बिहार के चुनावी समर में कल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने निश्चित संवाद के नाम से वर्चुअल रैली को संबोधित किया। इस वर्चुअल रैली को यूटयूब पर भयंकर Dislikes मिला, लाइक्स सैकड़ों में सिमट गया।
Dislikes तब मिले हैं, जब राज्यभर में 26.45 लाख लोगों को रैली का लिंक भेजा गया है। प्रधानमंत्री के मन की बात को सोशल मीडिया पर Dislikes मिलने के बाद, बिहार में यह दूसरी घटना है जब किसी वीडियो को Dislike किया जा रहा है।
क्या यह Dislike बिहार के युवाओं का मौजूदा शासन के खिलाफ प्रतिरोध है?
ये डिसलाइक्स बिहार के होने वाले विधानसभा चुनाव में एक नई सुगबुगाहट के सकेत भी हो सकते हैं। इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है। यह इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण और रोचक हो जाता है, क्योंकि बिहार विधानसभा में कई सीटों पर युवा मतदाता बिहार की राजनीति में हार-जीत के अंतर को पलट सकते हैं।
गौरतलब है कि किसी भी राज्य में युवा वर्ग ही डिजिटल माध्यमों का सबसे अधिक इस्तेमाल करता है। शिक्षक दिवस के दिन थाली बजाकर शिक्षित बेरोज़गार के एक बड़े वर्ग ने अपना प्रतिरोध किया, जो सोशल मीडिया पर दर्ज़ भी है। इसमें बिहार के बेरोज़गार युवाओं का प्रतिशत भी अच्छा-खासा रहा है।
बिहार की कई विधानसभा सीटों पर मसलन पटना, भोजपुर, नवादा और नालंदा के साथ-साथ कमोबेश दस ज़िलों की सीटों को युवा मतदाता प्रभावित कर सकते हैं, क्योंकि यहां युवा मतदाताओं की संख्या अधिक है। इसके साथ-साथ यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि कोरोना संकट को देखते हुए वरिष्ठ नागरिकों के मतदान प्रतिशत में गिरावट होने की आशंका भी जताई जा रही है।
बिहार में 65-80 वर्ष वाले मतदाता की संख्या 62 लाख से ज़्यादा है। कुल 7.18 करोड़ मतदाता के हिसाब से यह आकंड़ा करीब नौ फीसद का है।
कोरोना की वजह से मतदान प्रतिशत बहुत प्रभावित हो सकता है
मौजूदा विधानसभा चुनाव में बिहार में 18-19 वर्ष के मतदाताओं की संख्या 714488 है, तो 20-29 वर्ष के बीच के मतदाताओं की संख्या 16054675 है, जबकि 30-39 वर्ष के बीच उम्रवार मतदाताओं की संख्या 18 से 19 वर्ष: 7,14,488, 20 से 29 वर्ष: 1,60,54,675, 30 से 39 वर्ष: 1,98,65,475, 40 से 49 वर्ष: 1,46,91,267, 50 से 59 वर्ष: 97,78,538, 60 से 69 वर्ष: 63,18,968, 70 से 79 वर्ष: 30,95,496. 80 वर्ष से अधिक: 13,03,543 है।
अगर कोरोना महामारी के डर से 60-80 आयु वर्ग के मतदाता मतदान से वंचित रह जाते हैं, तो हर विधानसभा सीटों पर मतदान प्रतिशत बहुत प्रभावित कर सकते हैं। इस तथ्य से कोई भी राजनीतिक दल इंकार नहीं कर सकते।
इस बार बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर दिलचस्प बात यह भी है कि तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार, मुकेश साहनी एक खेमे में हैं। दूसरे खेमे में अपने बागी तेवर के साथ चिराग पासवान जो भाजपा के साथ गठबंधन में सहज हैं मगर जदयू के साथ उनके आपसी संघर्ष दिखने लगे हैं। चिराग पासवान कल 143 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं।
चिराग पासवान कोरोना और बाढ़ संकट के विषय पर नीतीश सरकार पर हमलावर बने हुए हैं। क्या यह चिराग पासवान का अपनी परंपरागत राजनीति से बाहर निकलने का संकेत नहीं है? इसे किस तरह देखा जाना चाहिए? क्या यह केवल वोट काटने की राजनीति तक ही सीमित हो जाएगा? या किसी नई राजनीतिक करवट की सुगबुगाहट है?
छोटे दलों का क्या होगा रोल?
बिहार के सुरत-ए-हाल को बदलने के लिए पुष्पम प्रिया चौधरी और पप्पू यादव भी हैं, जो ज़मीन पर घूम-घूमकर अपने पक्ष में नई राजनीति करने का प्रयास कर रहे हैं। ये सभी बिहार के युवा चेहरे हैं, जिनके पास परंपरागत राजनीति से कुछ नया करने का इरादा भी है।
वहीं, दूसरी तरफ 15 साल से शासन कर रहे नीतीश कुमार के खेमे में अधिकांश नेता 50 की उम्र से ऊपर के हैं, जो वरिष्ठ होने के साथ-साथ अनुभवी भी हैं। बिहार की राजनीति में उनके अनुभवों को सिरे से खारिज़ तो नहीं ही किया जा सकता है।
नीतीश कुमार का खेमा इसलिए थोड़ा निश्चित हो सकता है, क्योंकि उनके खिलाफ विपक्ष में जो बड़ी आवाज़ें उठ रही हैं, उन्हें राजनीतिक परपंरा तो मिली है मगर विरासत नहीं मिली। तेजस्वी यादव, चिराग पासवान और कन्हैया कुमार अपनी पार्टियों के विरासत को किस तरह संभाल पाते हैं। यह मौजूदा विधानसभा चुनाव में दिखने वाला है।
इन सारे समीकरणों के साथ-साथ चाहे कोरोना महामारी के दौर में प्रशासन की कार्यशैली हो या प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं का ज़खीरा हो या फिर बाढ़ से बदतर हालात में प्रशासन की कमज़ोर कार्यशैली हो, इन सभी सवालों के साथ-साथ बिहार में बेरोज़गारी, सरकारी नौकरी के बहाली के लिए परीक्षा कराने में ढीला-ढाला रवैया और बिहार के कॉलेजों में शैक्षिणिक सत्र के लेट-लतीफी के कारण युवाओं में आक्रोश है।
यह आक्रोश केवल शिक्षित और बेरोज़गार युवाओं के अंदर ही नहीं है। यह तो रोज़गार पा चुके युवाओं के अंदर भी है।बिहार के युवाओं की मौजूदा सरकार से नाराज़गी को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। शहरी युवाओं का एक बड़ा वर्ग सुशांत सिंह की मृत्यु पर बिहार के अस्मितावादी राजनीति पर भी मुखर है।
कमोबेश हर राजनीतिक दल ने इस विषय पर अपना हाथ बहती गंगा में धोया भी है। भारतीय जनता पार्टी ने अपने पोस्टरों में सुशांत सिंह की मौजूदगी को तरजीह देकर बता दिया है कि वह अस्मितावादी राजनीति का माइलेज लेना चाहती है।
इन सारी परिस्थितियों में बिहार के युवा मतदाताओं की मौजूदगी कोई नया आगाज़ कर पाती है या नहीं, यह चुनावी परिणाम ही बताएंगे। इतना तो कहा जा सकता है कि बिहार की चुनावी राजनीति में युवा मतदाताओं की चुनावी चेतना एक अलग कहानी लिख सकती है और उसको लेकर राजनीति ज़ोरों पर चलेगी।