“काश सुरक्षा भी किसी दुकान पे मिलती, उसको ख़रीद के रख लेती, ताकि सपनों को पूरा कर सकूँ”
ये बात 14 वर्षीय नेहा ने कही है। आखिरी बार जब मैं नेहा से मिली थी तो उसने अपने ही घर के असुरक्षित माहौल के बारे में बताया था। बाद में पता चला कि अपनी स्कूल की प्रिंसिपल की मदद से नेहा ने अपने साथ हो रहे यौन उत्पीड़न की शिकायत पुलिस में की और उसके बाद POCSO कानून के तहत उत्पीड़क पर करवाई की गई।
वो घटना जो इंसानियत पर धब्बा है
नेहा ने जब मुझसे अपने अनुभव साझा किए तो मुझे हाल के ही दिन की एक घटना याद आई। ऐसी घटना, जो इन्सानियत पर तो एक शर्म का धब्बा है ही, उसके अलावा कानून व्यवस्था में भी आरजकता और कमी का उदाहरण है। दिल्ली के मॉडल टाउन में एक 17 वर्षीय नाबालिक की मृत्यु उसके कार्य स्थल पर हुई, जहां वो घरेलू सहायक के तौर पर काम कर रही थी।
इसमें पीड़िता के परिवार वालो का कहना है कि बच्ची के साथ बलात्कार हुआ और फिर उसे मार दिया गया, क्योंकि मौत से कुछ घंटे पहले उसने घर पर फोन कर के बताया था कि उसके नियोक्ता उसे ड्राइवर के साथ सोने के लिए ज़बरदस्ती कर रहे हैं। यह घटना भी हमेशा से हो रही ऐसी घटनाओं की तरह ही कई सवाल खड़े करती हैं कि आखिर क्यों 17 साल की महज आयु में शिक्षा को उसने नहीं अपनाया? घरेलू सहायकों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी किसकी? FIR करने में इतनी देरी क्यों?
हाल में ही द्वारका की एक बस्ती में मैं कुछ किशोरियों के साथ सुरक्षा और उसके मायने पर एक सत्र करने गई। उन्होंने खुद से जुड़ी कई कहानियां और अनुभव बताए। ये किशोरियां भी प्रवासी कामगारों के बच्चे हैं, जो कि द्वारका की एक झुग्गी में रहते हैं, जहां सुरक्षा एक सपने जैसा है। मॉडल टाउन की 17 वर्षीय पीड़िता और द्वारका बस्ती की इन लड़कियों में कोई विशेष फर्क नहीं है। जाति और लिंग का डरावना प्रकोप इन्हें भी जकड़े हुए है।
लड़कियों में असुरक्षा का डर निरन्तर बढ़ता जा रहा है
अक्टूबर महीने में MeToo मूवमेंट का भारत में दूसरा साल पूरा हुआ। किशोरियों ने भी यौन उत्पीड़न को अनुभव किया है और ये MeToo के छुपे हुए सर्वाइवर्स हैं, जिनके अनुभव उतनी गतिशीलता से उभरकर सोशल मीडिया पर नहीं आ पाए। मार्था फैरेल फाउंडेशन ने लॉकडाउन के दौरान किशोरियों के साथ एक सर्वे किया, जिसमें यह निकलकर आया कि हर लड़की किसी ना किसी जगह असुरक्षित ज़रूर महसूस करती है।
127 प्रतिभागियों में से 102 ने कहा कि वे अपने समुदाय में ही घूमने से असुरक्षित महसूस करती हैं, क्योंकि अक्सर उनके कपड़ों और शरीर के बारे में भद्दी टिप्पणियां की जाती हैं।
महिला सुरक्षा में अभाव के मुद्दे से हम सब परिचित हैं। हम सब इस बात को समझते हैं और कहीं ना कहीं मानते भी हैं कि महिलाएं और लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं मगर क्या सिर्फ यह कहने से सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी? द्वारका में लड़कियों के साथ सत्र करने के बाद यह बात पूरी तरह से तय हो गई कि सबके लिए सुरक्षा की परिभाषा अलग है और उसके मायने भी अलग हैं।
सुरक्षा में कमी बस अब सड़कों की कहानी नहीं रही। 15 साल की एक लड़की ने कहा, “ये ज़रूरी नहीं कि हमारा घर भी सुरक्षित हो, मुझे अपने घर में असुरक्षित महसूस होता है।” ये वाक्य एक व्यक्तिगत अनुभव है और ये सवाल उठाता है कि घर जैसे निजी जगहों पर हम किसको पहरेदारी पर लगा दें?
सुरक्षा नीतियां कागज़ी दस्तावेज बनकर रह गए हैं
हम लड़कियों की सुरक्षा, उनकी पढ़ाई, उनके भविष्य निर्माण को लेकर कई योजनाएं बनाते हैं, कई दिवस मनाते हैं मगर कितने कारगर होते हैं ये? लड़कियों से बातचीत के बाद, मैं ये सब सोचने को मजबूर हो गई। जब 13 साल की एक बच्ची अपने स्कूल में सुरक्षित महसूस नहीं करती, जब उसे घर से स्कूल आने-जाने के रास्ते पर डर लगता है, तब ये सभी सुरक्षा नीति बस कागज़ी दस्तावेज़ लगते हैं। यह बात मार्था फैरेल फाउंडेशन के सर्वे में भी निकलकर आई कि ज़्यादातर किशोरियां अपने स्कूल, बस स्टैंड और कॉलेज में बेहद असुरक्षित महसूस करती हैं।
लड़कियों ने सड़क पर, चौराहे पर लड़कों के झुंड द्वारा छेड़खानी की कई घटनाएं साझा कीं। कुछ व्यक्तिगत अनुभव थे और कुछ उन्होंने आते-जाते देखे थे। 17 साल की अमीशा ने कहा, “मेरी नज़र में ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां मैं बिना डर के जा पाऊं, हर जगह यह एहसास होता है कि कहीं कोई आकर कुछ कर ना दें।” इस तरह के डर और असुरक्षा में ये बेहद मुश्किल हो जाता है कि कोई अपने बेहतर भविष्य की कल्पना भी कर पाए।
जब मैंने लड़कियों से उनकी प्रतिक्रिया जानने को ये पूछा कि आप उन लड़कों और आदमियों को जवाब क्यों नहीं देतीं? तो उन्होंने बताया कि जवाब देना उनके लिए मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने कभी जवाब दिया ही नहीं।
19 साल की सुनीता का कहना है कि हमें बचपन से दबाकर रखा गया, कभी कुछ सवाल पूछने नहीं दिया गया, हम अचानक जवाब कैसे दे दें? अगर हमारे घर में हमें बोलने की आज़ादी दी जाती, हम निर्णय ले पाते तो आज हम में आत्मविश्वास होता और हम मुकाबला करने से डरते नहीं। उनका यह भी मनाना था कि उनके साथ हो रहे लैंगिक भेदभाव ने भी उनको बेहद असुरक्षित बनाया है।
15 साल की गुलिस्ता का कहना था कि डर और असुरक्षा हमें बस लड़कों से नहीं है, बहुत सारी लड़कियां और औरतें भी ऐसी हैं जिनसे उन्हें असुरक्षित महसूस होता है। उनके लिए असुरक्षा बस सुरक्षा की कमी नहीं है, बल्कि असुरक्षा वैसा माहौल है जिसमें वे खुलकर नहीं जी पाती हैं।
हालांकि महिलाओं और लड़कियों की असुरक्षा से सब परिचित हैं। सब जानते हैं कि लड़कियों और महिलाओं के लिए कितना डरावना माहौल है। हम इन्हें रोज़ पढ़ते हैं, देखते हैं, सुनते हैं और स्क्रॉल करते हैं। सवाल यह है कि जब हम चाहते हैं कि लड़कियां अपनी आवाज़ बुलंद करें, अपने सपनों को पूरा करें और एक खूबसूरत कल की ओर कदम बढ़ाएं, तो ये सब सुरक्षा जैसे मौलिक ज़रूरत के बिना कैसे पूरा हो पाएगा?
By- समीक्षा झा, MFF