छात्र जीवन में जब ‘The Stoning of Soraya M’ फिल्म देखी, उसने अंदर ही अंदर से झकझोर दिया। तब यह समझ में नहीं आया कि आखिर लोग एक समूह के रूप में इतने हिंसक कैसे हो सकते हैं। लोग अपने ही लोगों को पत्थरों से पीट-पीटकर कैसे मार सकते हैं?
फिर अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर अपने शोध के दौरान जब लगातार वहां के अखबार, साहित्य और लोगों से बात करता था, तो ऐसी घटनाएं लगातार दिखाई देती थीं। उस दौरान भीड़ द्वारा लोगों को पीट-पीटकर मार देने की घटनाएं भारत की मीडिया में तो कम-से-कम नहीं दिखती थीं। हां, उच्च जातियों द्वारा दलितों के साथ इस तरह के नरसंहार की घटनाएं होती रही हैं।
यह हमारे समाज में इतना सामान्य हो गया है कि इस पर कोई हंगामा ना पहले होता था, ना अब होता है। क्या समाज के कट्टर होने की एक प्रक्रिया होती है? पाकिस्तान में जनरल ज़िया-उल-हक के उदय और संस्थानों में कट्टरपंथ को स्थापित करने की एक व्यवस्थित कोशिश में पाकिस्तानी ‘deep state’ की कहानियां पढ़ने का अवसर मिला।
उसे पढ़ने के बाद एहसास हुआ कि समाज के कट्टर होने की एक प्रक्रिया होती है, जिसमें शासन-प्रशासन, समाज की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
भारत में पैर पसारता अमानवता का दानव
धीरे-धीरे कुछ इसी तरह की प्रवृत्तियां भारत में भी दिखने लगीं। जब एक समुदाय विशेष के लोगों को पीट-पीटकर मार देने की घटनाएं टीवी स्क्रीन और सोशल मीडिया पर खूब चलीं। बहुत सारे लोग कहने लगे कि भारत में भी व्यवस्थित तरीके से फैलाया जा रहा कट्टरपंथ अब कहीं जाकर रुकेगा नहीं।
यह कट्टरपंथ अच्छा या बुरा नहीं होता। कट्टरपंथ, कट्टरपंथ होता है चाहे किसी धर्म या संप्रदाय का हो। अल्पसंख्यक कट्टरपंथ हो या बहुसंख्यक, दोनों समाज के लिए नासूर हैं। कट्टरपंथ ने झूठ-तंत्र के सहारे समाज में व्यवस्थित तरीके से अपनी जड़ें जमाई हैं। इस कट्टरपंथ ने भारतीय समाज में व्यवस्थित तरीके से अपनी जड़ें फैलाई हैं।
इस कट्टरपंथ को फैलाने हेतु प्रोपेगंडा या झूठ-तंत्र का सहारा लिया जाता है, जिसमें झूठी सूचनाओं और अफवाहों को फैलाना, दूसरे समुदाय को एक बनी-बनाई धारणाओं में ढालकर दिखाना भी इसका एक हिस्सा है।
उस झूठ-तंत्र का ही परिणाम था कि पिछले कुछ सालों में एक व्यवस्थित तरीके से कभी गौ रक्षक के नाम पर, कभी बच्चा चुराने वालों के आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को निशाना बनाया गया। दुनियाभर में इसकी व्यापक रिपोर्टिंग हुई। दुनियाभर के प्रतिष्ठित अखबारों ने इस पर संपादकीय भी लिखी। लिंचिंग करने वालों का स्वागत फूल-मालाओं से होना किस तंत्र का हिस्सा है?
आरोपियों की फेहरिस्त में सांसद और प्रतिष्ठित समाज भी
इधर भारत में सत्ता प्रतिष्ठानों, सांसदों और यहां तक कि केंद्रीय मंत्रियों ने भी इस तरह की घटनाओं पर अलग-अलग तरह से ना सिर्फ मूक सहमति जताई, बल्कि कहीं-कहीं तो समर्थन भी किया। इसमें एक अपने हार्वर्ड वाले राज्यमंत्री तो लिंचिंग के आरोपियों के स्वागत में माला लेकर भी खड़े दिखे।
बहुसंख्यक समाज को यह लगने लगा कि जो हो रहा है ज़रूरी है। यह होना चाहिए था। एक समुदाय को सबक सिखाने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में बहुसंख्यक समाज यह भूल गया कि कैसे इस विचार को प्रायोजित और समर्थित करते-करते उनके अंदर भी एक नफरती हैवान पैदा होने लगा।
कट्टरवाद और नफरत की सबसे बड़ी समस्या क्या है? इस कट्टरवाद और नफरत की सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक बार जिन बाहर निकल जाता है तो यह भस्मासुर किसी के नियंत्रण में नहीं रहता। यहां तक कि जिसने इसको बनाया होता है। यह उसको भी खाने के लिए तैयार रहता है। इसीलिए, समझने की ज़रूरत है जिनको लिंच करके मारा जा रहा है वह किसी धर्म के नहीं हैं।वह इंसान हैं और मारने वाले भी इंसान हैं।
संसार में हत्यारे और पीड़ित की एक ही भूमिका, एक ही धर्म
इस बार तो सुना दोनों एक ही धर्म को मानने वाले इंसान हैं। हां, पाकिस्तान में शिया सुन्नी को मारते हैं। अफगानिस्तान में पश्तून, हज़ारा, ताजीक, तुर्क को लिंच करते हैं। पूर्वी पाकिस्तान में पंजाबी मुस्लिमों ने बंगाली मुस्लिमों को लिंच किया था। इराक, ईरान और टर्की में कुर्द को मारा जाता है।
भारत में भी हिंदुओं में उच्च जाति वालों द्वारा दलितों को लिंच करने का “गौरवशाली इतिहास” है। उत्तर अमेरिका के इतिहास में यूरोप से आए गौरों ने अफ्रीकन कालों को खूब लिंच किया है। ब्रिटेन में कैथोलिक ने प्रोटेस्टेंट को लिंच किया है। ऑस्ट्रेलिया में श्वेतों ने मूल निवासियों को ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप से ही गायब कर दिया।
धर्म से पहले इंसानियत को कुचलने वाली रूपरेखा
तो यहां पर सवाल धर्म का नहीं है, सवाल है इन इंसानों को नफरत ने हैवान बना दिया है। तभी तो इतने छोटे-छोटे बच्चे इतने बुज़ुर्ग आदमी को मारते हुए दिख रहे हैं। जबकि बुज़ुर्ग साधु के चेहरे से खून निकल रहा है। 15 से 18 साल के यही बच्चे बोई गई नफरत के नशे में दिल्ली दंगों में दूसरों के घरों को जलाते हुए दिखे। यह सभी हैं कौन? यह सब हमारे समाज के हिस्से हैं, हमारे देश के नागरिक हैं।
दरअसल, इस तरह से लिंचिंग करने की प्रक्रिया भारत में एक दिन में शुरू नहीं हुई है। नफरत का एक पूरा तंत्र हमारे अंदर मौजूद है। इसे पालने, फलने-फूलने के लिए खाद और समर्थन भी हमारे ही तंत्र के अंदर से आ रहा है। अफसोस की बात है कि अब यह पागलपन रुकने वाला नहीं है। यह चलता रहेगा और जो लोग कल तक लिंचिग को लेकर चुप थे आज बोलने लगे हैं। जो आज भी नहीं बोल पा रहे हैं, वे कल बोलेंगे, जब अगली बार किसी लिंचिंग में उनके परिवार का सदस्य होगा।