भारतीय शिक्षण संस्थानों की बात होते ही कई सवाल ज़हन में उठने शुरू हो जाते हैं। इस संदर्भ में सरकारी और प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के बीच का गैप आकर्षण का केन्द्र रहता है। मिडिल क्लास फैमिली से आने वाले स्टूडेंट्स के पास भी तमाम ऑपशन्स ज़रूर होते हैं मगर बात रिस्क की भी आ जाती है।
वहीं, आर्थिक तौर पर सम्पन्न परिवारों से आने वाले स्टूडेंट्स के पास शिक्षण संस्थानों के चयन हेतु तमाम संभावनाएं होती हैं। अगर इंजीनियरिंग की बात की जाए तो आईआईटी में उत्तीर्ण नहीं होने पर भी डोनेशन के रास्ते अच्छे प्राइवेट कॉलेजों में एंट्री हो जाती है। अब मिडिल क्लास के स्टूडेंट्स क्या करें?
उनके पास सीमित संभावनाओं के बीच रिस्क अधिक होता है। हां, एक बात ज़रूर है कि यदि आपका वास्ता मिडिल क्लास या लोअर मिडिल क्लास से भी है फिर तो बचपन से ही आपको अपनी पढ़ाई मज़बूत रखने की ज़रूरत है मगर संभवत: ऐसा हो नहीं पाता है।
मसला यह भी है कि हमारे तमाम शिक्षण संस्थानों में क्या कोर्स की पढ़ाई के अलावा पेशेवर तौर पर स्टूडेंट्स खुद को कैसे स्थापित करें, इसके लिए कोई व्यवस्था है?
जहां तक मेरा निजी अनुभव है, मैं समझता हूं कि शिक्षण संस्थानों में पेशेवर तौर पर आपको सक्षम बनाने के लिए बहुत कम स्कोप है। मैं इंजीनियरिंग कॉलेज का ही उदाहरण इसलिए दे रहा हूं, क्योंकि मैंने चार साल बीटेक की पढ़ाई की है और मुझे मालूम है कि छोटे शहरों की गलियों से निकलकर अपने सपनों को साकार करने के लिए जब तमाम स्टूडेंट्स दूसरे शहरों या महानगरों में स्थित शिक्षण संस्थानों का रुख करते हैं, तब कई चुनौतियां निलकर सामने आती हैं।
उन्हीं चुनौतियों में से एक है शिक्षण संस्थानों में वोकेशनल ट्रेनिंग की अच्छी व्यवस्था का ना हो पाना। जब चंडीगढ़ के एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में मेरा दाखिला हुआ था, कई सपने लेकर मैं हर रोज़ क्लास रूम में जाता था। ऐसा लगता था कि यही तो ज़िन्दगी है, जो लोग गाँवों या शहरों में छूट गए, उन्होंने बहुत कुछ छोड़ दिया।
हम तो निकले सबसे भाग्यशाली मगर एक दिन उस वक्त हमारा यह वहम टूट गया, जब कैंपस में प्लेसमेंट के लिए अच्छी कंपनियां आई ही नहीं और हमें बाहर जाकर जॉब तलाशना पड़ा।
लाखों की फीस खर्च कर इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन लेकर यूं लगा था, जैसे जॉब लगने के बाद लाइफ अच्छी हो जाएगी। आज अपने दम पर जॉब तो लग गई मगर कम सैलरी और ओवरटाइम के दबाव ने मेरे आत्मविश्ववास को छीनकर मुझे डिप्रेशन में डाल दिया।
यदि कॉलेज में वोकेशनल ट्रेनिंग की अच्छी व्यवस्था होती, तो शायद हम स्टूडेट्स और अधिक आउटपुट दे पाते। खैर, इससे पहले एक लेख में हमने वे तमाम बातें लिखी हैं कि कैसे पहली नौकरी मिली और उसके पीछे की कहानी क्या थी।
मुझे जब पहली नौकरी मिली, तब अंदाज़ा हुआ कि हमारे कॉलेज में सिर्फ किताबों का ज्ञान ही दिया गया। हमें पेशेवर तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए कुछ भी नहीं बताया गया। बाज़ार की ज़रूरत के मुताबिक हमें एक कुशल इंजीनियर नहीं बनाया गया, वह तो शुक्र है कि इंटरनेट के ज़रिये हमने वह सारी चीज़ें बड़ी शिद्दत से सीखी जिससे हमें वंचित रखा गया था।
मेरा कहना यह है कि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों द्वारा स्टूडेट्स से मोटी रकम क्या सिर्फ इसलिए वसूली जाती है कि एक दिन कोर्स खत्म हो जाए और आप बाहर जाकर जॉब तलाशने लगें? ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इंजीनियरिंग कॉलेज मतलब कोर्स खत्म और पैसा हजम!
एक और अजीब बात यह भी है कि जब हम कंपनियों में नौकरी के लिए जाते हैं, तब उनके लिए हम कोई इंटर्न नहीं होते कि हमारी हर गलतियों के लिए हमें माफी मिले अब अगर कॉलेज में हमें प्रैक्टिकल चीज़ों के बारे में अधिक नहीं बताया गया है फिर ज्ञान आएगा कहां से?
अब रास्ता एक ही बच जाता है कि यूट्यूब पर वीडियोज़ देखकर हम प्रैक्टिकल नॉलेज बढ़ा पाएं ताकि कंपनियों में नौकरी के दौरान बेइज्ज़ती ना हो। मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर यही कहना चाहूंगा कि भारत सरकार को प्राइवेट और सरकारी शिक्षण संस्थानों में ना सिर्फ वोकेशनल ट्रेनिंग अनिवार्य करने की ज़रूरत है, बल्कि जांच टीम द्वारा यह भी चेक करना होगा कि क्या वाकई में ऐसी कोई व्यवस्था है भी या नहीं!