मैं मुंबई में पिछले 25 वर्षों से टीबी का इलाज कर रही हूं। इस दौरान मैंने कई चुनौतियों का सामना किया है। हालांकि टीबी से जुड़ा लांछन हमारे सामने बहुत बड़ी चुनौती है और इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
सामाजिक लांछन और धारणाओं से मरीज़ मानसिक रुप से होते हैं प्रभावित
हम टीबी से पीड़ित लोगों से जुड़े सामाजिक लांछन के लिए कुछ नहीं कर पाते और ना ही हमें इसके कलंक की कठोरता का एहसास होता है। यह मरीज़ के टीबी के उपचार को पूरा करने की क्षमता और उसे मानसिक रूप से काफी प्रभावित करता है।
जब एक टीबी रोगी डॉक्टर से मिलने जाता है, तो हमारा सारा ध्यान उपचार पूरा करने पर होता है। अक्सर इस बीमारी से जुड़े सामाजिक लांछन से लड़ने के बारे में कोई बात नहीं करता। महिलाओं के लिए तो यह लड़ाई और भी कठिन हो जाती है। हम उन्हें मौन बनाए रखने के लिए कहते हैं। रोगियों को कहा जाता है, किसी को मत बताना क्योंकि दूसरे लोग इसे समझ नहीं पाते हैं।
इस सच से कोई इनकार नहीं करता है कि टीबी से प्रभावित लोग किसी-न-किसी मोड़ पर कलंक का सामना करते हैं। टीबी से जुडी मान्यताएं बहुत डरावनी है। टीबी रोगियों को शापित माना जाता है, माना जाता है कि टीबी एक लाइलाज बीमारी है। ऐसा भी माना जाता है कि टीबी के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवाएं दुष्प्रभावी हैं और वह बहुत नुकसान करती हैं।
टीबी रोगियों से समाज में होता है भेदभाव
टीबी के रोगियों के साथ बदसलूकी, परहेज, भेदभाव और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, क्योंकि इसे संक्रामक बीमारी माना जाता है। यह डर उन्हें अपने लक्षणों को छिपाने के लिए मजबूर करता है और अक्सर इस वजह से उन्हें उचित उपचार नहीं मिल पाता है।
टीबी में लैंगिक असमानताएं हड़ताली हैं। टीबी से पुरुषों की तुलना में महिलाएं दोगुना प्रभावित होती है, सामाजिक कलंक का खामियाज़ा भी महिलाओं पर बुरी तरह से पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि टीबी महिलाओं के प्रजनन स्वस्थ को भी हानि पहुंचता है। इसलिए महिलाओं से जुड़े लांछन बहुत गंभीर हो जाते हैं।
युवा लड़कियां अक्सर लांछन और बदनामी के डर से इलाज कराने से कतराती हैं। ससुराल के डर से कई लड़कियां शादी के बाद दवाई लेना बंद कर देती हैं। यहां तक कि डॉक्टरों के बीच भी टीबी की धारणाएं प्रचलित हैं। टीबी अस्पतालों में काम करने वाली युवा महिला डॉक्टरों को जीवन साथी मिलना मुश्किल होता है, इसलिए कई बार उन्हें अपनी नौकरी तक छोड़नी पड़ती हैं।
इसमें पुरुषों को भी पूरी तरह से नहीं बख्शा जाता है। टीबी के कलंक के कारण कई पुरुषों को बेरोज़गारी, अकेलापन और उदासी का सामना करना पड़ता है। यह परिणामस्वरूप उन पर निर्भर परिवार के अन्य सदस्यों को प्रभावित करता हैं।
पुरुषों को भी अस्थिरता, सामाजिक परित्याग और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यहां तक कि स्वास्थ्य कर्मचारियों को भी सामाजिक लांछन का सामना करना पड़ता है। हम कैसे टीबी रोगियों के उपचार की उम्मीद कर सकते हैं, यदि स्वास्थ्य सेवा प्रदाता और उनके स्वयं के परिवार और समाज के लोग ही उनसे भेदभाव करने लगते हैं।
समााजिक धारणाओं से परेशान मरीज़ हो सकते हैं अवसाद के शिकार
प्रचलित सामाजिक धारणाओं के कारण कई बार लोग अवसाद से पीड़ित होते हैं। ऐसे समय में लोग किसी की मदद लेने में भी असमर्थ हो जाते हैं और इसके चलते अपना उपचार कराना भी छोड़ देते हैं।
विशेष रूप से एमडीआर टीबी में उदासी, आत्म-दोषी, निराशा, आघात और कभी-कभी आत्मघाती भावना पैदा हो जाती है। इसलिए इलाज से इनकार, निदान को छिपाना, लक्षणों को अनदेखा करना, चिकित्सक से सहायता नहीं मांगना, इत्यादि इसी कलंक के परिणाम हैं। जो आमतौर पर हमारे डॉक्टरों द्वारा देखे जाते हैं। ऐसा परिदृश्य उपचार के परिणाम पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
समस्या दरअसल स्वास्थ्य प्रणाली और स्वास्थ्य शिक्षा से शुरू होती है। हमें रोगियों और स्वास्थ्य प्रणाली के साथ जुड़ना नहीं सिखाया जाता है। अब समय है इस कलंक के बारे में बात करने का और इसमें डॉक्टरों की विशेष भूमिका है।
टीबी जैसे रोग का गढ़ माना जाता है भारत
भारत दुनिया भर में टीबी का सबसे बड़ा गढ़ है और 2025 तक हम इस बीमारी को देश से भागने का संकल्प कर चुके हैं। फिर भी इससे जुड़ी कोई स्पष्ट समय-सीमा नहीं है। ऐसा क्यों? हम एक समाज के रूप में, सामूहिक रूप से टीबी के कलंक से क्यों नहीं लड़ पा रहे हैं? टीबी और इसके कलंक के बारे में ऐसा क्या अलग है कि इसे संबोधित नहीं किया जा सकता है?
हमें रोगियों को सुनना चाहिए और उनसे बात करनी चाहिए। हमें उनसे इन धारणाओं के बारे में बात करनी होगी कि उन्हें कैसे संबोधित किया जाए और टीबी के बाद भी एक उनको एक आसान और सम्मानित जीवन जीने दिया जाए। हमें तात्कालिक रूप से एक संवेदनशील और धैर्य-केंद्रित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जहां सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में इन मरीज़ों के देखभाल और गरिमा को प्रमुखता दी जाती है।
करनी होगी धारणाओं को खत्म करने की शुरूआत
हम टीबी रोगियों और उनके परिवारों को कलंक से निपटने का परामर्श देकर एक शुरुआत कर सकते हैं। यह उपचार के पालन में भी सुधार करता है। फ्रंटलाइन हेल्थकेयर प्रदाताओं को प्रशिक्षित करने के लिए कार्यशालाओं का संचालन करना और सभी रोगियों के प्रति दयालु होना आवश्यक है। नर्सिंग और चिकित्सा पाठ्यक्रम में बदलाव भी हमारी मदद कर सकते हैं।
अंत में, सबसे महत्वपूर्ण है कि हम मरीज़ों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक और शिक्षित करें। किसी को भी किसी भी टीबी रोगी के खिलाफ कलंक या भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। चाहे वह परिवार और समुदाय के सदस्य हों या स्वास्थ्य सेवा प्रदाता हों।
इस संदर्भ में रोगी सहायता समूहों का निर्माण टीबी से निपटने में मदद करेंगे। उदाहरण के लिए, मुंबई के सेवरी टीबी अस्पताल में हम एमडीआर टीबी के सर्वाइवर्स को टीबी काउंसलर के रूप में नियुक्त करते हैं। इस पहल ने कई रोगियों को नकारात्मक दृष्टिकोण और निराशा से बाहर आने में मदद की है।
टीबी पर जनता को शिक्षित करने वाले सार्वजनिक सूचना अभियान और संक्रामक और गैर-संक्रामक टीबी के चारों ओर कलंक को दूर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाएंगे। इस तरह के बड़े पैमाने पर ब्रांड एंबेसडर जैसे सार्वजनिक आंकड़े, मशहूर हस्तियां, खिलाड़ी को नियुक्त कर अभियानों को प्रमाणित किया जाना चाहिए। हमें इस बारे में बात करनी होगी और यह सन्देश को घर–घर पहुंचाने की ज़रूरत है।
यदि भारत का उद्देश्य टीबी को खत्म करना है, तो इसके मूल को ध्यान में रखते हुए कलंक को समाप्त करने की दिशा में काम करने की ज़रूरत है। यह बहुत लम्बी प्रक्रिया है लेकिन इस पर हमें तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है। जब तक हम टीबी से जुड़े लांछनों और धारणाओं के खिलाफ अपनी छुपी नहीं तोड़ेंगे, तब तक यह सिर्फ एक सपना बन कर रह जाएगा।