‘बिहार की शिक्षा-व्यवस्था’ पूरे देश में एक ज्वलंत विषय बन चुकी है। पूरे भारत में बिहार की शिक्षा-व्यवस्था को भ्रष्टता का पर्याय समझा जाता है। जिस राज्य को शिक्षा गुरु समझा जाता था, जो राज्य किसी समय में ‘नालंदा’ और ‘विक्रमशिला’ जैसे विश्वविख्यात शिक्षण-संस्थानों के लिए जाना जाता था, आज उसी राज्य की शिक्षा इतनी बदतर क्यों हो गयी है? यह चिंता का विषय है।
सरकार ने मध्याह्न भोजन, साइकिल, पोशाक, छात्रवृति सहित तमाम योजनाओं के ज़रिए बच्चों को स्कूल लाने की कोशिश की लेकिन शिक्षा के असल उद्देश्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को देने में वह अब तक नाकाम रही है। इसका एक बहुत बड़ा कारण शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ शिक्षकों की अनदेखी करना है।
अधिकांश बच्चे स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ देते हैं। शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा भी कई तरह के काम निपटाने होते हैं। कभी उन्हें बूथ लेबल ऑफिसर बना दिया जाता है, तो कभी जनगणना करने का काम सौंप दिया जाता है। प्रधान शिक्षक मध्याह्न भोजन के उत्तरदायी हैं, तो शिक्षकों पर उस भोजन को बंटवाने की ज़िम्मेदारी होती है।
इसके अलावा साल के 65 दिन (करीब दो महीने) विभिन्न तीज-त्योहारों और अवसरों की छुट्टियां रहती हैं। उसके अलावा जाड़ा, गर्मी, बरसात और कोविड संक्रमण जैसी आपदाओं में होनेवाली छुट्टियां अलग। ऐसे में, बमुश्किल छह-सात माह ही ढंग से पढ़ाई हो पाती है।
राज्य में उच्च शिक्षण संस्थानों की है कमी
हाईस्कूल और प्लस टू स्कूलों में गणित और विज्ञान शिक्षकों की नियुक्ति की रणनीति 2015 में बनी लेकिन ठोस प्रयास नहीं हुए। शिक्षकों की गुणवत्ता के लिए पहल नहीं हुई। राज्य में उच्च शिक्षण संस्थानों की भी भारी कमी है। हालात यह है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा अंतिम सांसें गिन रही है।
छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों के साथ-साथ सरकार को भी यह बात समझनी होगी कि परीक्षा पास कराने वाले शॉर्टकट से शिक्षा को बेहतर नहीं बनाया जा सकता है। ऐसा करके बच्चे भले अपने स्कूल या राज्य में टॉपर बन जाएं लेकिन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिकना उनके लिए मुश्किल होगा।
विश्व बैंक-2015 की रिपोर्ट बताती है कि अंग्रेजी और विज्ञान में बिहार के विद्यार्थी कमज़ोर हैं। यू-डायस रिपोर्ट 2015-16 मानती है कि अब भी स्कूलों में सुविधाओं का अभाव है। सरकारी स्कूलों में सभी सुविधाओं के बाद भी बच्चे टिक नहीं पा रहे हैं।
मेहनती छात्रों और योग्य शिक्षकों की कमी नहीं है बिहार में
प्रतीचि और आद्री की बिहार की शिक्षा व्यवस्था पर सर्वे वर्तमान स्थिति के संदर्भ में किए गए सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, 10% स्कूलों के पास भवन नहीं हैं। 50% में चहारदीवारी नहीं है। 30% के पास ही खेल के मैदान हैं और 10 फीसदी के करीब स्कूलों में लड़के या लड़कियों के लिए अलग शौचालय का अभाव है।
शिक्षा नीति 2020 में भी शैक्षिक पुनर्संरचना पर ज़ोर दिया गया है लेकिन भौतिक संरचना की अनदेखी की गई है। इस विषय पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है, क्योंकि बेहतर आधारभूत सुविधाओं के अभाव में नीति संबंधित प्राथमिक लक्ष्यों को भी प्राप्त करना मुश्किल है।
बिहार में ना तो योग्य शिक्षकों की कमी है और ना ही होनहार और मेहनती छात्रों की। कमी है तो राजनीतिक इच्छाशक्ति की, जिसकी वजह से तमाम तरह की योजनाएं बनाने के बावजूद अक्सर प्रशासनिक स्तर पर उनका समुचित क्रियान्वयन नहीं हो पाता है।
इसके अलावा बिहारियों में ‘जुगाड़’ का जो माइंडसेट है, उसे भी सही दिशा में मोटिवेट करने की ज़रूरत है, ताकि उसका बेहतर और रचनात्मक उपयोग हो सके और इसका लाभ देश तथा राज्य को मिल सके।
किसी राज्य के बुलंद इमारत की नींव होती है शिक्षा
शिक्षा की नींंव पर ही किसी राज्य की बुलंद इमारत खड़ी होती है। बड़ी चुनौती इसी नींव को मजबूत करने की है। प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा में सुधार के प्रयास हुए हैं लेकिन गति इतनी धीमी है कि अपेक्षित नतीजे नहीं मिल रहे हैं। योजनाएं बच्चों को स्कूलों तक तो ले आई लेकिन बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा अब भी दूर की कौड़ी है। इस दिशा में गंभीरता से कुछ प्रमुख प्रयासों को लागू किया जाना चाहिए।
- स्कूलों के शैक्षणिक कैलेंडर का पुनर्विश्लेषण, क्योंकि वैसे ही काफी छुट्टियां हैं। उसपर से आकस्मिक छुट्टियों (सर्दी/गर्मी/बारिश/आपदा आदि) के कारण बच्चों की पढ़ाई का भारी नुकसान ना हो।
- नैतिक शिक्षा के साथ-साथ वैज्ञानिक, तार्किक और व्यवहारिक शिक्षा पर विशेष जोर दिया जाएं।
- रोज़गारपरक शिक्षा को बढ़ावा मिले।
- प्रत्येक विषय में इंटर्नशिप को बढ़ावा दिया जाए।
- अंक आधारित शिक्षा के बजाय योग्यता आधारित शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए यानी जो बच्चा जिस विषय में बेस्ट हो, उसके उसी स्किल को बढ़ावा दिया जाए।
- अधिकाधिक शोध संस्थान स्थापित किए जाएं और शोध अध्ययन को बढावा मिले।
- वोकेशनल स्टडी सेंटर्स में इंडस्ट्री एंगेजमेंट को बढ़ावा मिले।
- लागू योजनाओं को उचित क्रियान्वयन।
- सरकारी स्कूल/कॉलेजों में प्रत्येक स्तर पर कुछ सीटें ट्रांसजेंडर्स के लिए आरक्षित हों।
- विशेष मानिसक स्थिति वाले छात्र-छात्राओं के लिए अलग शैक्षिक संस्थाएं हों और उनमें विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति हों।
लड़कियों की शिक्षा के लिए करने होगे विशेष प्रयास
अगर बिहार खासकर लड़कियों के लिए शिक्षा की बात करें, तो इसके समक्ष आज भी कई तरह की चुनौतियां हैं, जिन पर आने वाले चुनाव में ज़रूर बात होनी चाहिए। इनमें से कुछ प्रमुख चुनौतियां इस प्रकार हैं:
- उच्चतर कक्षाओं में शिक्षिकाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो, खासकर गर्ल्स स्कूलों में क्योंकि किशोरावस्था को अधिक संवेदनशील तरीके से हैंडल करने की ज़रूरत होती है, जिसमें महिलाएं अपने प्राकृतिक स्वभाव के कारण बेहतर भूमिका निभा सकती हैं।
- प्रत्येक पंचायत स्तर पर कम-से-कम एक उच्च स्तरीय बालिका विद्यालय की ज़रूरत है, ताकि लड़कियों को दूर पढ़ने भेजने की वजह से अभिभावक उनकी पढ़ाई ना छुडवाएं।
- यौन शिक्षा की अनिवार्यता हो। प्यूबर्टी, मेंस्ट्रुअल हाइजीन और रिप्रोडक्शन जैसे विषयों पर खुल कर चर्चा हो, ताकि लैंगिक विषयों से संबंधित बच्चों की झिझक टूटे और वे विपरीत लिंग के प्रति भावनाओं की अभिव्यक्ति में सहज महसूस करें। इससे लैंगिक अपराध में भी कमी आएगी।
- लड़कियों की शिक्षा के लिए अभिभावकों की नियमित काउंसलिंग होनी चाहिए।
- किशोरी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक सुरक्षा की ज़रूरत भी है।
- इसके लिए प्रत्येक स्कूल में सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग होनी ज़रूरी है।
- जब तक सरकार इन बिंदुओं पर गौर नहीं करती, सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं टिकेंगे और ना ही शिक्षा की स्थिति सुधरेगी।