मेरे गांव से मिली एक खबर ने कल से ही मेरे मन को व्यथित कर रखा है। राजस्थान के अज़मेर जिले में सूंदर पहाड़ी की गोद में बसा गांव शिखरानी और यहां कल एक 14 वर्ष की बच्ची ने आत्म हत्या कर ली।
जी हां, वह महज़ 14 साल की ही थी। अफसोस की बात है कि खेलने कूदने की उम्र में उसे इतना तनाव मिला कि उसने जीने की जगह दुनिया को ही अलविदा कहना उचित समझा।
चिंता की बात सिर्फ इस बच्ची मौत नहीं
मेरी चिंता का विषय सिर्फ इस बच्ची की मौत नहीं बल्कि मेरे गांव में आत्महत्या का बढ़ता आंकड़ा है। विशेषकर युवा पीढ़ी भटक रही है। यह पहला मामला नहीं है, इससे पूर्व लॉकडाउन में भी एक नवविवाहिता ने भी घर के आपसी विवाद के चलते आत्महत्या कर ली थी।
एक ही वर्ष में दो युवा वो भी लड़कियों का इस तरह का आत्मघाती कदम उठाना मुझे बेचैन कर रहा है। मेरा भ्रम भी टूट गया कि हमारा गांव बाकी ग्रामीण क्षेत्रों से ज़्यादा विकसित और खुली सोच वाला है। यह वही शिखरानी है जिसमें मैंने 90 के दशक में लड़कियों को मोटर साइकिल चलाते देखा। बिना किसी डर के साइकिल से शहर पढ़ने जाते देखा और यहां कभी छेड़छाड़ या बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों की खबर नहीं सुनी।
बदलते वक्त के साथ गांव के हालात इतने कैसे बिगड़ गए कि लड़कियों को आत्महत्या करनी पड़ रही है? ज़माना आगे बढ़ रहा है, लड़कियां अंतरिक्ष में घूम रही हैं और मेरे गांव की लड़कियां पंखे से झूल रही हैं। आखिर क्यों? कौन जिम्मेदार है?
आत्महत्या के कारणों पर चर्चा करके मैं अपना किमती समय बर्बाद नहीं करना चाहता। यहां मैं बात करुंगा उस मानसिकता की जो आज की युवा पीढ़ी के पंख को जकड़े हुए है और उन्हें उड़ने से रोकती है। आखिर माँ-बाप और बच्चों के बीच इतनी संवादहीनता क्यों है?
क्यों युवाओं को अपनी समस्याएं अपने साथियों के साथ साझा करना ज़्यादा सरल लगता है। जबकि माँ-बाप और परिवार जिन्होंने पैदा करके पाला-पोसा उनके आगे कुछ भी बोलने से घिग्घी बंध जाती है। माँ-बाप जिन्हें संरक्षक होना चाहिए, उनसे इतना डर कि बच्चे अपनी परेशानी भी बांटने से डरने लगते हैं?
परिवार में संवादहीनता क्यों?
किसी ज़माने में रात के खाने का समय परिवार में संवाद का समय हुआ करता था लेकिन आजकल यह प्रथा खत्म हो चुकी है। बच्चे तो बच्चे बड़े-बुज़ुर्ग भी मोबाइल से इतने चिपके रहते हैं कि खाने के वक्त एक हाथ थाली में तो दूसरा फोन पर रहता है। नज़र भी खाने के बजाये फोन पर टिकी रहती है और मन खाने के स्वाद पर ध्यान लगाने की जगह फोन पर चल रही बातों में व्यस्त रहता है। ऐसे में युवा पीढ़ी का भटकना लाज़मी है।
एक ही छत के नीचे रहते हुए भी फोन से जुड़े रहने का चलन आपको चिंतित नहीं करता? मुझे तो करता है, मैं इस बात को भी स्वीकारता हूं कि मैं भी इसमें जकड़ा हुआ हूं लेकिन औरों से अलग हूं। क्योंकि खुद को बदलने की निरंतर कोशिश कर रहा हूं। तकनीक की बात छोड़िये, लोगों ने कभी भी मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। जहां मानसिक रोगी को पागल और मानसिक चिकित्सालय को पागलखाना कहा जाता रहा हो। वहां कोई क्यों अपनी समस्या उजागर करेगा? किसी को अपने माथे पर पागल का ठप्पा नहीं लगवाना।
जहां मनोचिकित्सक की ज़रूरत है, वहां समाज पंडित के बहकावे में रहता है
ज़्यादा दूर न जाते हुए मैं इस बात को अपने ही एक निजी उदाहरण से समझाता हूं कि जब मैंने अपने परिवारजनों को कहा कि “मुझे डिप्रेस सा फील होता है, किसी सायकेट्रिस्ट को दिखाना चाहिए,” तो उस बात को समझने में चार महीने लग गए। जबकि एक पंडित ने कहा कि पुखराज की अंगूठी पहनने से मेरी परेशानी दूर हो जाएगी तो वह महंगे सोने की अंगूठी चौथे दिन मेरी ऊंगली में थी। जहां परेशानी को दूर करने के लिए मनोचिकित्सक की तीन सौ रूपए की फीस से ज़्यादा तवज्जो सोने की तीस हज़ार की अंगूठी को मिलती है। ऐसी मानसिकता ही युवाओं को डिप्रेशन और आत्मघाती कदम उठाने पर मज़बूर कर रही है।
अरे भाई परेशानी का निवारण चाहे मिले न मिले किसी की परेशानी सुनकर उसे समझने की कोशिश भी कर लोगे तो उसका मन हल्का हो जायेगा। शायद उसके बाद उसे इलाज की ज़रुरत ही न पड़े लेकिन आजकल रिश्तो में संवादहीनता इतनी बढ़ती जा रही है कि लोग अपनों से ही बातें साझा करने से कतराते हैं।
मैंने अपनी मानसिक स्थिति किसी को बताई तो लोग पागल कहेंगे। मैं पागल थोड़ी हूं जो पागलों के डॉक्टर के पास जा कर इलाज करवाऊं। फिर अंदर ही अंदर घुट कर छोटा सा घाव कब नासूर बन जाता है पता ही नहीं चलता। दोषी आजकल के न्यूज़ चैनल्स को भी ठहराया जा सकता है, जो किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या की खबर को कुछ इस तरह से भावनात्मक रूप दे कर पेश करते हैं। आज आत्महत्या भी पब्लिसिटी लगने लगती है।
लोगों को लगता है कि उनके पीछे से भी ऐसे ही गम का पहाड़ टूट पड़ेगा और चारों ओर उदासी छा जाएगी। अब नादानों को कौन समझाए कि जब तक मीडिया का निजी स्वार्थ न हो तब तक न्यूज़ चैनल किसी ख़बर में दिलचस्पी लेते ही नहीं। यह कड़वा सच है कि मौत को लोग कुछ दिन में भूल जाते हैं ओर परिवार भी साल भर के बाद दुःख से उबरने लगता है। आपकी मौत व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि किसी के जाने से भले ही कम या ज़्यादा फर्क पड़े परंतु किसी की ज़िन्दगी रूकती नहीं चलती रहती है। क्योंकि जीना इसी का नाम है।
सोशल मीडिया की दुनिया से निकल कर एक-दूसरे से वार्ता करना ज़रूरी
परिवार के साथ समय व्यतीत करके संवादहीनता को पहले कम और धीरे-धीरे ख़त्म करना ज़रूरी है। कोई भी परेशानी आपकी जान से ज़्यादा बड़ी नहीं हो सकती। मरना बहुत ही आसान है, मुश्किल तो जी कर कठिनाइयों का सामना करने में आती है। मेरा विश्वास कीजिये, जीत हो न हो, मुक़ाबले में भाग लेना भी संतुष्टि देता है और आपको बहुत कुछ सिखाता है।
जब भी मरने का खयाल मन में आये तो एक बार रुकें, सोचें और खुद से बोले् कि इस बार नहीं, ज़िन्दगी को एक मौका और दे कर देखते हैं, और फिर से कोशिश करते हैं। लड़कियों के लिए तो ज़माना आज भी वही है, उतना ही पराया और निर्दयी। वक्त बदल रहा है लेकिन लोगों की सोच आज भी बेटे को कुल का दीपक मानती है। फिर चाहे बेटी का दीपिका ही क्यों न रखा हो।
अफसोस कि जो लोग लड़कियों की वकालत करते हैं वह खुद उत्तराधिकार के लिए बेटा पैदा करते हैं। भले ही दंगल फिल्म में महावीर फोगाट ने बेटियों को बेटों से बढ़ कर बताया हो और समाज को ज्ञान दिया हो लेकिन असल जीवन में कोशिश करते करते, उन्होंने भी चार बेटियों के बाद घर का चिराग पैदा करके ही दम लिया।
मैं बस अपने गांव की युवा पीढ़ी को खुद का उदाहरण दे कर समझाना चाहूंगा कि समस्याओं से भागने के बजाये उनका बहादुरी से मुकाबला करें। गांव की किसी भी बहन-बेटी-बहु को किसी भी प्रकार की कोई भी समस्या हो वह मुझसे साझा कर सकती है।
मैं आश्वस्त करता हू्ं कि बिना किसी परिणाम की परवाह किये मैं उनकी समस्या का समाधान करने की पूरी कोशिश करुंगा। शिखरानी गढ़ के द्वार हर उस इंसान के लिए चौबीस घंटे खुले हैं जो ज़िन्दगी से हताश हैं। आप हताश हैं लेकिन हम आपको निराश नहीं करेगें, हम मिल कर कोशिश करेगें और जीतेंगे।