अगस्त महीने की 27 तारीख को माननीय सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यों की बेंच ने भारत की अनुसूचित जातियों के संवैधानिक आरक्षण के विषय में एक निर्णय दिया। इस निर्णय में भारत की विभिन्न राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वह अपने-अपने प्रदेशों में अनुसूचित जाति आरक्षण (SC) को उप-विभाजित कर सकती हैं।
इसे दूसरे शब्दों में, आरक्षण के अन्दर आरक्षण कहा जा सकता है। इसे SC आरक्षण के अंतर्गत क्रीमीलेयर लागू करने वाला फैसला भी कहा जा सकता है।
इससे पहले सन् 2004 में सर्वोच्च न्यायालय की ही एक अन्य पांच सदस्यीय बेंच ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अनुसूचित जातियों को मिले 12.5% संवैधानिक आरक्षण में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ सामाजिक न्याय की मूल धारणा के विरुद्ध है। ऐसे में, हाल ही में आया यह नया निर्णय जहां एक ओर 2004 के निर्णय के पूर्णतः विपरीत है, वहीं इसे दलित समाज भी एक विभाजनकारी निर्णय के रूप में देख रहा है।
संयुक्त दलित अस्मिता विरोधी निर्णय
संयुक्त दलित अस्मिता विरोधी इस नए निर्णय के पीछे यह तर्क दिया गया है कि कुछ ही दलित जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है। वह इसलिए कि अनुसूचित जातियों में कुछ सम्पन्न जातियां और लोग ही आरक्षण के सारे लाभ और नौकरियां ले रहे हैं। जबकि कुछ जातियों को आरक्षण का बिल्कुल भी लाभ नहीं मिल रहा है।
लेखक के विचार में यह जहां एक ओर भारत के दलित समाज को छोटे-छोटे टुकड़ो में तोड़ने वाला निर्णय है, वहीं इस निर्णय से ऐसा भी भ्रामक आभास होता है कि मानो देश में आरक्षण का लाभ हर राज्य में शत प्रतिशत मिल ही रहा है। मानों कुछ दलित जातियों की बुरी स्थति के लिए अन्य दलित जातियां ही कसूरवार हैं, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। इस निर्णय से मैं असहमत हूं।
मेरी असहमति के कारण
जब आंकडे ही नहीं है, तो कैसे बताया गया कि कुछ सम्पन्न अनुसूचित जातियां दूसरी जातियों का हक मार रही हैं? आप को शायद याद होगा भारत में 2011 में जाति आधारित जनगणना हुई थी लेकिन इस जनगणना के आंकड़े आज तक जनता के सामने नहीं रखे गए, तो फिर हम बिना आंकड़ों के आधार पर यह कैसे कह सकते हैं कि अनुसूचित जातियों में कुछ जातियां अधिक सम्पन्न हो गई हैं?
कुछ जातियों के साथ अब छुआछूत और भेद-भाव खत्म हो गया है? यदि आंकड़े आ भी जाएं और इन आंकड़ों में कुछ दलित जातियां यदा-कदा कुछ सुधरी हुई आर्थिक स्थति में मिल भी जाए।
बहरहाल हमें यह समझ लेना चाहिए कि आरक्षण कोई “गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम” नहीं है, आप की आर्थिक स्थति चाहे जो हो, भेदभाव और छुआछूत के कारण जब तक आप को भारत के जल, जंगल, भूमि, पूंजी, श्रम और संस्थाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता तब तक भारत के संविधान के अनुसार आरक्षण आप का मूल अधिकार है।
बैकलॉग युक्ति SC/ST की बुरी स्थिति का कारण
भारत की आज़ादी के बाद भारत में केंद्र सरकार के साथ-साथ विभिन्न राज्य सरकारों ने भी आज की तारीख तक अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित पद कभी भी पूरे नहीं भरे। यही कारण है कि हर भर्ती और दाखिला प्रक्रिया में प्रत्येक वर्ष SC/ST के कुछ पद यह तर्क देकर भरे ही नहीं जाते कि इन पदों पर योग्य अभ्यार्थी नहीं मिले।
उदाहरण के लिए यदि कहीं 10 सीटें थीं, तो केवल 7 या 8 को ही भरा जाता है और इस प्रकार से 2 पद “बैकलॉग” रखे जाते हैं। आरक्षण का पूरा लाभ ना देना पड़े इसलिए विभिन्न संस्थाओं और राज्य सरकारों द्वारा बैकलॉग युक्ति अपनाई जाती है।
इसी कारण भारत की केंद्र सरकार, राज्य सरकार और विभिन्न सार्वजानिक क्षेत्र के उद्योगों, निकायों, निगमों में बैकलॉग के लाखों पद खाली पड़े हैं। जिन पर कभी भी नियुक्तियां नहीं कराई जातीं या फिर चुपके से यह पद सामान्य वर्ग में हस्तांतरित कर दिए जाते हैं।
आउट-सोर्सिंग नियुक्ति SC समाज में बेरोज़गारी का कारण
आरक्षण ना देना पड़े और राज्य कोष की बचत भी हो जाए इसलिए राज्य सरकारें और केंद्र सरकार अपने विभागों और संस्थाओ में आउट-सोर्सिंग या संविदा/अस्थाई कर्मचरियों की नियुक्तियां करती रहती है जो संवैधानिक आधार पर गैरकानूनी है।
इस प्रकारी की भर्ती प्रक्रिया से ना ही केवल SC/ST/OBC और शारीरिक रूप से अशक्त समाज का हक मारा जाता है, बल्कि सामान्य वर्ग के मेधावी स्टूडेंट भी सीधी भर्ती की प्रक्रिया से वंचित रह जाते हैं। जबकि भाई-भतीजावाद और जुगाड़ के द्वारा अयोग्य और सिफारशी लोग नौकरी से लग जाते हैं।
आप को बताते चलें कि आरक्षण नियमावली के अनुसार आरक्षण केवल नियमित और स्थाई नियुक्तियों में ही दिया जाता है। जबकि आउट-सोर्सिंग द्वारा कर्मचारी रखते समय किसी भी प्रकार का आरक्षण रोस्टर लागू नहीं किया जाता और इस प्रकार अधिकांश सरकारी कार्यालयों में तथाकथित ऊंची जातियों के अधिकांश कर्मचारी कार्यरत मिलते हैं।
कुछ वर्षो बाद, चुनाव आने पर लगभग 3 से 10 वर्षों के बाद इन्हें लेंथ ऑफ ड्यूटी या सेवा की अवधि के आधार पर नियमित कर दिया जाता है और SC समाज का 12.5 % आरक्षण धरा का धरा रह जाता है।
निजीकरण द्वारा जन्मी प्राइवेट नौकरी और शिक्षण संस्थानों में नहीं मिलता आरक्षण
इसके अतरिक्त भारत में विभिन्न सरकारी कम्पनियों, कार्यालयों और संस्थाओ का निजीकरण 1992 के बाद तेज़ी से हुआ। इस कारण से आरक्षण द्वारा मिलने वाला प्रतिनिधित्व भी बहुत तेज़ी से सिकुड़ रहा है।
जैसा की मैंने पहले बताया कि बैकलॉग और आउट-सोर्सिंग के कारण तो पहले ही विभिन्न संस्थाओं में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व कम था, इसके बाद अब सरकार के निजीकरण के द्वारा इन प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण स्वत: ही समाप्त हो गया।
यह निजीकरण सबसे ज़्यादा हर संस्था में “चतुर्थ श्रेणी” नौकरियों जैसे- सफाई कर्मचारी, चौकीदार, माली, ड्राईवर, अदि पेशों में हुआ है और दलित समाज के कई होनहार छात्र-छात्राएं अपने पारिवारिक पेशों को ही अपनाने के लिए विवश हैं। इसलिए निजीकरण से भी अनुसूचित जाति समाज की कुछ जातियों को बहुत हानि पहुंच रही है।
COVID-19 के इस दौर में भारत में आज एक अजीब-सी स्थिति है। जहां एक ओर लोग बीमारी से मर रहे हैं, चीन लद्दाख में घुस्पैठ कर रहा है। बेरोज़गारी चरम पर है, GDP -23.9 पर आ चुकी है, आनंद तेल तुम्बडे जैसे दिग्गज प्रोफेसर और शिक्षाविद जेलों में बंद हैं। एक TV एंकर द्वारा भारत में होनहार और महन्ती मुस्लिमों के IAS परीक्षा पास करने के प्रयास को “IAS जिहाद” बोल कर नफरत फैलाई जा रही है।
वहीं, दूसरी ओर जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्विद्यालय ने अपने आप को भारत की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी भी साबित किया है। इस परिपेक्ष्य में माननीय सर्वोच्य न्यायालय यदि अनसुचित जातियों तक आरक्षण का लाभ पहुंचाने के लिए गम्भीर है, तो उन्हें भारत की जाति आधारित जनगणना के आंकड़ो, बैकलॉग, आउट-सोर्सिंग, निजिकरण और बची-खुची सरकारी नौकरियों की सुस्त भर्ती प्रक्रिया का संज्ञान लेना चाहिए था।
इससे ही अनुसूचित जातियों को आरक्षण द्वारा दिया गया प्रतिनिधित्व प्रत्येक दलित जातियों तक पहुंचता है। तब इसे दलित हितैषी निर्णय बोला जाता। फिर भी अभी मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय की ही सात सदस्य पीठ में विचाराधीन है। हमारी उम्मीद सामाजिक न्याय पर आधारित हमारे संविधान से है।