आज हमारे देश में तीन बड़े मुद्दे नज़र आ रहे हैं, उनमें जो पहला है वो हम सभी जानते हैं कि भारत में कोरोना संक्रमण के मामले बहुत ही तेज़ी से बढ़ रहे हैं और आने वाले दिनों में भारत कोरोना से दूसरा सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाला देश होगा। दूसरा मुद्दा चाइना के साथ चल रही तकरार है और आखिर में सरकार बनाने का खेल, जिसे दूसरे शब्दों में हम प्रजातंत्र कहते हैं।
2014 के बाद से देश के अधिकतम राज्यों में बीजेपी की सरकार सत्ता में थी, 2018 के बाद से बीजेपी के हाथ से धीरे-धीरे कुछ राज्य खिसकने लगे जिनमें मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान प्रमुख थे।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ इन दोनों राज्यों में बीजेपी पिछले 15 साल से सत्ता में थी और इस बार भी लग रहा था कि वहां वो फिर से सत्ता में आ जाएगी लेकिन जनता ने इस बार कुछ और ही सोचा था।
हालांकि मध्यप्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस को लगभग बराबर सीटें जीतकर एक अस्थिर सरकार की नींव बनाई गई और उसका क्या हश्र हुआ है या किया गया है वो हम सबके सामने है।
राजस्थान विजय कांग्रेस के लिए ही गले की फांस बन गई
इनमें एक राज्य राजस्थान है, यहां भी बीजेपी चुनाव हारी और कांग्रेस बिल्कुल सतह पर रहकर सत्ता में आई। अब सबसे बड़ी लड़ाई थी कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा, एक तरफ सचिन पायलट जो राजस्थान कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष थे और इस जीत का सेहरा उन्हीं के सर बंधा था।
वहीं, दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में सुमार अशोक गहलोत। कांग्रेस के आलाकमान उस वक्त राहुल गांधी हुआ करते थे, उन्होंने सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों की इस खींचतान का रास्ता निकाल पायलट को उपमुख्यमंत्री पद, उनके चहेतों को मंत्री पद और साथ ही कांग्रेस राजस्थान को प्रदेशाध्यक्ष का ऑफर दिया और मुख्यमंत्री का पद गहलोत को मिला।
कहानी की शुरुआत वहीं से होती है, जहां से सचिन पायलट की पकड़ राजस्थान कांग्रेस पार्टी में अच्छी होने लगी थी। इसका कारण युवाओं और ज़मीन से जुड़े लोगों को राजस्थान कांग्रेस में आगे ला रहे थे। इसके अलावा शायद मुख्यमंत्री पद ना मिलने की टीस भी हो सकती है और इसी कारण कई बड़े नेता उनसे किनारा भी कर रहे थे।
अशोक गहलोत राज्य के मुखिया तो थे ही लेकिन पार्टी में उनकी पकड़ उस तरह नहीं थी जैसे पहले हुआ करती थी। उनको डर पायलट से था कि कहीं उनके हाथ से मुख्यमंत्री का पद ना चला जाए।
अपनी ही सरकार को निशाने पर ले रहे थे सचिन पायलट
कुछ ही वक्त में खबरें आने लगी कि गहलोत और पायलट में कुछ ठीक नहीं है और पार्टी में दो फाड़ हो चुका है। जहां पार्टी के मीटिंग्स में गहलोत कम रहते थे और सरकार की किसी भी कमी पर पायलट बोलने में पीछे नहीं हटे।
चाहे मुद्दा कोटा में 107 बच्चों की मौत का हो या फिर राज्य की कानून व्यवस्ता के बिगड़ते हालत पर हो, उन्होंने अपनी बात बेबाक तरीके से रखी और अपनी ही सरकार को निशाने पर लिया।
राजसभा चुनाव में भी गहलोत ने कहा था कि उनके विधायकों को खरीदने की कोशिश की जा रही है और एक अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस एक सीट खो सकती है लेकिन ऐसा हुआ नहीं और कांग्रेस अपनी 2 सीटों को आसानी से निकाल पायी।
जीत का श्रेय पायलट को मिला और उन्होंने विधायको को खरीदने वाले कथन को पूरी तरह से निराधार बताया। तबसे ही गहलोत और पायलट की बीच की तनातनी और बढ़ने लगी और 10 जुलाई 2020 को SOG की तरफ से सरकार को अस्थिर करने की साजिश की जांच करने हेतु बयान दर्ज करवाने के लिए बुलावा दिया और इसी ने इन दोनों के बीच एक चिंगारी का काम किया।
उसी दिन से राजस्थान की राजनीति में हलचल शुरू हो गई। गहलोत ने इसी हलचल को रोकने के लिए राज्य की सीमाओं को सील कर दिया लेकिन पायलट उससे पहले ही अपने समर्थको के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे। इसके बाद जो हुआ या जो हो रहा है वो सबके सामने है।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक कभी पायलट बीजेपी में शामिल होने वाले हैं, तो कभी कहा जाता है कि कांग्रेस को छोडकर नहीं जाने वाले है। इसी बीच एक खबर और आती है जिसमें बीजेपी की सहयोगी पार्टी के नेता हनुमान बेनीवाल ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे पर आरोप लगाए कि वो पर्दे के पीछे से गहलोत सरकार को मदद कर रही हैं।
वैसे यह बात कुछ हद तक ठीक भी है, इसके कुछ कारण भी हैं जिनमें गहलोत और वसुंधरा राजे दोनों ही 1999 के बाद से ही राजस्थान की राजनीति के सिरमोर बने रहे हैं, गहलोत इस बार को मिलाकर तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने है, वहीं वसुंधरा राजे दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।
जैसा कि सबको पता है राजस्थान में हर 5 साल में सरकार बदल जाती है लेकिन दोनों ही नेताओ ने चुनावों में एक-दूसरे पर कई बार बड़े-बड़े आरोप लगाने के बावजूद दोनों ने एक-दूसरे पर सरकार में आने के बाद कभी कोई कार्यवाही नहीं की, जो यह दर्शाता है कि यह दोनों नेता सिर्फ अपने गद्दी पर बने रहना चाहते हैं।
गहलोत और वसुंधरा क्यों किसी नए चेहरे को स्वीकार नहीं कर पाते?
गहलोत अपने राजनीतिक विरोधियों का सफाया करने के लिए जाने जाते हैं, ठीक इसी तरह वसुंधरा राजे के होते हुए राजस्थान बीजेपी में भी अब तक कोई नया नेता आगे नहीं बढ़ पाया है।
गहलोत कभी भी यह नहीं चाहते हैं कि उनके वर्चस्व को कोई चुनौती दे। इसके पहले भी सीपी जोशी, महिपाल मदेरणा, रामेश्वर डूडी जैसे अनेक बड़े नेताओ ने भी गहलोत को चुनौती दी थी लेकिन अपने आपको जादूगर कहने वाले गहलोत ने उन सबको किसी-न-किसी तरीके से साइड लाइन कर ही दिया।
पायलट के आने से भी गहलोत को वैसे ही चुनौती फिर से मिली है और पायलट बड़ी मजबूती के साथ गहलोत के सामने खड़े हुए हैं, वो कभी भी अपनी सरकार की कमियों पर बात करने से गुरेज़ नहीं करते हैं। साथ ही सरकार में जहां कहीं भी कुछ गलत हो रहा है या होने की आशंका हो उस पर अपनी राय और सुझाव हमेशा देते रहे हैं।
2013 में राजस्थान विधानसभा और 2014 में लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार के बाद कांग्रेस पार्टी ने पायलट को राजस्थान कांग्रेस का प्रदेशाध्यक्ष बनाया, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया भी और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी।
पायलट ने राजस्थान में गाँव, ढाणी हर जगह अपनी पकड़ बनाने के लिए युवाओं और जमीन से जुड़े लोगों को आगे लाने का काम किया है और उन सभी कार्यकर्ताओ की बदौलत 2018 में फिर से कांग्रेस पार्टी 21 सीटों से 101 सीटों पर पहुंचने में कामयाब हुई।
कांग्रेस राजस्थान में और ज़्यादा सीटें जीत सकती थी लेकिन चुनावों से बिलकुल पहले गहलोत और पायलट गुट में जो खींचतान चल रही थी, वह सबके सामने आ चुकी थी। इसके साथ ही गहलोत ने कुछ नेताओं को निर्दलीय चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया, जो कभी कांग्रेसी थे या गहलोत गुट के हुआ करते थे।
लोकसभा में हार की ठिकरा भी पालयट के सर पर फूठा
ऐसी ही कम-से-कम 10 सीटों पर वे सभी निर्दलीय नेता चुनाव जीतें जो गहलोत के खास माने जाते थे। गहलोत कभी नहीं चाहते कि उनके हाथ से राजस्थान की बागडोर निकल जाए, ऐसा ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला।
उन्होंने अपने बेटे वैभव गहलोत को जोधपुर से पार्टी टिकट दिलवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी और पूूरे लोकसभा चुनाव में वो सिर्फ और सिर्फ अपने पुत्र मोह से बाहर नहीं निकल पाए। बाद में जब परिणाम आए, तो कांग्रेस राजस्थान में 25 में से एक भी सीट नहीं जीत पायी, जिस में गहलोत के बेटे भी बहुत बुरी तरह से पराजित हुए।
इसी के बाद गहलोत ने इस चुनाव में हार की पूरी ज़िम्मेदारी पायलट के सर पर डाल दी। आज जो सचिन पायलट कर रहे हैं वो सिर्फ पिछले दो सालों में उनको हर बार नीचा दिखाने की कोशिश करने वाले गहलोत से लोहा लेने जैसा है।
जब यह मुद्दा शुरू हुआ और पायलट नाराज होकर दिल्ली का रुख कर चुके थे तब गहलोत ने सफाई देने के बहाने कहा कि ऐसा ही नोटिस मुझे भी मिला है लेकिन मीडिया ने इसे गलत तरीके से पेश किया है।
लेकिन कुछ ही वक्त के बाद में वो सभी विधायकों की मीटिंग बुलाते हैं और सुबह शक्ति प्रदर्शन कर यह दिखाने की कोशिश करते रहे कि उनकी सरकार सुरक्षित है।
इसके बाद जैसे-जैसे घटनाक्रम हो रहे थे, वैसे-वैसे गहलोत के स्टेटमेंट बदलते जा रहे थे। कभी वो बीजेपी को गलत बता रहे थे, तो कभी पायलट को और बाद में सीधा पायलट पर वार शुरू कर दिया, जिसमें वो खुलकर पायलट के ऊपर आरोप लगाते नज़र आते हैं।
गहलोत को क्यों खटक रहें हैं सचिन पायलट?
गहलोत गुट काफी समय से पायलट को प्रदेशाध्यक्ष की गद्दी से हटाने की मांग कर रहा था, इस बात से भी पायलट और उनके समर्थक नाराज़ थे। इसके साथ ही पायलट ने अपने एक इंटरव्यू में बताया कि कैसे राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष के पद छोड़ने के बाद उनके ऊपर भी दबाव बनाया गया।
यह सारे घटनाक्रम यही दर्शाते हैं कि पायलट अपने प्रदेशाध्यक्ष पद पर बने रहना चाहते थे जिससे वो जमीन पर पहले से ज़्यादा अपनी पकड़ मजबूत कर सके लेकिन यह गहलोत को बिल्कुल कुबूल नहीं था, क्योंकि यह आने वाले वक्त में उनको एक चुनौती जैसा ही दिख रहा था।
खैर, पायलट ने बगावत कर दी है और वो गहलोत सरकार को अल्पमत सरकार भी बोल चुके हैं। कांग्रेस के केन्द्रीय नेताओं ने भी पायलट से बात करने की कोशिश की है लेकिन नतीजा अभी तक कुछ नहीं निकल पाया। इधर गहलोत पायलट के उपर इल्ज़ाम लगा रहे है कि वे भाजपा में जाने वाले है जिसके बाद पायलट ने भी खुलकर कहा है कि वह भाजपा में कभी नहीं जाएंगे।
पायलट के भाजपा में ना जाने के कारण भी है जिसमें सबसे बड़ा कारण वसुंधरा राजे हैं, क्योंकि वसुंधरा जब तक राजस्थान में हैं। पायलट को मुख्यमंत्री पद मिलना असम्भव है और साथ ही राजस्थान बीजेपी भी अभी गुटों में बंटती हुई दिख रही है। इस कारण से कांग्रेस जैसा रूतबा उनको बीजेपी में मिलना नामुमकिन है।
सचिन पायलट के पास वर्तमान में दो ही विकल्प हैं
इसके बाद पायलट के पास सिर्फ 2 रास्ते बचते हैं पहला कि वो वापस कांग्रेस में आ जाएं और अपने आपको मजबूत करने के लिए काम शुरू कर दें। दूसरा कि वो अपनी अलग पार्टी बनाकर लोगों के बीच जाएं।
जगमोहन रेड्डी ने जिस तरीके से उनके पिता के मृत्यु के बाद मेहनत करके 10 साल में आंध्रप्रदेश की सत्ता हासिल की है। कुछ वैसी ही मेहनत अगर पायलट करते हैं तो राजस्थान में एक तीसरी ताकत खड़ी की जा सकती है।
पायलट युवाओं में बहुत चर्चित चहेरे हैं और इसी का फायदा उन्हें नई पार्टी बनाने में मिल सकता है लेकिन सब कुछ निर्भर करता है कि वो लोगों को यह विश्वास दिलवा पाते हैं या नहीं कि वो उनकी उम्मीद बन सकते हैं।
पायलट की सबसे अच्छी बात है कि वो अपने कार्यकर्ताओं को कभी नहीं भूलते और उनके लिए हमेशा तत्पर रहते हैं। इसी वजह से लोग उनसे जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और ये ही कुछ विषय हैं जो उनके लिए सकारात्मक सिद्ध हो सकते हैं।