आज पूरा देश कंगना से लेकर रिया तक के ऐसे मुद्दों में उलझा है, जिसका हासिल कुछ भी नहीं है। गैर-ज़रूरी बहसों के बीच बेहद ज़रूरी सवाल उठा रहे बेरोज़गार युवाओं की आवाज़ किसी को सुनाई नहीं दे रही है।
सालों तक प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे युवा अब सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक अपना विरोध दर्ज़ करा रहे हैं, सवाल कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए सत्ता से संघर्ष कर रहे हैं।
मीडिया की सुर्खियों में इन्हें जगह नहीं मिलती। टीवी देखिए तो एक चैनल रिया की गिरफ्तारी को अपनी जीत बता रहा है, तो वहीं दूसरा चैनल कंगना को रानी लक्ष्मीबाई का अवतार। आज रोज़गार जैसे अनिवार्य मुद्दे पर टीवी चैनलों में एक लाइन की खबर तक नहीं दिखाई जा रही है।
आखिर आक्रोशित क्यों है युवा ?
रायपुर निवासी आर विजयंत पिछले 3 साल से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। परीक्षा के बाद सरकार परिणामों की घोषणा में देरी कर रही है। विजयंत कहते हैं,
“सरकार की नज़रों में हमारी मेहनत का कोई मोल नहीं है, शायद इसीलिए ना नई नियुक्तियां होती है और ना ही समय पर परिणाम निकाले जाते हैं। इसीलिए हमें भी आंदोलन का सहारा लेना पड़ रहा है।”
भर्ती परीक्षाओं और परिणामों में देरी, परीक्षाओं से जुड़े कई विवाद, समय पर नियुक्तियां नहीं करना ये कुछ ऐसे कारण जिसके चलते आज अच्छी शिक्षा हासिल करने के बाद भी युवाओं के पास रोज़गार नहीं है।
इसी के चलते इलाहाबाद से लेकर रायपुर तक और रांची से लेकर नासिक तक युवा सड़क पर हैं। हजारों छात्र थाली-चम्मच पीटकर, मोबाइल फ्लैश जलाकर बेरोज़गारी के खिलाफ प्रदर्शन करते नज़र आ रहे हैं। सोई हुई सरकार को उसी के तरीकों से जगाने की कोशिश कर रहे हैं। विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर #9बजे9मिनट और #युवा_मांगे_रोज़गार जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे।
क्या कहते हैं आंकड़े ?
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकनॉमी यानी सीएमआईई (CMIE) ने कहा है कि जुलाई के महीने में करीब 50 लाख लोगों की नौकरी गई है, जिसके चलते कोरोना वायरस महामारी और लॉकडाउन की वजह से नौकरी गंवाने वालों की संख्या 1.89 करोड़ तक पहुंच गई है।
सीएमआईई की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, जब से लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से नौकरीपेशा कर्मचारियों की स्थिति खराब ही होती गई है। कोरोना से पहले की स्थिति जानने के लिए सीएमआईई की रिपोर्ट देखें, तो लगता है कि फरवरी 2019 में भारत में बेरोज़गारी दर बढ़कर 7.2 फीसदी तक पहुंच गई थी।
ध्यान रहे सीएमआईई ने बताया था कि नोटबन्दी और जीएसटी के बाद साल 2018 में 1.1 करोड़ लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। आंकड़ों से स्पष्ट है कि बेरोज़गारी की समस्या कितनी गम्भीर है बावजूद इसके ना यह समाचार चैनलों की सुर्खियां बनते हैं और ना ही राजनीतिक मुद्दों में शामिल होते हैं।
सरकार और मीडिया से निराश हैं युवा
बैंकिंग की तैयारी कर रही सुप्रिया कहती हैं,
“नेताओं को रोज़गार, गरीबी और महिला सुरक्षा जैसे ज़मीनी मुद्दों से कोई मतलब नहीं है। उन्हें बेरोज़गार युवाओं की कोई परवाह नहीं है।”
वहीं लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी कर रहे उत्कर्ष कहते हैं,
“हर सरकार बेरोज़गारों पर राजनीति करती है। युवाओं के सहारे नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं, मगर उनकी समस्याओं को दूर करने का ख्याल तक उन्हें नहीं आता।”
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से युवाओं को भयंकर निराशा हाथ लगी है। जनता के सोचने समझने की शक्ति भी मानों आज न्यूज़ चैनलों के हाथ में है। जमीनी हकीकत से कोसों दूर उन लोगों की बातें कही-सुनी और दिखाई जा रही जिनका आम जनता के जीवन से कोई वास्ता नहीं है।
बस्तर विश्वविद्यालय के प्रदीप कहते हैं, “आज न्यूज़ चैनल जनता तक खबर नहीं पहुंचा रहे बल्कि फैसले सुना रहे हैं, रोज़गार मुद्दा नहीं बनता क्योंकि कभी बताया ही नहीं गया कि यह सबसे ज़रूरी है।”
बेरोज़गार युवा अधिकारों के प्रति सचेत होते हुए सवाल कर रहे हैं। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक उनका माध्यम बन रहा है, देखना यह होगा कि आखिर कब मीडिया इन बेरोज़गार युवाओं की सुध लेगा और राजनेताओं तक इनके सवाल लेकर जाएगा, ताकि इनकी समस्या दूर हो सके।