भारत देश एक लोकतांत्रिक देश है और इसकी सारी दुनिया में दुहाई दी जाती है लेकिन क्या वास्तव में इस देश मे लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत है या अपनी अंतिम सांसे ले रही है? सवाल बहुत बड़ा है और इसका जवाब भी छोटा नहीं हो सकता, इसको समझने के लिए हमें भारत देश की आज़ादी से लेकर अभी तक की घटनाओं पर नज़र डालनी पड़ेगी।
आज भी कितने आज़ाद है हम?
लोकतंत्र की सीढ़ी का पहला पायदान आज़ादी है। सबसे पहले हमें इस आजादी का मतलब समझना पड़ेगा। कहने को तो हम सब आज़ाद है और देश के संविधान के अनुसार हम सभी के पास अधिकार और कर्तव्य हैं जिनको सबको निभाना है लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में ऐसा है कि सब आज़ाद हैं? क्या देश मे रहने वाला आम आदमी आज़ाद है? क्या देश का अधिकारी वर्ग आज़ाद है? क्या देश मे नौकरी करने वाला आज़ाद है? क्या देश का नौजवान, महिलाएं, बच्चे आज़ाद हैं?
यहां पर आज़ादी का मतलब संविधान के अनुसार मिले अधिकारों से है लेकिन संविधान के अनुसार मिले अधिकारों के बाद भी आज हर एक व्यक्ति किसी-न-किसी का गुलाम है। वह ना तो अपने कर्तव्य निभा पा रहा है और ना ही वो अपने अधिकारों का प्रयोग कर पा रहा है।
हर एक जूनियर अपने सीनियर का गुलाम है, वह अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाता उसका संविधान और उसका कर्तव्य सिर्फ सीनियर की बात को मानना है फिर चाहे वो गलत हो या सही, फिर इसमें चाहे प्रशासन हो पार्टी हो या कोई प्राइवेट संस्थान हो। हर एक व्यक्ति गुलामी की ज़िंदगी जी रहा है।
फिर हम कैसे कह सकते है कि देश आज़ाद है। और कैसे कह सकते हैं कि देश संविधान के अनुसार चल रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे लोकतंत्र अपनी अन्तिम सांसे ले रहा है! सत्ता की भूख चरम सीमा पर है!
देश परेशान है, नेता मस्त हैं!
सत्ता के लिए हिन्दू और मुसलमानों के मन में ज़हर पैदा किया जा रहा है। युनिवर्सिटीज़ सुलग रही हैं। छात्र पढ़ाई छोड़कर आन्दोलन कर रहे हैं। व्यापार ठप पड़ गया है। राजा महाराओं की तरह जनता के पैसे पर ऐश करते मंत्री, सांसद, विधायक मौज ले रहे हैं। क्या यही लोकतंत्र है?
भारत के करोड़ों युवा बेरोज़गारी का दंश झेल रहे हैं। भारी संख्या में लोग भूखे मर रहे हैं लेकिन चंद मुट्ठीभर लोग जनता के पैसे पर ऐश कर रहे हैं। क्या यही लोकतंत्र है?
लोकतंत्र के नाम पर नेतागीरी करने वाले लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं। जनता के मन से लोकतंत्र का मोह भंग हो रहा है। लोकतंत्र के नाम पर गन्दी राजनीति हो रही है। जन सेवा के नाम पर निजी स्वार्थ की राजनीति हो रही है।
राजनीतिक नेताओं का एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करना और साथ में लोकतंत्र की दुहाई देना ऐसा लगता है जैसे लोकतंत्र की देवी को बीच में खड़ा करके उसका चीरहरण कर रहे हो।
लोकतंत्र का आनंद चंद मुठ्ठीभर लोग ही क्यों ले पा रहे हैं?
कोई नेता दलितों का मसीहा होने का नाटक करता है तो कोई अन्य जाति विशेष का, सत्यता यह है कि जातियां अपनी जगह पर रह गईं, जातियों के मसीहा बनने वाले आगे बढ़ गये। लोकतंत्र के पहरूओं का नाटक देखते- देखते जनता आज़ीज आ चुकी है और ऐसा प्रतीत होता है कि लोकतंत्र अब समाप्ति की ओर है।
लोकतंत्र का आनन्द चंद मुट्ठी भर लोगों को उठाते देखकर जनता अब लोकतंत्र की सत्यता को समझ चुकी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में सिसकती सांसों के साथ लोकतंत्र दम तोड़ रहा है।
कोई भी सभ्य समाज नियमों से ही चल सकता है। जनहितकारी नियमों को बनाने और उनके परिपालन को सुनिश्चित करने के लिए शासन की आवश्यकता होती है। राजतंत्र, तानाशाही, धार्मिक सत्ता या लोकतंत्र, नामांकित जनप्रतिनिधियों जैसी विभिन्न शासन प्रणालियों में लोकतंत्र ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि लोकतंत्र में आम आदमी की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है और उसे भी जन नेतृत्व करने का अधिकार होता है।
विधायिका के जनप्रतिनिधियों का चुनाव आम नागरिकों के सीधे मतदान के द्वारा किया जाता है लेकिन हमारे देश में आज़ादी के बाद के अनुभव के आधार पर, मेरे मत में इस चुनाव के लिए पार्टीवाद तथा चुनावी जीत के बाद संसद और विधानसभाओं में पक्ष-विपक्ष की राजनीति ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमज़ोरी के रूप में सामने आई है।
सत्तापक्ष कितना भी अच्छा बजट बनाए या कोई अच्छे से अच्छा जनहितकारी कानून बनाए, विपक्ष उसका विरोध करता ही है। उसे जनविरोधी निरूपित करने के लिए तर्क-कुतर्क करने में ज़रा भी पीछे नहीं रहता। ऐसा केवल इसलिए हो रहा है, क्योंकि वह विपक्ष में है।
हमने देखा है कि वही विपक्षी दल जो विरोधी पार्टी के रूप में जिन बातों का सार्वजनिक विरोध करते नहीं थकता था, जब सत्ता में आया, तो उन्होंने भी वही सब किया और इस बार पूर्व के सत्ताधारी दलों ने उन्हीं तथ्यों का पुरज़ोर विरोध किया जिनके कभी वे खुले समर्थन में थे।
इसके लिए लच्छेदार शब्दों का मायाजाल फैलाया जाता है। ऐसा बार-बार लगातार हो रहा है यानी हमारे लोकतंत्र में यह अब एक धारणा बन चुकी है कि विपक्षी दल को सत्ता पक्ष का विरोध करना ही चाहिए। शायद इसके लिए स्कूलों से ही वाद-विवाद प्रतियोगिता की जो अवधारणा बच्चों के मन में अधिरोपित की जाती है, वही ज़िम्मेदार हो।
वास्तविकता यह होती है कि कोई भी सत्तारूढ़ दल सब कुछ सही या सब कुछ गलत नहीं करता। सच्चा लोकतंत्र तो यह होता कि मुद्दे के आधार पर पार्टी निरपेक्ष वोटिंग होती, विषय की गुणवत्ता के आधार पर बहुमत से निर्णय लिया जाता लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है।
क्या इस व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश है?
अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में सुधार की व्यापक संभावना है। दलगत राजनैतिक धु्व्रीकरण और पक्ष-विपक्ष से ऊपर उठकर मुद्दों पर आम सहमति या बहुमत पर आधारित निर्णय ही विधायिका का निर्णय हो, ऐसी सत्ताप्रणाली के विकास की ज़रूरत है। इसके लिए जनशिक्षा को बढ़ावा देना तथा आम आदमी की राजनैतिक उदासीनता को तोडने की आवश्यकता दिखती है।
जब ऐसी व्यवस्था लागू होगी, तब किसी मुद्दे पर कोई 51 प्रतिशत या अधिक जनप्रतिनिधि एक साथ होंगे तथा किसी अन्य मुद्दे पर कोई अन्य दूसरे 51 प्रतिशत से ज़्यादा जनप्रतिनिधि, जिनमें से कुछ पिछले मुद्दों पर भले ही विरोधी रहे हों, साथ होंगे तथा दोनों ही मुद्दे बहुमत के कारण प्रभावी रूप से कानून बनेंगे।
क्या हम निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर ऐसी आदर्श व्यवस्था की दिशा में बढ़ सकते हैं और संविधान में इस तरह के संशोधन कर सकते हैं। यह खुली बहस और व्यापक जनचर्चा का विषय है जिस पर अखबारों, स्कूल-कॉलेजों, बार एसोसिएशन, व्यापारिक संघ, महिला मोर्चे, मज़दूर संगठन आदि विभिन्न मंचों पर खुलकर चर्चा होने की ज़रूरत हैं।