डॉक्टर कफील खान के विषय में कोर्ट ने युनाइटेड स्टेट्स ऑफ उत्तर प्रदेश की सरकार को ठीक वैसे ही डांट लगाई है, जैसे एक बिगड़ैल बच्चे को उसका पिता डांटता है।
क्या है कि राजधर्म निभाते-निभाते कब व्यक्ति हठधर्म पर उतर जाता है, उसे पता ही नहीं चलता। सत्ता का गुरुर कुछ ऐसा ही होता है। सात महीनों से बेवजह जैल में कैद कफील खान की रिहाई और इलाहबाद हाइ कोर्ट का फैसला देश में चल रहे भीड़तंत्र और सड़कछाप राजनीति को सबके सामने एक्सपोज़ करता है।
शायद सब चंगा नहीं है! सिर्फ मीडिया और सस्ते IT सेल का उपयोग करके दिखाया जा रहा है। विश्वगुरु भारत, सपनों की उड़ान। सब महान, सब महान।
सरकार के तमाम वादों का क्या हुआ?
हल्ला है, तर्क नहीं। तर्क तो यह है कि जीडीपी सरकार की नियत से भी नीचे जा गिरी है। रोज़गार के वादे उतने ही पूरे हुए हैं जितनी इन्होंने 6 साल में प्रेस कॉन्फ्रेंस की है। 100 में से अब तक कुल मिला के शून्य स्मार्ट सिटी बनी हैं। एक नहीं, दो नहीं, शून्य। शायद अब शून्य ही सवाल हैं और शून्य ही जवाब है लेकिन कहानी इतनी-सी थोड़े ही है।
सरकार खुलेआम निजीकरण कर रही है और यह करके उसी जनता का गला घोंट रही है जिस जनता के सामने चुनावी जुनून में विकास, अच्छे दिन, रोज़गार, जैसे जुमले बेबाक होकर फेंके गए थे। अनपढ़ तो अनपढ़, पढ़ा लिखा तबका भी अपने विवेक को हैंगिंग गार्डन में छोड़कर सरकार की बांसुरी बजा रहा है।
सरकार की जुमला फैक्ट्री के सामने खड़ा आज भी सस्ते प्रोपेगैंडा के लिए आतुर है। सोचता है एक आध हाथ लग जाए, तो बात बने और क्यों ना ले कोई? आसान है ना नेहरू, गाँधी की अश्लील तस्वीरें फैला कर भ्रम फैलाना, यह साबित करते रहना की कौन असली हिन्दू हैं और कौन नहीं? बोस या पटेल प्रधानमंत्री होते तो क्या होता, बताइए? हिटलर जनेऊधारी होता तो क्या होता? सोचिए, भाई। यही तो देश के असल मुद्दे हैं।
अब आजकल एक नई टहनी पकड़ रखी है। खुद सोचिए, जो तबका कभी जज लोया की मौत के वक्त एक शब्द नहीं बोला वह एक अभिनेता की मौत को सहारा बनाकर पिंग-पांग खेल रहा है। यह कितना आसान है।
कौन याद दिलाएं?
कौन खुद को या सरकार को याद दिलाए की 2 करोड़ रोज़गार का वादे था, वह पूरे नहीं हो रहे। SSC हो या रेलवे हो, सब में सीटें बढ़ नहीं रहीं, कम हो रही हैं। परीक्षा नहीं हो पा रही है, हो रही है तो रिजल्ट नही है। रिजल्ट है तो जॉइनिंग नहीं है।
साफ बात है कि इस दौर में यह सब सवाल करना बहुत मुश्किल है। मालूम है सिवाय निराशा के कुछ हाथ नहीं लगना, इसीलिए फिर यह तबका रिया चक्रबर्ती में अपना लोकतंत्र ढूंढ लेता है।
इतनी विशाल सरकार की गगनचुंबी नाकामयाबियों को एक आधी अधूरी अभिनेत्री के पल्लू में छुपा कर जो यह लोग देश के लोकतंत्र को मजबूत कर रहें है, वह वाकई सराहनीय है। ऐसे वारियर्स को नमन। इन्हीं सब अंतर्द्वंद्व में फंसी देश की जनता यह समझ ही नहीं पा रही कि उनसे क्या छीना जा रहा है।
छीनकर किसे दिया जा रहा है? देश की जीडीपी नीचे गई लेकिन क्या किसी अंबानी या अडानी की दौलत में से एक पैसा कम हुआ? वह तो बल्कि ज्यादा धनी हो गए। पूरा देश माइनस में जा रहा है और देश के 15 उद्योगपति प्लस में जा रहे हैं। यह कैसी माया है?
क्या इसे आप विकास नहीं मानेंगे? इसका पूरा क्रेडिट हमारे प्रिय प्रधानमंत्री को बिल्कुल जाता है। अब आप भी चले जाइए। टहल आईये। उम्मीद है आपको भी कोई मोर विचरता हुआ दिखाई दे जाए। उसे दाना डाल दें। दो चार सेल्फी ले सकते हैं या फिर किसी मित्र या अपनी प्रेमिका से कहकर वीडियो बनवा लें। फिर उसे अपलोड कर दें। इस वक़्त लोकतंत्र की इससे बड़ी सेवा और कुछ नहीं हो सकती।