भी इस दौरान फण्ड या तो कोविड-19 के लिए मिल रहा है या उनके प्रोजेक्ट्स का झुकाव राशन वितरण या घरेलू हिंसा की ओर हो गया हैं।

युवाओं को सुनना और उनसे बात करना है बेहद ज़रूरी

ऐसे में किशोर-किशोरियों की समस्याओं और चिंताओं से लोगों का ध्यान हट गया हैं। लॉकडाउन के दौरान बहुत कम ही ऐसी वेबिनार या चर्चाएं हुई हैं जहां किशोर-किशोरियों के मुद्दों पर बात की गई और अगर की भी गई, तो बहुत कम जगहों पर इन्हें चर्चा का हिस्सा बनाया गया या उनसे उनके अनुभवों को सुना गया।

प्रतीकात्मक तस्वीर

जब भी हम किशोर-किशोरियों की समस्याओं के बारे में बात करते हैं तो यह बेहद ज़रूरी है कि हम उनको भी चर्चा का हिस्सा बनाए, क्योंकि मेरे खुद के अनुभव से मैंने यह पाया है कि जब कोई अपनी समस्याएं खुद बताते हैं, तो उसमें उनकी कहानी और सच्चाई जुड़ी होती हैं।

हमारी पॉलिसी भी बच्चों को ध्यान में रख कर बनानी चाहिए और सरकार को अन्य संगठनों को खुद से जोड़ना चाहिए ताकि केंद्र से लेकर गाँव तक किशोर-किशोरियों के मुद्दों पर ध्यान दिया जाए और उनके बेहतरी के लिए काम किया जाए। लॉकडाउन का प्रभाव मानसिक तौर पर सब पर पड़ा है, तो किशोर-किशोरियों को भी ‘Pycho-Social Support’ उसी प्रकार से मिलना चाहिए।


Written by: Samiksha Jha, Read more about the work done by PRIA and MFF.

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