छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में बसा है बिंझरा गॉंव, जहां गॉंववासियों का मुख्य पेशा खेती है। यहां के 70 साल के बुज़ुर्ग रामस्वरूप बताते हैं कि गोंड समुदाय खेती से जुड़े रीतियों को श्रद्धापूर्वक निभाते हैं।
खेत की जुताई देवी धरती माता और देवता रक्सा बूढ़ा की प्रार्थना से शुरू होती है। इस अवसर पर नारियल फोड़ा जाता है। धरती माता की प्रार्थना अच्छी फसल और अधिक-से-अधिक उत्पादन के लिए की जाती है। रक्सा बूढ़ा की पूजा यह मानकर की जाती है कि रक्सा बूढ़ा उनकी फसल की रक्षा करेंगे।
पानी की कमी के कारण साल में एक बार होती है धान की खेती
जुताई के बाद समय आता है रोपाई का। रोपा लगाने के पहले भी देवता रक्सा बूढ़ा की प्रार्थना करते हैं, ताकि फसल को कोई नुकसान ना हो।
किसान जानते हैं कि धान की खेती में बहुत पानी की ज़रूरत होती है। कम पानी में धान की खेती करना असंभव है लेकिन बिंझरा गॉंव जहां पानी की कमी है, गॉंववासी कम पानी में खेती करते हैं। इस प्रकार, यहां की खेती बाकी जगहों से अलग है। पानी की कमी के कारण धान की खेती साल में सिर्फ एक बार होती है।
जैविक खाद का उपयोग
खेती 90 दिनों में पूर्ण हो जाती है। रोपाई में अधिकतर निम्न कोटि के धान का प्रयोग होता है। निम्न कोटि के बीज कम पानी में भी सेहतमंद फसल हो जाते हैं। इसमें जैविक खाद डाले जाते हैं। जैविक खाद अक्सर गॉंवों में अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
जैविक खाद को इकट्ठा करके इसे खेतों में डाला जाता है। इससे फसल अधिक मात्रा में होती है। कुछ खेती बाज़ार में मिलने वाले “एक हज़ार दस” नामक मोटे बीज से भी होती है।
खलिहान को “कोठार करना”
धान कटाई की भी प्रक्रिया बाकी जगहों से अलग है। कटाई करने से पहले थोड़ा सा धान काटकर अलग कर लिया जाता है। इसे छत्तीसगढ़ की स्थानीय भाषा में “मुठीया काटना” बोलते हैं। मुठीया काटने के बाद सभी धान की कटाई करते हैं। कटाई करने के बाद धान को दो से तीन दिनों तक खेत में ही सुखाया जाता है। धान को रखने के लिए खलिहान बनाए जाते हैं।
खलिहान की मिट्टी से छपाई की जाती है। फिर, गोबर से लिपाई करते हैं। इसे आदिवासी खलिहान को “कोठार करना” कहते हैं। खलिहान में धान रखा जाता है, फिर बैल के द्वारा धान की मिसाई की जाती है।
मिसाई खत्म होने के बाद धान की सफाई की जाती है। धान की अंतिम मिसाई होने पर खलिहान में ही धान की पूजा की जाती है। बुज़ुर्गों का कहना है कि पूजा करने से अन्न घर में हमेशा भरा रहता है। इसके बाद मनपसंद पकवान बनाए जाते हैं और अपने आसपास के लोगों को प्रसाद खाने के लिए बुलाया जाता है।
गोंड आदिवासियों की ये पारंपरिक खेती सख्त-से-सख्त वातावरण के अनुकूल ढलकर पर्यावरण के साथ संतुलन में रहना सिखाती है। वे हर चरण में खुशियां मनाते हैं।
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लेखिका के बारे में- वर्षा पपुलस्त छत्तीसगढ़ में रहती हैं। वह स्टूडेंट हैं, जिन्हें पेड़-पौधों की जानकारी रखना और उनके बारे में सीखना पसंद है। उन्हें पढ़ाई करने में मज़ा आता है।