जब पुलिसवालों ने मुझे और मेरे साथी को काले लिबास में देखा, तो उन्होंने डंडे से हमारा रास्ता रोकने की कोशिश की। मैंने कहा क्या हुआ सर? तो बोले कहां जाना है? मैंने कहा मजलिस में जा रहे हैं शाहे मरदां इमामबाड़ा। इतना सुनकर उनका मुंह गुस्से से लाल होकर तमतमाने लगा।
पीछे से एक पुलिसवाले ने मेरे दोस्त के ऊपर डंडे से वार करना चाहा, तो मैंने तेज़ आवाज़ में कहा ‘सर, वो मुसलमान नहीं है।’ ऐसा कहते ही उसका हाथ वहीं रुक गया। उसके रुके हाथों में किसी एक विशेष समुदाय के लिए कोई सरोकार नहीं था। हां, मगर नफरत थी और सरकारी दबाव था जो उसकी रोज़ी-रोटी का एकमात्र सहारा था।
क्या पुलिस कर रही है मनामानी?
बहरहाल, वह खींझ के बोला, “बहस मत कर वरना अंदर डाल दूंगा।” मैंने कुछ नहीं कहा। मैं शांति से इमामबाड़े के अंदर चला गया। मैं वहां पर उनके लिए रोने गया था, जिन्होंने मानवता की कई मिसालें पूरी दुनिया के लिए जीवंत कर दी थीं। मुझे वहां ना तो किसी का विद्रोह करना था और ना ही किसी को नीचा दिखाना था।
मैं अंदर पहुंचा और मैंने यह आपबीती वहां के मैनेजिंग स्टाफ को बतानी शुरू की, उतनी देर में इमामबाड़े के पास 17 पुलिस वैन आकर रुकीं। पुलिस अधीक्षक निकले और बोले “बन्द करो यह सब , यहां कुछ नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है, बन्द करो यह सब।”
इसके बाद मैनेजिंग कमेटी के लोगों ने उनको समझाना चाहा। छोटे-छोटे बच्चों का वसीला दिया, मगर उस समय पुलिस वाले शायद मानवता के विलोम में थे। उन्होंने शायद आंखों पर पट्टी बांध ली थी और कानों में तानाशाही के डंकों का शोर। आप यकीन नहीं मानेंगे उनके शब्द थे, “मर्दों और औरतों को नहीं देखा जाएगा सीधे तौर पर तुम लोगों का एनकाउंटर कर दिया जाएगा।”
लोगों को दी जा रही हैं धमकियां
मैं तो यह बात सुनकर स्तब्ध रह गया। मैं कभी नहीं मानता था कि पुलिसकर्मी भी ऐसी ज़ुबान इस्तेमाल करते होंगे। वहां पर खड़ी हुई औरतें और बच्चे मजलिस के लिए शांति की भीख मांगते रहे और महिला पुलिसकर्मियों ने उनके सिर से चादरें उतार लीं और उनको मारने लगीं।
बोलीं तुम्हारा बलात्कार कर दिया जाएगा चुपचाप यहां से हट जाओ। यह सुनकर तो मैं थर्राने लगा और मेरे आंखों से आंसुओं की लड़ी शुरू हो गई। एक महिला होकर किसी महिला के लिए ऐसा कहना कितना घिनौना अपराध है। यह एक शर्मसार करने वाली घटना है।
यह सब तांडव चलता रहा, मगर ना तो पुरूष अपनी जगह से हटे और ना ही महिलाएं। इस बात पर पुलिस अधीक्षक ने चिल्लाकर कहा, “रोड तो हमारा है, हम सारे रास्ते बंद करेंगे और सील होगा पूरा रास्ता।”
पुलिसकर्मियों ने यही किया। सारे रास्तों को बंद कर दिया गया और एक रास्ता खोला, वह भी अंदर का जिसके लिए इमामबाड़े में जाने के लिए तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। जो लोग बाइक पर थे वो लोग चले गए मगर 90 प्रतिशत लोग बस से आए थे। उनके साथ छोटे-छोटे बच्चे भी थे। मगर उन्होंने अपने जज़्बे को कम नहीं पड़ने दिया।
क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
इमाम हुसैन पर गम मनाने के लिए सोशल डिस्टेंनसिंग के साथ मजलिस का आयोजन होता है जो बैठकर ही किया जाता है, जो लोग सुप्रीम कोर्ट का हवाला दे रहे हैं उनको पहले यह समझना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने जुलूस निकालने पर रोक लगाई थी और हमारे समुदाय ने इस बात को माना भी था।
मगर जब कमेटी ने गृह मंत्रालय, दिल्ली के एलजी और मुख्यमंत्री से मजलिस की इजाज़त ले ली थी, तो फिर इसमें पुलिस का हस्तक्षेप कहीं से भी न्यायसंगत नहीं हो सकता है। मजलिस में उस समय सिर्फ मुसलमान ही नहीं मौजूद थे, बल्कि हिन्दू और सिख यहां तक कि ईसाई धर्म के लोग भी थे।
इसका तो मैं खुद सुबूत हूं, मेरे साथ मेरा दोस्त सनी मजलिस में जाता है। मौलाना की बात सुनने के लिए मुझसे ज़्यादा उसको उत्सुकता रहती है। मजलिसों में किसी विशेष धर्म की रूढ़ियों को नहीं समझाया जाता और ना ही ऐसा कहा जाता है कि ऐसा करो वैसा करो धार्मिकता से अधिक मजलिस का एक ही उद्देश्य मानवता को बचाने का है। यह एक आध्यात्मिक प्रथा है। लोग इसके भी दुश्मन है।
ध्यान रहे जब तक देश में धर्म के नाम पर आतंक और अराजकता फैलाई जाएगी, तब तब देश में आग की लपटें हमारे देश की आत्मा को जला कर राख कर देंगी। समावेशिता का पाठ पढ़ो और पढ़ाओ। हिंसक प्रवृति को खत्म करो सरकारी राजनीति की तरफ जो बढ़ेगा उसको आग से दोस्ती करनी होगी वरना इस धर्म के मायाजाल में फंसने के लिए तैयार रहें।