कमोबेश हर राजनीतिक दल चुनावों के पहले जनता से कुछ इस तरह के वादे करते हैं जो लोकलुभावन होते हैं। जनता उससे प्रभावित भी होती है। चुनाव के बाद जब उसको लागू करने की बात होती है, तो वह कई बार न्यायिक प्रक्रिया में उलझकर रह जाती है। राजनीतिक दल उसको लागू करने की स्थिति में नहीं होते हैं, तो उसे “चुनावी जुमला” बोलकर कन्नी काट लेते हैं।
इसलिए ज़रूरी है कि मतदाता इन चुनावी वादों को संवैधानिक कसौटियों पर जांचे-परखे और समझे कि राजनीतिक पार्टियों की ओर से किया जा रहा चुनावी वादा पूरा हो भी सकता है या नहीं। मूल निवासियों को आरक्षण भी वही मुद्दा है जिसकी हांड़ी कभी कांठ पर नहीं चढ़ती है लेकिन बिहार ही नहीं कई राज्य अपने यहां चुनाव में यह हांड़ी चढ़ाते रहते हैं।
मूल निवासी होने के आधार पर नौकरियों में वरियता संविधान की मूल भावना के खिलाफ है
मूल निवासी को सरकारी नौकरियों में वरियता देने की बात बिहार में मौजूदा मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के सरकार ने भी की है। दरअसल मूल निवासी के आधार पर नौकरियों में वरियता संविधान के मूल भावना के खिलाफ है।
बिहार से पहले मध्य प्रदेश में भी सरकारी नौकरियों में तवज्जों देने की बात की थी। बिहार से पहले हाल के दिनों में शिवराज सिंह चौहान ही नहीं कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी एक-दूसरे से पीछे नहीं थे।
राजनीतिक पार्टियों से यह सवाल पूरज़ोर आवाज़ में पूछा जाना चाहिए कि अगर संविधान में व्यवस्था नहीं है, तो फिर राजनीतिक दल डोमिसाइल या मूल निवास के आधार पर आरक्षण देने की घोषणा कैसे कर सकते हैं?
किन राज्यों में है ऐसी व्यवस्था?
संविधान में जो थोड़ी-सी छूट है उसके आधार पर कुछ राज्यों ने विशेष वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान कर रखा है। मसलन, आंध्र प्रदेश और अरूणाचल प्रदेश ने यह किया है। मूल निवासियों को आरक्षण देने के मामलों को न्यायालय अक्सर स्टे लगाकर रोक देती है।
पिछले कुछ सालों में देश के कई राज्य मूल निवासियों को सरकारी-प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान या ऐलान कर चुके हैं जो लागू होने के चरण में भी हैं। कई राज्य इसको लागू करने के लिए स्थानीय भाषा में दक्षता की शर्त जोड़ देते हैं।
संविधान किसी भी आधार पर भेदभाव की पैरवी नहीं करता है। भेदभाव मिटाने के लिए और पिछड़े तबके को बराबरी पर लाने के लिए अपवाद स्वरूप संवैधानिक प्रावधान के आधार पर मूल निवासियों को तवज्जों देने की बात होती है।
न्यायविदों के अनुसार डोमिसाइल के आधार पर आरक्षण कानून बनाने का अधिकार राज्यों को नहीं है। सर्वोच्च न्यायलय शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए स्थानीय आधार को जायज ठहराते है लेकिन नौकरियों में स्थानीय लोगों के आरक्षण को गलत बताते हैं।
संविधान देता है रोज़गार के लिए समान अवसर के अधिकार
गौरतलब है कि संविधान का अनुच्छेद 16(1),(2) और (3) राज्य के भीतर रोज़गार और नियुक्तियों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर की बात करता हैं। किसी भी नागरिक को उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, कुल, जन्मस्थान या इनमें से किसी भी एक के आधार पर रोज़गार देने में भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
संसद को राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के किसी वर्ग या स्थानीय निवासियों के लिए नौकरी में प्रावधान के लिए कानून बनाने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायल इस विषय पर कई तरहों से संवैधानिक सीमाओं में अपने फैसले देकर राज्य की कोशिशों को पलटता रहा है।
डोमिसाइल के आधार पर आरक्षण पर कानूनी स्पष्टता बहुत अधिक ज़रूरी है, इसमें कोई दो राय नहीं है। उसको संसद तय करे या सुप्रीम कोर्ट लेकिन इतना तय है कि संविधान के मूल अवधारणा और मौजूद धाराओं के आधार पर यह नहीं हो सकता है।
बीते अगस्त सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने फैसले में संविधान की मर्यादित सीमाओं के अनुसार ही वंचित तबकों को बराबरी पर लाने और असमानता दूर करने के लिए राज्य आरक्षण दे सकते हैं। इसमें कोई बाधा नहीं है, इसे दोहराया है। साथ ही साथ सर्वोच्च अदालत की बेंच ने एससी-एसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण के लिए राज्यों को छूट दी है लेकिन यह संपूर्ण मूल निवासियों पर लागू नहीं होती है।
मूल सवाल फिर भी वहीं का वहीं है कि जब राजनीतिक दलो की घोषणाएं लुभावने होते हुए भी यथार्थ के धरातल पर नहीं उतर सकते हैं। फिर उसकी व्यावहारिक कठिनाइयों की अनदेखी क्यों की जाती है?
क्या बस इसलिए कि लुभावनी घोषणाओं से राज्य की जनता को बेबकूफ बनाकर अपने पक्ष में चुनावी हवा बांधी जा सकती है। इस यथास्थिति में ज़रूरत इस बात है कि मतदाता ही नहीं जागरूक नागरिक भारतीय संविधान के धाराओं और अनुबंध को समझें, जिससे चुनावी समर में “चुनावी जुमलों” में फंसकर ना रह जाएं।